उनकी सोच का पैनापन देखिये
मैं तो चाँद गुलाब और झीलों पर ठहरी हूँ
मगर वहाँ तो चेहरों पर भी फसल उग आती है
मैं तो अभी उथले सागर में मोती ढूँढ रही हूँ
मगर वहाँ तो बंजर जमीन पर भी हरियाली छाती है
एक टुकड़ा मोहब्बत का समेट लेती हूँ
और कुछ देर खुश हो लेती हूँ
या दर्द की चादर में चेहरा छुपा लेती हूँ
मगर वहाँ तो सर्द आँखों में भी ज़िन्दगी झिलमिलाती है
कभी रोटी में तो कभी बोटी में
कभी खांसी में तो कभी शराब की बोतल में
एक सहमी दवा नज़र आती है
सिर्फ चंद लफ्ज़ गढ़ लेना
सूरज चाँद सितारों और मोहब्बत पर लिख लेना
ये कोई बड़ी बात नहीं
देखना है तो देख
एक बार मुड कर अपने पास भी
एक बार मुड कर अपने पास भी
कहीं चिलचिलाती धूप सी महंगाई की मार ने
कैसे बाबू की कमर को तोडा है
जो वक्त से पहले ही झुक गयी है
आँखों में चिंताओं की अनगिनत छाप छोड़ गयी है
तो कहीं दिखावों रिश्वतों की भेंट
महंगाई चढ गयी है
स्विस बैंकों और तिजोरियों मे
गड्डी जमा हो गयी हैं
तो कहीं दिखावों रिश्वतों की भेंट
महंगाई चढ गयी है
स्विस बैंकों और तिजोरियों मे
गड्डी जमा हो गयी हैं
देखना है तो देख
उस रामदीन को
जिसके छप्पर की छत उड़ गयी है
और बरसात भी सिर पर आ गयी है
टपकते पानी की रात भी
कटोरों में सिमट गयी है
और सुबह फिर ज़िन्दगी
अपने हिसाब पर निकल गयी है
तो दूसरी तरफ़
किसी के शौचालय भी
वातानुकूलित बने हैं
तो दूसरी तरफ़
किसी के शौचालय भी
वातानुकूलित बने हैं
देखना है तो देख
वहाँ मैरिट निकल गयी है
और तेरे देश के भविष्य से
उसकी सीट छीन गयी है
महज़ फीस अदा ना कर पाने की एवज में
और वो किसी क्लर्क की नौकरी तक ही
सिमट कर रह गयी है
और दूसरी तरफ
अयोग्यता सिर्फ पैसे के बल पर
आज उच्च पद पर आसीन हो गयी है
देखना है तो देख
उस किसान के घर में
जहाँ रामखिलावन को
बच्चों और बैलों की भूख
नज़र आती है
और कोई उपाय ना मिलने पर
कीटों पर छिडकने वाली दवा में ही
अपनी और घर के सदस्यों की
खुशियाँ नज़र आती हैं
देखना है तो देख
उस आदिवासी के घर को
जहाँ एक साड़ी में
छह छह अबलायें सिसक रही हैं
सिर्फ बाहर जाने वाली ही
उस कफ़न को ओढ़ रही है
और दूसरी तरफ
रोज कोई दिन में चार चार साड़ियाँ बदल रही है
देखना है तो देख
उस कामगार के घर में
जहाँ एक वक्त की रोटी के लिए
सिर्फ पांच रूपये और एक सिगरेट के बदले
औरतें बिक रही हैं
और कहीं कोई रोज
जुए में पैसे उडा रही है
और अपना रौब जमा रही है
देखना है तो देख
उन पटाखों की फैक्टरियों में
जहाँ बचपन कैसे जल रहा है
हाथों पर पड़े फफोलों से
कैसे लड़ रहा है
और खाने को फिर भी
तरस रहा है
और दूसरी तरफ
कोई भरी थाली सरका रहा है
उसे तो पिज्जा और बर्गर भा रहा है
देखना है तो देख
जहाँ छातियाँ भी सूख चुकी हैं
दूधमूंहे की दूध की आस भी टूट चुकी है
बंद चूल्हे पर भिगोने मे
खिचडी बनाने का भरम
वो बच्चों को दे रही है
और थपकियों और लोरियों मे
नींद को चुनौती दे रही है
तो दूसरी तरफ़
कहीं कूकर भी दूध पी रहे हैं
और अपनी किस्मत पर
रश्क कर रहे हैं
ये किस्मत का बेतरतीबपना
कहीं ज़िन्दगी कहकहों मे पल रही है
तो कहीं तपती भट्टियों मे जल रही है
मगर शिकायत ना कोई कर रही है
देखना है तो देख
जहाँ छातियाँ भी सूख चुकी हैं
दूधमूंहे की दूध की आस भी टूट चुकी है
बंद चूल्हे पर भिगोने मे
खिचडी बनाने का भरम
वो बच्चों को दे रही है
और थपकियों और लोरियों मे
नींद को चुनौती दे रही है
तो दूसरी तरफ़
कहीं कूकर भी दूध पी रहे हैं
और अपनी किस्मत पर
रश्क कर रहे हैं
ये किस्मत का बेतरतीबपना
कहीं ज़िन्दगी कहकहों मे पल रही है
तो कहीं तपती भट्टियों मे जल रही है
मगर शिकायत ना कोई कर रही है
कहना लिखना बहुत आसान लगता है
मोहब्बत पर , दर्द पर
मगर सच्चाइयों के कठोर धरातल पर खड़े होकर
कटु सत्यों से रु-ब-रु होकर
सत्य के आइनों में झांकना दुरूह होता है
फिर बताओ तो ज़रा
लिखना कैसे संभव हो सकता है
उन परिस्थितियों पर
जहाँ ज़िन्दगी ----अगर उसे ज़िन्दगी कहो तो
एक जंग खुद से ही लड़ रही होती है
सांस लेने के क़र्ज़ उतार रही होती है
वहाँ कवितायेँ नहीं बना करतीं
वहाँ हकीकतें हड्डियों में सिहरन पहुँचाती हैं
वहाँ दवा , दुआ, ताकत, हैसियत सब फ़िज़ूल नज़र आती है
जहाँ ज़िन्दगी हर पल मौत से आँख मिलाती है
और कह जाती है .........ये होता है ज़िन्दगी का पैनापन
गर हिम्मत हो तो और आजमा लेना
जज्बों को मत कविताओं में तोलना
खुशफहमियों से ज़रा बाहर निकलना
और अपनी कलम में कुछ ऐसा ही पैनापन भरना
तभी सार्थक होगा जीना , लिखना और कहना
27 टिप्पणियां:
बिल्कुल सच कहा ... तभी सार्थक होगा ... उत्कृष्ट भावों का संगम ... आभार ।
sach ka bayaan hai aapki kavita, yatharth ke thos dharatal par utar kar dekhna hoga samasyaon ko.
manmohan saral
कटु सत्य के धरातल पर लिखी सार्थक रचना
बाप रे... बहुत कुछ देख डाला आज तो ..सार्थक हो गया होगा अब तो लिखना :)
bahut hee shandaar chintan se otprot sasakt rachna..kavita ke naye bishyon kee taraf ishara karti hai...vartmaan samaj ke darpan jaisi kavita...ati sundar rachna ke liye sadar badhayee ..aaur sadar amantran ke sath
यथार्थ का इना दिखती पोस्ट ....
गर हिम्मत हो तो और जमा लेना
...तभी सार्थक होगा जीना लिखना और कहना ..
बहुत ही भावपूर्ण रचना अभिव्यक्ति ..
कभी समय मिले तो मेरे ब्लॉग समयचक्र पर जरुर आइये..
बहुत बहुत बहुत ही सुन्दर ।
आज के समय के मुताबिक रचना .......पर इन बातो पर किसने ,कब अमल किया ???
sach kaha .
'दुनिया की हर वस्तु का एक न एक दिन मिटना तय है।
इसलिए उनका सर्वोत्तम प्रयोग किया जाना चाहिए। इसी में उसकी सार्थकता है। शरीर का भी एक दिन नष्ट होना तय है। उसे स्थायी रूप से बचाया नहीं जा सकता। इसलिए उसके बचने की चिंता छोड़कर हमें उसका दूसरों के हित में प्रयोग करना चाहिए।'
बहुत पैनी है आपकी नज़र
विसंगतियों की पूरी फेहरिस्त और फिर आपका अन्दाज़ ...
उत्कृष्ट
कहीं धूप तो कहीं छाँह..
जीवन का कटु सत्य है.... जिससे आपने अवगत कराया है....
एक एक पंक्ति जीवन का कटु सत्य दिग्दर्शित करती हुई...बहुत सटीक और उत्कर्ष प्रस्तुति....
समय के मुताबिक रचना पूरी रचना बहुत ही खूब.कुछ भी छोड़ दूं तो नाइंसाफी होगी.....!!!!
saty ki vijay...
कटु सत्य के धरातल पर लिखी सार्थक रचना....
आभार
जीवन के कई पक्छो को उजागर किया है...
लिखना है तो इस सत्य पर भी लिखना आवश्यक है..
तभी सार्थक रचना होगी....
सार्थक और उत्कृष्ट रचना.....
waah ji waah...
सटीक/सुंदर यथार्थपरक रचना....
सादर।
ytharth se parichit karaya apne....badhiya
waah..awesome....
आक्रोश भरी कविता... एक नया रूप आपका...
सुंदर काव्यांकन!
आपकी संवेदनशीलता को नमन.
बेहतरीन बहुत सुन्दर
(अरुन =arunsblog.in)
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