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रविवार, 2 मार्च 2014

ये संयोग तो नहीं हो सकता ना

दीगर था 
वक्त का रुकना 
चलते वक्त के साथ तो 
सभी चला करते हैं 
मगर 
जो रुक जाती हैं सूइयां 
और बंद हो जाती है घडी 
तब ठहर जाता है 
चलता हुआ लम्हा 
उस रुके हुए पल की 
मृत्यु शैया के पायतानों पर 
क्योंकि 
कहीं दूर टंकारता 
समय चक्र 
बेशक अपने चलने को 
सिद्ध करता रहे 
मगर 
रुकी घडी साक्षी थी 
वक्त के रुकने की , थमने की , ठहरने की 
बेशक
विराम की अवस्थाएं वाहक हैं पुनर्जन्म की 
मगर 
दीगर था
वक्त का रुकना 
उस रुकी घडी के साथ 
शून्य को भरने को 
चाहे कितने सूर्य उगा लो 
खालीपन नहीं भरा करते ठूंठ हुए वृक्षों के ............. 

(उधर एक ज़िन्दगी थम रही थी और इधर ये कविता उतर रही थी और दोनों में से किसी को नहीं पता था कि अगले पल क्या होने वाला है मगर कोई अवचेतन में बैठा यूं कविता में माध्यम से थमती ज़िन्दगी को बयां कर रहा था मगर उस वक्त ऐसा कुछ होने का अहसास भर भी न था और सच में एक घडी बंद हो गयी उसी क्षण ............. ये संयोग तो नहीं हो सकता ना ……… कल रात ऐसा ही हुआ जब ये कविता लिखी जा रही थी और उधर किसी अपने की ( पति के चाचा जी की )साँसें थम रही थीं …… अजब कैफियत है आज दिल की ये सोच सोच जब दोबारा इस कविता से गुजरी )

5 टिप्‍पणियां:

Anita ने कहा…

कुदरत कितने तरीकों से काम करती है कोई नहीं जानता...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

काल के सूखे हुये कंकाल हम सब।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

समय किसी के हाथ नहीं होता ...

प्रेम सरोवर ने कहा…

संवेदना से लवरेज प्रस्तुति।अप्रतिम । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा।

Rachana ने कहा…

samy ka sach hai aapne jo likha sach hi likha samvedna bhari kavita
rachana