मैं और मेरा आकाश
कितना विस्तृत
कितनी उन्मुक्त उड़ान
पवन के पंखों पर
उडान भरती
मेरी आकांक्षाएं
बादलों पर तैरती
किलोल करती
मेरी छोटी छोटी
कनक समान
इच्छाएं
विचर रही थीं
आसमां छू रही थीं
पुष्पित
पल्लवित
उल्लसित
हो रही थीं
खुश थी मैं
अपने जीवन से
आहा ! अद्भुत है
मेरा जीवन
गुमान करने लगी थी
ना जाने कब
कैसे , कहाँ से
एक काला साया
गहराया
और मुझे
मेरी स्वतंत्रता को
मेरे वजूद को
पिंजरबद्ध कर गया
चलो स्वतंत्रता पर
पहरे लगे होते
मगर मेरी चाहतों
मेरी सोच
मेरी आत्मा
को तो
लहूलुहान ना
किया होता
उस पर तो
ना वार किया होता
आज ना मैं
उड़ पाती हूँ
ना सोच पाती हूँ
हर जगह
सोने की सलाखों में
जंजीरों से जकड़ी
मेरी भावनाएं हैं
मेरी आकांक्षाएं हैं
हाँ , मैं वो
सोन चिरैया हूँ
जो सोने के पिंजरे
में रहती हूँ
मगर बंधनमुक्त
ना हो पाती हूँ
कितना विस्तृत
कितनी उन्मुक्त उड़ान
पवन के पंखों पर
उडान भरती
मेरी आकांक्षाएं
बादलों पर तैरती
किलोल करती
मेरी छोटी छोटी
कनक समान
इच्छाएं
विचर रही थीं
आसमां छू रही थीं
पुष्पित
पल्लवित
उल्लसित
हो रही थीं
खुश थी मैं
अपने जीवन से
आहा ! अद्भुत है
मेरा जीवन
गुमान करने लगी थी
ना जाने कब
कैसे , कहाँ से
एक काला साया
गहराया
और मुझे
मेरी स्वतंत्रता को
मेरे वजूद को
पिंजरबद्ध कर गया
चलो स्वतंत्रता पर
पहरे लगे होते
मगर मेरी चाहतों
मेरी सोच
मेरी आत्मा
को तो
लहूलुहान ना
किया होता
उस पर तो
ना वार किया होता
आज ना मैं
उड़ पाती हूँ
ना सोच पाती हूँ
हर जगह
सोने की सलाखों में
जंजीरों से जकड़ी
मेरी भावनाएं हैं
मेरी आकांक्षाएं हैं
हाँ , मैं वो
सोन चिरैया हूँ
जो सोने के पिंजरे
में रहती हूँ
मगर बंधनमुक्त
ना हो पाती हूँ
42 टिप्पणियां:
यथार्थ का चित्रण करती रचना।
sonchiraiya ko bandhanmukt hokar unmukt udaan bharni chahiye. sundar rachna .........
सोने के पिंजरे में कैद से बढ़कर कष्टकर कोई कैद नहीं ।
प्रेम के भाव को नये ढंग से व्यक्त करती सुन्दर कविता... प्रेम को क्या चाहिए, समझते हुए भी नहीं समझ पाते हैं हम...
ना जाने कब
कैसे , कहाँ से
एक काला साया
गहराया
और मुझे
मेरी स्वतंत्रता को
मेरे वजूद को
पिंजरबद्ध कर गया
bahut hi gahrayi hai shabdon me
मनोभावों को बखूबी उभारा है आपने!
सादर
वंदना जी,
बहुत सुन्दर....सुन्दर बिम्बों में बहुत गहरी बात कह गयीं आप.....प्रशंसनीय|
करून यथार्थ को सहज ही लिखा है ... बहुत सजीव चित्रण है इस रचना में ...
बंधन, कैद और पिंजरा...
इससे बड़ी सजा और क्या...
कनक पिंजरें में बँधे पंख हैं।
मनोभावों को शब्दों में उकेरती एक बेहद खूबसूरत रचना... बहुत खूब!
सोन चिरैया...शब्द सुनते ही मन मुस्रा उठा। एक लम्बे समय के बाद यह शब्द सुना, पहले कानियों में ही सुना करता ता अब तो सचमुच सुख-सुविधाओं के बीच ज़िंदगी सोन चिरैया हो गी है।
औरत की यही समस्या। सोना न हो तो शिकायत,सोना हो तो शिकायत। मुकम्मल जहां कब किसे मिला है!
sabdo ki gahrayee ka pata chal raha hai...tabhi to aaapse bahut kuchh seekhne ko milta hai..!
सुन्दर रचना पर इतना दर्द क्यों?
बहुत खूब...
अच्छा लगा पढ़ कर/...
वन्दना जी,
न केवल सोन-चिरैय्या कविता अपने में अनेक ऐसे शब्दों को गूंथे हुये है जोकि अब किसी क्लासिकल कविता का अंश ही लगते हैं। अच्छी कविता अपने साथ रौ में बहा ले जाती है और मन सोचता है कि :-
(1) पिंजरा क्यों?
(2) सोना क्यों?
(3) पंछी को कैद रखने की चाहत क्यों?
ऐसे न जाने कितने सवालों को उठाती लगी कविता।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
सोन चिरैया ..शायद नारी भी सोन चिरैया ही है ...
बहुत खूबसूरत रचना ..यथार्थ का चित्रण करती अच्छी रचना
सोन चिरैया हूँ
जो सोने के पिंजरे
में रहती हूँ
मगर बंधनमुक्त
ना हो पाती हूँ
great !
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 15 -03 - 2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
बेहतरीन !!
यथार्थ का चित्रण करती रचना। धन्यवाद|
आज तो हर कोई इन पिंजरे मे खुश हे, हम ने आज अपने लिये खुद ही इस सोने के पिजरे को चुना हे, धन्यवाद सुंदर रचना के लिये
सोने का या चांदी का हो,
हीरे-मोतियों से जडा हो,
पिंजरा तो पिंजरा है ।
आजादी की चाह ?
"पिंजरे के पंछी रे....तेरी क्या जिंदगानी रे "
हम सब भी तो पिंजरे के पंछी ही तो हैं,तडफ रहे है,उलझ रहे है अपनी ही वासनाओं के जाल में.
ये कालासाया क्या बला है,कहाँ से आया वंदनाजी?
मैं वो
सोन चिरैया हूँ
जो सोने के पिंजरे
में रहती हूँ
मगर बंधनमुक्त
ना हो पाती हूँ
--
सोन चिरैय्या की यही तो मजबूरी है!
शायद,
कैद में रहना ही उसकी नियति है!
bahut sundar abhivyakti liye hue kavita ..
bahut kam kavitaye aisi hoti hai , jo shuru se ant tak baande rakhti hai padhne waalo , ko , ye unme se ek hai ..
badhai dil se
वंदना जी सोन चिरैया शब्द अपने आप में सब कुछ कह जाता है| आपने उसी शब्द के मध्यम से चिर परिचित अभिव्यक्ति को नये आयाम देने का अच्छा प्रयास किया है| बधाई|
सोने का है पिंजरा ,पंक्षी मगर उदास !
सदा पंख को चाहिए ,एक बृहद आकाश !
वंदना जी, ना जाने कितने जीवन की कविता इस कविता में मुखरित हुई है !
आभार !
सच के करीब पंक्तियाँ
सच का रूप प्रकट हुआ है कविता में।
...
***
Nice post.
बुरा न मानो होली है.
राय और दिल तो हम भी रखते हैं परन्तु कह नहीं सकते , हमें डर है किसी बूढ़ी लुगाई का .
...
***
Nice post.
बुरा न मानो होली है.
राय और दिल तो हम भी रखते हैं परन्तु कह नहीं सकते , हमें डर है किसी बूढ़ी लुगाई का .
ना जाने कब
कैसे , कहाँ से
एक काला साया
गहराया
और मुझे
मेरी स्वतंत्रता को
मेरे वजूद को
पिंजरबद्ध कर गया
करून यथार्थ .. बहुत सजीव चित्रण , प्रशंसनीय
पराधीन सपनेहुँ सुख नाही
वंदना जी,
ना जाने कब
कैसे , कहाँ से
एक काला साया
गहराया
और मुझे
मेरी स्वतंत्रता को
मेरे वजूद को
पिंजरबद्ध कर गया
बहुत सुन्दर....बहुत गहरी बात कह गयीं आप.....प्रशंसनीय|
कई दिनों व्यस्त होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका
बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..
मनोभावों की सुन्दर अभिव्यक्ति.
सोने के पिंजरे में कोई बंधन मुक्त रह भी कैसे सकता है ..पंछी का नही ,पिंजरे का तो मोल है ही ...
बहुत खूबसूरत रचना !
मेरी छोटी छोटी
कनक समान
इच्छाएं
विचर रही थीं
आसमां छू रही थीं...
सुन्दर प्रतीक ...
आपने बहुत सुन्दर शब्दों में अपनी बात कही है। शुभकामनायें।
मजेदार । गुझिया अनरसे जैसा ।
वन्दना जी आपको होली की शुभकामनायें ।
कृपया इसी टिप्पणी के प्रोफ़ायल से मेरा ब्लाग
सत्यकीखोज देखें ।
हर जगह
सोने की सलाखों में
जंजीरों से जकड़ी
मेरी भावनाएं हैं
मेरी आकांक्षाएं हैं
yathath ka bahut achcha chitran apki is khoobsoorat rachna me !
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