जाने कौन सी खलिश बींधती है मुझे
कि इक आह सी हर साँस पर निकलती रही
और मैं अनजान हूँ ऐसा भी नहीं
फिर भी खुद से पूछने में झिझकती रही
अंजुमन यूं तो खाली ही रहा अक्सर
फिर भी उम्र फासलों से गुजरती रही
हसरतों को लुभाने की बात मत करना
कि इक बियाबानी दिल में मचलती रही
अब मुस्कुराने से भला क्या होगा
जब नज्मों में दिल की लगी सुलगती रही
अब कौन रखे हिसाब सिसकते ज़ख्मों का
जब यूँ ही इक सिलवट दिल पर पड़ती रही
कि इक आह सी हर साँस पर निकलती रही
और मैं अनजान हूँ ऐसा भी नहीं
फिर भी खुद से पूछने में झिझकती रही
अंजुमन यूं तो खाली ही रहा अक्सर
फिर भी उम्र फासलों से गुजरती रही
हसरतों को लुभाने की बात मत करना
कि इक बियाबानी दिल में मचलती रही
अब मुस्कुराने से भला क्या होगा
जब नज्मों में दिल की लगी सुलगती रही
अब कौन रखे हिसाब सिसकते ज़ख्मों का
जब यूँ ही इक सिलवट दिल पर पड़ती रही
3 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज '
तुलसी की दिव्य दृष्टि, विनम्रता और उक्ति वैचित्र्य ; चर्चा मंच 1914
पर भी है ।
बहुत खूब,बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.
अब कौन रखे हिसाब सिसकते ज़ख्मों का
जब यूँ ही इक सिलवट दिल पर पड़ती रही
अच्छी अभिव्यक्ति वंदनाजी
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