इश्क और इंतज़ार
इंतज़ार और इश्क
कौन जाने किसकी इंतेहा हुयी
बस मेरी मोहब्बत कमली हो गयी
और मेरे इंतज़ार के पाँव की फटी बिवाइयों में
अब सिर्फ तेरा नाम ही दिखा करता है
खुदा का करम इससे ज्यादा और क्या होगा
देखूँ जब भी अपना चेहरा तेरा दिखा करता है
सारा शहर पत्थर हो गया
हर नदी नाला सूख गया
हर शाख जो हरी भरी थी
पाला पड़ी फसल सी
ज़मींदोज़ हो गयी
दिल की जमीन ऐसी बंजर हुयी
बादल कितना ही बरसें
हरी होती ही नहीं
शिराओं में जो बहती थी लहू बनकर
मोहब्बत वहीँ थक्कों सी जम गयी
देख तो इंतेहा मोहब्बत की
अश्क जो बहते थे आँखों से
वहाँ अब तेरे नाम की इबादतगाह बन गयी
चप्पे चप्पे पर तेरा नाम लिखा है
आँख से झरना नहीं तेरा नाम झरा है
क्या तू भी कभी ताप से नहीं शीत से जला है ……मेरी तरह महबूब मेरे!!!
5 टिप्पणियां:
प्रेम और प्रतीक्षा, एक दूसरे के प्रेरक व पूरक।
kya baat......atiw sundar
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (23-12-13) को "प्राकृतिक उद्देश्य...खामोश गुजारिश" (चर्चा मंच : अंक - 1470) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
प्यार का दूसरा नाम ही प्रतीक्षा है।
इश्क़ और इंतज़ार … और उसकी इन्तेहा .... ~ सुन्दर अभिव्यक्ति !
~
सादर
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