एक अरसा हुआ तुमसे बिछड़े
कितने अजनबी हो गए
साथ रहते हुए भी .......है ना
कितना नागवार गुजरने लगा है
एक दूजे का साथ ना
साथ चल भी रहे हैं
मगर साथ नहीं हैं
कल जिस साथ को
जन्म जन्म का बनाने की चाहत थी
आज एक जन्म भी निभाना
कितना मुश्किल लगने लगा है
है ना................
ना जाने कब
अजनबियत की दरार उभरी
और इतनी गहराती गयी
कि पाटनी मुमकिन ना रही
और आज इतनी गहरा गयी है
कि अगर उसमे झांको तो
कुछ दिखाई नहीं देता
सिवाय गहरे बियाबान अंधेरों के
कोई अक्स भी गलती से यदि
उभरता दिखता है तो वो भी
भयावह शक्ल अख्तियार कर लेता है
तब लगता है
कैसे इतना सफ़र तय हो गया
कैसे वादा किया हमने साथ रहने का
जबकि आज लफ़्ज़ों में भी
तेजाब उफनता है
कैसे अजनबी एक हुए
और फिर अजनबी बन गए
या शायद एक तो कभी होते ही नहीं
सिर्फ समझौते पर समझौते करते
हमारे वजूद सहने की सीमा से आगे
झुकने को मजबूर नहीं होते
बेशक टूट क्यों ना जाए
शायद तभी हम ये सोचने को
मजबूर हो जाते हैं
क्या कभी हम साथ चले थे
क्या कभी हमने एक दूजे को चाहा था
पता नहीं वो सच था
या ये सच है
जब अभी तो ज़िन्दगी का
सिर्फ एक पड़ाव ही तय किया है
किनारे तक पहुँचने के लिए तो
ना जाने कितनी अग्निपरीक्षायें
मूंह बाये खडी हैं
बताओ ना फिर ...................
क्या इसी तरह तय कर पाओगे
अजनबियत का सफ़र
क्यूँकि जानते हो ना
जो तारे आसमाँ से टूट जाते हैं वो फिर नहीं जुडा करते!!!
कितने अजनबी हो गए
साथ रहते हुए भी .......है ना
कितना नागवार गुजरने लगा है
एक दूजे का साथ ना
साथ चल भी रहे हैं
मगर साथ नहीं हैं
कल जिस साथ को
जन्म जन्म का बनाने की चाहत थी
आज एक जन्म भी निभाना
कितना मुश्किल लगने लगा है
है ना................
ना जाने कब
अजनबियत की दरार उभरी
और इतनी गहराती गयी
कि पाटनी मुमकिन ना रही
और आज इतनी गहरा गयी है
कि अगर उसमे झांको तो
कुछ दिखाई नहीं देता
सिवाय गहरे बियाबान अंधेरों के
कोई अक्स भी गलती से यदि
उभरता दिखता है तो वो भी
भयावह शक्ल अख्तियार कर लेता है
तब लगता है
कैसे इतना सफ़र तय हो गया
कैसे वादा किया हमने साथ रहने का
जबकि आज लफ़्ज़ों में भी
तेजाब उफनता है
कैसे अजनबी एक हुए
और फिर अजनबी बन गए
या शायद एक तो कभी होते ही नहीं
सिर्फ समझौते पर समझौते करते
हमारे वजूद सहने की सीमा से आगे
झुकने को मजबूर नहीं होते
बेशक टूट क्यों ना जाए
शायद तभी हम ये सोचने को
मजबूर हो जाते हैं
क्या कभी हम साथ चले थे
क्या कभी हमने एक दूजे को चाहा था
पता नहीं वो सच था
या ये सच है
जब अभी तो ज़िन्दगी का
सिर्फ एक पड़ाव ही तय किया है
किनारे तक पहुँचने के लिए तो
ना जाने कितनी अग्निपरीक्षायें
मूंह बाये खडी हैं
बताओ ना फिर ...................
क्या इसी तरह तय कर पाओगे
अजनबियत का सफ़र
क्यूँकि जानते हो ना
जो तारे आसमाँ से टूट जाते हैं वो फिर नहीं जुडा करते!!!
11 टिप्पणियां:
टूटी हुई कोई भी चीज़ कभी फिर से नहीं जुडती
सार्थक रचना
जो तारे आसमाँ से टूट जाते हैं ....
..........
भावमय करते शब्द .... अनुपम प्रस्तुति
:(
बहुत खूब सुन्दर रचना
हर पग बढ़े पर पहचान न छूटे..
bahoot khoob likha vandanaji ...
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति..
ऐसी रचना और भाव कभी कभी ही पढ़ने को मिलते हैं। एक गजल की दो लाइनें..
शाम ए फिराक अब ना पूछ आई और आ के टल गई
दिल था कि फिर बहल गया, जां थी कि फिर संभल गई।
जब तुझे याद कर लिया, सुबह महक महक उठी,
जब तेरा गम जगा लिया, रात मचल मचल गई..
इस पता नहीं का भंवर हर रास्ते पर होता है .... न पानी,न सूखा - फिर भी भंवर
जीवन के यथार्थ को कहती रचना ... साथ साथ रह कर भी अजनबीयत आ जाती है ।
समय के कुछ बाते न ही बदलें ..... सार्थक विचार लिए पंक्तियाँ
सार्थक रचना.. सुन्दर प्रस्तुति..
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