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सोमवार, 14 मार्च 2011

सोन चिरैया

मैं और मेरा आकाश
कितना विस्तृत
कितनी उन्मुक्त उड़ान
पवन के पंखों पर
उडान भरती
मेरी आकांक्षाएं
बादलों पर तैरती
किलोल करती
मेरी छोटी छोटी
कनक समान
इच्छाएं
विचर रही थीं
आसमां छू रही थीं
पुष्पित
पल्लवित
उल्लसित
हो रही थीं
खुश थी मैं
अपने जीवन से
आहा ! अद्भुत है
मेरा जीवन
गुमान करने लगी थी
ना जाने कब
कैसे , कहाँ से
एक काला साया
गहराया
और मुझे
मेरी स्वतंत्रता को
मेरे वजूद को
पिंजरबद्ध कर गया
चलो स्वतंत्रता पर
पहरे लगे होते
मगर मेरी चाहतों
मेरी सोच
मेरी आत्मा
को तो
लहूलुहान ना
किया होता
उस पर तो
ना वार किया होता
आज ना मैं
उड़ पाती हूँ
ना सोच पाती हूँ
हर जगह
सोने  की सलाखों में
जंजीरों से जकड़ी
मेरी भावनाएं हैं
मेरी आकांक्षाएं हैं
हाँ , मैं वो
सोन चिरैया हूँ
जो सोने के पिंजरे
में रहती हूँ
मगर बंधनमुक्त
ना हो पाती हूँ

42 टिप्‍पणियां:

Atul Shrivastava ने कहा…

यथार्थ का चित्रण करती रचना।

रूप ने कहा…

sonchiraiya ko bandhanmukt hokar unmukt udaan bharni chahiye. sundar rachna .........

ZEAL ने कहा…

सोने के पिंजरे में कैद से बढ़कर कष्टकर कोई कैद नहीं ।

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

प्रेम के भाव को नये ढंग से व्यक्त करती सुन्दर कविता... प्रेम को क्या चाहिए, समझते हुए भी नहीं समझ पाते हैं हम...

रश्मि प्रभा... ने कहा…

ना जाने कब
कैसे , कहाँ से
एक काला साया
गहराया
और मुझे
मेरी स्वतंत्रता को
मेरे वजूद को
पिंजरबद्ध कर गया
bahut hi gahrayi hai shabdon me

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

मनोभावों को बखूबी उभारा है आपने!

सादर

बेनामी ने कहा…

वंदना जी,

बहुत सुन्दर....सुन्दर बिम्बों में बहुत गहरी बात कह गयीं आप.....प्रशंसनीय|

दिगम्बर नासवा ने कहा…

करून यथार्थ को सहज ही लिखा है ... बहुत सजीव चित्रण है इस रचना में ...

POOJA... ने कहा…

बंधन, कैद और पिंजरा...
इससे बड़ी सजा और क्या...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

कनक पिंजरें में बँधे पंख हैं।

Unknown ने कहा…

मनोभावों को शब्दों में उकेरती एक बेहद खूबसूरत रचना... बहुत खूब!

धीरेन्द्र सिंह ने कहा…

सोन चिरैया...शब्द सुनते ही मन मुस्रा उठा। एक लम्बे समय के बाद यह शब्द सुना, पहले कानियों में ही सुना करता ता अब तो सचमुच सुख-सुविधाओं के बीच ज़िंदगी सोन चिरैया हो गी है।

कुमार राधारमण ने कहा…

औरत की यही समस्या। सोना न हो तो शिकायत,सोना हो तो शिकायत। मुकम्मल जहां कब किसे मिला है!

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

sabdo ki gahrayee ka pata chal raha hai...tabhi to aaapse bahut kuchh seekhne ko milta hai..!

Pratik Maheshwari ने कहा…

सुन्दर रचना पर इतना दर्द क्यों?

Shekhar Suman ने कहा…

बहुत खूब...
अच्छा लगा पढ़ कर/...

मुकेश कुमार तिवारी ने कहा…

वन्दना जी,

न केवल सोन-चिरैय्या कविता अपने में अनेक ऐसे शब्दों को गूंथे हुये है जोकि अब किसी क्लासिकल कविता का अंश ही लगते हैं। अच्छी कविता अपने साथ रौ में बहा ले जाती है और मन सोचता है कि :-
(1) पिंजरा क्यों?
(2) सोना क्यों?
(3) पंछी को कैद रखने की चाहत क्यों?

ऐसे न जाने कितने सवालों को उठाती लगी कविता।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सोन चिरैया ..शायद नारी भी सोन चिरैया ही है ...

बहुत खूबसूरत रचना ..यथार्थ का चित्रण करती अच्छी रचना

Saleem Khan ने कहा…

सोन चिरैया हूँ
जो सोने के पिंजरे
में रहती हूँ
मगर बंधनमुक्त
ना हो पाती हूँ

great !

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 15 -03 - 2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

http://charchamanch.uchcharan.com/

अमिताभ मीत ने कहा…

बेहतरीन !!

Patali-The-Village ने कहा…

यथार्थ का चित्रण करती रचना। धन्यवाद|

राज भाटिय़ा ने कहा…

आज तो हर कोई इन पिंजरे मे खुश हे, हम ने आज अपने लिये खुद ही इस सोने के पिजरे को चुना हे, धन्यवाद सुंदर रचना के लिये

Sushil Bakliwal ने कहा…

सोने का या चांदी का हो,
हीरे-मोतियों से जडा हो,
पिंजरा तो पिंजरा है ।
आजादी की चाह ?

Rakesh Kumar ने कहा…

"पिंजरे के पंछी रे....तेरी क्या जिंदगानी रे "
हम सब भी तो पिंजरे के पंछी ही तो हैं,तडफ रहे है,उलझ रहे है अपनी ही वासनाओं के जाल में.

ये कालासाया क्या बला है,कहाँ से आया वंदनाजी?

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

मैं वो
सोन चिरैया हूँ
जो सोने के पिंजरे
में रहती हूँ
मगर बंधनमुक्त
ना हो पाती हूँ
--
सोन चिरैय्या की यही तो मजबूरी है!
शायद,
कैद में रहना ही उसकी नियति है!

vijay kumar sappatti ने कहा…

bahut sundar abhivyakti liye hue kavita ..

bahut kam kavitaye aisi hoti hai , jo shuru se ant tak baande rakhti hai padhne waalo , ko , ye unme se ek hai ..

badhai dil se

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

वंदना जी सोन चिरैया शब्द अपने आप में सब कुछ कह जाता है| आपने उसी शब्द के मध्यम से चिर परिचित अभिव्यक्ति को नये आयाम देने का अच्छा प्रयास किया है| बधाई|

ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने कहा…

सोने का है पिंजरा ,पंक्षी मगर उदास !
सदा पंख को चाहिए ,एक बृहद आकाश !

वंदना जी, ना जाने कितने जीवन की कविता इस कविता में मुखरित हुई है !
आभार !

rashmi ravija ने कहा…

सच के करीब पंक्तियाँ

मनोज कुमार ने कहा…

सच का रूप प्रकट हुआ है कविता में।

शेखचिल्ली का बाप ने कहा…

...
***
Nice post.
बुरा न मानो होली है.
राय और दिल तो हम भी रखते हैं परन्तु कह नहीं सकते , हमें डर है किसी बूढ़ी लुगाई का .

शेखचिल्ली का बाप ने कहा…

...
***
Nice post.
बुरा न मानो होली है.
राय और दिल तो हम भी रखते हैं परन्तु कह नहीं सकते , हमें डर है किसी बूढ़ी लुगाई का .

Unknown ने कहा…

ना जाने कब
कैसे , कहाँ से
एक काला साया
गहराया
और मुझे
मेरी स्वतंत्रता को
मेरे वजूद को
पिंजरबद्ध कर गया
करून यथार्थ .. बहुत सजीव चित्रण , प्रशंसनीय

Neeraj ने कहा…

पराधीन सपनेहुँ सुख नाही

संजय भास्‍कर ने कहा…

वंदना जी,
ना जाने कब
कैसे , कहाँ से
एक काला साया
गहराया
और मुझे
मेरी स्वतंत्रता को
मेरे वजूद को
पिंजरबद्ध कर गया

बहुत सुन्दर....बहुत गहरी बात कह गयीं आप.....प्रशंसनीय|

संजय भास्‍कर ने कहा…

कई दिनों व्यस्त होने के कारण  ब्लॉग पर नहीं आ सका
बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..

Kunwar Kusumesh ने कहा…

मनोभावों की सुन्दर अभिव्यक्ति.

वाणी गीत ने कहा…

सोने के पिंजरे में कोई बंधन मुक्त रह भी कैसे सकता है ..पंछी का नही ,पिंजरे का तो मोल है ही ...
बहुत खूबसूरत रचना !

Dr Varsha Singh ने कहा…

मेरी छोटी छोटी
कनक समान
इच्छाएं
विचर रही थीं
आसमां छू रही थीं...

सुन्दर प्रतीक ...
आपने बहुत सुन्दर शब्दों में अपनी बात कही है। शुभकामनायें।

सहज समाधि आश्रम ने कहा…

मजेदार । गुझिया अनरसे जैसा ।
वन्दना जी आपको होली की शुभकामनायें ।
कृपया इसी टिप्पणी के प्रोफ़ायल से मेरा ब्लाग
सत्यकीखोज देखें ।

रजनीश तिवारी ने कहा…

हर जगह
सोने की सलाखों में
जंजीरों से जकड़ी
मेरी भावनाएं हैं
मेरी आकांक्षाएं हैं
yathath ka bahut achcha chitran apki is khoobsoorat rachna me !