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शुक्रवार, 1 जून 2012

उनकी सोच का पैनापन देखिये

उनकी सोच का पैनापन देखिये
मैं तो चाँद गुलाब और झीलों पर ठहरी हूँ
मगर वहाँ तो चेहरों पर भी फसल उग आती है
मैं तो अभी उथले सागर में मोती ढूँढ रही हूँ
मगर वहाँ तो बंजर जमीन पर भी हरियाली छाती है
एक टुकड़ा मोहब्बत का समेट लेती हूँ
और कुछ देर खुश हो लेती हूँ
या दर्द की चादर में चेहरा छुपा लेती हूँ
मगर वहाँ तो सर्द आँखों में भी ज़िन्दगी झिलमिलाती है 

कभी रोटी में तो कभी बोटी में 
कभी खांसी में तो कभी शराब की बोतल में 
एक सहमी दवा नज़र आती है
सिर्फ चंद लफ्ज़ गढ़ लेना
सूरज चाँद सितारों और मोहब्बत पर लिख लेना
ये कोई बड़ी बात नहीं

देखना है तो देख 
एक बार मुड कर अपने पास भी
कहीं चिलचिलाती धूप सी महंगाई की मार ने
कैसे बाबू की कमर को तोडा है
जो वक्त से पहले ही झुक गयी है
आँखों में चिंताओं की अनगिनत छाप छोड़ गयी है
तो कहीं दिखावों रिश्वतों की भेंट 
महंगाई चढ गयी है 
स्विस बैंकों और तिजोरियों मे 
गड्डी जमा हो गयी हैं 

देखना है तो देख 
उस रामदीन को 
जिसके छप्पर की छत उड़ गयी है
और बरसात भी सिर पर आ गयी है
टपकते पानी की रात भी
कटोरों में सिमट गयी है 
और सुबह फिर ज़िन्दगी 
अपने हिसाब पर निकल गयी है
तो दूसरी तरफ़ 
किसी के शौचालय भी 
वातानुकूलित बने हैं 



देखना है तो देख
वहाँ मैरिट निकल गयी है
और तेरे देश के भविष्य से 
उसकी सीट छीन गयी है
महज़ फीस अदा ना कर पाने की एवज में
और वो किसी क्लर्क की नौकरी तक ही 
सिमट कर रह गयी है 
और दूसरी तरफ 
अयोग्यता सिर्फ पैसे के बल पर 
आज उच्च पद पर आसीन हो गयी है

देखना है तो देख
उस किसान के घर में 
जहाँ रामखिलावन को 
बच्चों और बैलों की भूख 
नज़र आती है 
और कोई उपाय ना मिलने पर
कीटों पर छिडकने वाली दवा में ही
अपनी और घर के सदस्यों की 
खुशियाँ नज़र आती हैं 

देखना है तो देख
उस आदिवासी के घर को
जहाँ एक साड़ी  में 
छह छह अबलायें सिसक रही हैं
सिर्फ बाहर जाने वाली ही 
उस कफ़न को ओढ़ रही है 
और दूसरी तरफ 
रोज कोई दिन में चार चार साड़ियाँ बदल रही है  

देखना है तो देख
उस कामगार के घर में
जहाँ एक वक्त की रोटी के लिए
सिर्फ पांच रूपये और एक सिगरेट  के बदले 
औरतें बिक रही हैं 
और कहीं कोई रोज 
जुए में पैसे उडा रही है 
और अपना रौब जमा रही है 

देखना है तो देख
उन पटाखों की फैक्टरियों में 
जहाँ बचपन कैसे जल रहा है
हाथों पर पड़े फफोलों से 
कैसे लड़ रहा है 
और खाने को फिर भी 
तरस रहा है 
और दूसरी तरफ
कोई भरी थाली सरका रहा है
उसे तो पिज्जा और बर्गर भा रहा है 


देखना है तो देख 
जहाँ छातियाँ भी सूख चुकी हैं 
दूधमूंहे की दूध की आस भी टूट चुकी है
बंद चूल्हे पर भिगोने मे
खिचडी बनाने का भरम 
वो बच्चों को दे रही है
और थपकियों और लोरियों मे
नींद को चुनौती दे रही है
तो दूसरी तरफ़ 
कहीं कूकर भी दूध पी रहे हैं 
और अपनी किस्मत पर 
रश्क कर रहे हैं 


ये किस्मत का बेतरतीबपना
कहीं ज़िन्दगी कहकहों मे पल रही है
तो कहीं तपती भट्टियों मे जल रही है
मगर शिकायत ना कोई कर रही है

कहना लिखना बहुत आसान लगता है
मोहब्बत पर , दर्द पर 
मगर सच्चाइयों के कठोर धरातल पर खड़े होकर
कटु सत्यों से रु-ब-रु होकर 
सत्य के आइनों में झांकना दुरूह होता है
फिर बताओ तो ज़रा 
लिखना कैसे संभव हो सकता है
उन परिस्थितियों पर 
जहाँ ज़िन्दगी ----अगर उसे ज़िन्दगी कहो तो
एक जंग खुद से ही लड़ रही होती है
सांस लेने के क़र्ज़ उतार रही होती है
वहाँ कवितायेँ नहीं बना करतीं
वहाँ हकीकतें हड्डियों में सिहरन पहुँचाती हैं
वहाँ दवा , दुआ, ताकत, हैसियत सब फ़िज़ूल नज़र आती है
जहाँ ज़िन्दगी हर पल मौत से आँख मिलाती है 
और कह जाती है .........ये होता है ज़िन्दगी का पैनापन 

गर हिम्मत हो तो और आजमा लेना 
जज्बों को मत कविताओं में तोलना 
खुशफहमियों से ज़रा बाहर निकलना
और अपनी कलम में कुछ ऐसा ही पैनापन भरना 
तभी सार्थक होगा जीना , लिखना और कहना


27 टिप्‍पणियां:

सदा ने कहा…

बिल्‍कुल सच कहा ... तभी सार्थक होगा ... उत्‍कृष्‍ट भावों का संगम ... आभार ।

manmohan saral ने कहा…

sach ka bayaan hai aapki kavita, yatharth ke thos dharatal par utar kar dekhna hoga samasyaon ko.
manmohan saral

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

कटु सत्य के धरातल पर लिखी सार्थक रचना

shikha varshney ने कहा…

बाप रे... बहुत कुछ देख डाला आज तो ..सार्थक हो गया होगा अब तो लिखना :)

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" ने कहा…

bahut hee shandaar chintan se otprot sasakt rachna..kavita ke naye bishyon kee taraf ishara karti hai...vartmaan samaj ke darpan jaisi kavita...ati sundar rachna ke liye sadar badhayee ..aaur sadar amantran ke sath

Pallavi saxena ने कहा…

यथार्थ का इना दिखती पोस्ट ....

समयचक्र ने कहा…

गर हिम्मत हो तो और जमा लेना
...तभी सार्थक होगा जीना लिखना और कहना ..
बहुत ही भावपूर्ण रचना अभिव्यक्ति ..
कभी समय मिले तो मेरे ब्लॉग समयचक्र पर जरुर आइये..

बेनामी ने कहा…

बहुत बहुत बहुत ही सुन्दर ।

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

आज के समय के मुताबिक रचना .......पर इन बातो पर किसने ,कब अमल किया ???

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

sach kaha .
'दुनिया की हर वस्तु का एक न एक दिन मिटना तय है।
इसलिए उनका सर्वोत्तम प्रयोग किया जाना चाहिए। इसी में उसकी सार्थकता है। शरीर का भी एक दिन नष्ट होना तय है। उसे स्थायी रूप से बचाया नहीं जा सकता। इसलिए उसके बचने की चिंता छोड़कर हमें उसका दूसरों के हित में प्रयोग करना चाहिए।'

M VERMA ने कहा…

बहुत पैनी है आपकी नज़र
विसंगतियों की पूरी फेहरिस्त और फिर आपका अन्दाज़ ...

Gyan Darpan ने कहा…

उत्कृष्ट

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

कहीं धूप तो कहीं छाँह..

विभूति" ने कहा…

जीवन का कटु सत्य है.... जिससे आपने अवगत कराया है....

Kailash Sharma ने कहा…

एक एक पंक्ति जीवन का कटु सत्य दिग्दर्शित करती हुई...बहुत सटीक और उत्कर्ष प्रस्तुति....

संजय भास्‍कर ने कहा…

समय के मुताबिक रचना पूरी रचना बहुत ही खूब.कुछ भी छोड़ दूं तो नाइंसाफी होगी.....!!!!

दर्शन कौर धनोय ने कहा…

saty ki vijay...

udaya veer singh ने कहा…

कटु सत्य के धरातल पर लिखी सार्थक रचना....
आभार

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

जीवन के कई पक्छो को उजागर किया है...
लिखना है तो इस सत्य पर भी लिखना आवश्यक है..
तभी सार्थक रचना होगी....
सार्थक और उत्कृष्ट रचना.....

दिलीप ने कहा…

waah ji waah...

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

सटीक/सुंदर यथार्थपरक रचना....
सादर।

Anamikaghatak ने कहा…

ytharth se parichit karaya apne....badhiya

ZEAL ने कहा…

waah..awesome....

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

आक्रोश भरी कविता... एक नया रूप आपका...

Vinay ने कहा…

सुंदर काव्यांकन!

Rakesh Kumar ने कहा…

आपकी संवेदनशीलता को नमन.

अरुन अनन्त ने कहा…

बेहतरीन बहुत सुन्दर
(अरुन =arunsblog.in)