1
मैं नर ……… तुम मादा
तुम मादा
मैं नर
फिर चाहे
मानव हो या दानव
पशु हो या पक्षी
पुरुष हो या प्रकृति
हम सब पर लागू होता
शाश्वत सिद्धांत हैं
जननी के लिए
जनक का होना जरूरी है
या जनक बनने के लिए
जननी का होना लाजिमी है
बिना सिद्धांत का पालन किये
किसी प्रमेय का हल नहीं निकाला जा सकता
सो लागू है हम पर भी
2
तुम …. एक बहु उपयोगी हथियार सी
मेरी मनोकामनाओं के
बीजों को पोषित करतीं
गर अट्टहास को आतुर हो तो
समझना होगा तुम्हें
कल भी
आज भी
और भविष्य में भी
तुम्हें अट्टहास लगाने को वजह मैं ही दूंगा
मगर कितना और किस मात्रा में
और कहाँ लगाना है
ये मैं ही बताऊँगा
चिन्हित करूंगा मार्ग
दूँगा दिशानिर्देश
तब उन्मुक्त उड़ान का अट्टहास लगाने की
तुम्हारी प्रक्रिया सार्थक होगी
3
क्योंकि
तुम ……… मादा हो
नहीं है तुम्हें अधिकार
प्रमेय के नियम बदलने का
मगर मुझ पर भी लागू हो
वो नियम , जरूरी नहीं
तुम सिर्फ एक इकाई हो
एक ऐसा कोष्ठक
जिसे अपनी सुविधानुसार
कहीं भी जोड़ा जा सकता है
और जब कभी तुम्हें अहसास हो
अपने वजूद की निरर्थकता का
शोषित होने का
तब आसान होगा मेरे लिए
सारे नियमो को ताक पर रखकर
तुम्हारी मर्यादा की धज्जियाँ उड़ाने का
तुम्हें लक्ष्य पाने को आतुर
भटकती आत्मा कहने का
क्योंकि
प्रयोग की दृष्टि से तो
हम एक दूसरे के बिना अधूरे ही हैं
और तुम्हारा उत्कर्ष
मेरे निष्कर्षों का
सदा ही मोहताज रहा है
इसलिए
बौद्धिक कहो , मानसिक कहो
शारीरिक या वाचिक
शब्दों की गरिमा कहीं भंग न हो जाए
सोच , नहीं कहना चाहता तुम्हें कुछ भी
मगर तुम समझ ही गयी हो मेरा मंतव्य
4
हाँ , नर हूँ मैं
और तुम ……… मादा
इस अंतर को याद रखना तुम्हारी नियति है
वरना
कुछ शाख से टूटे हुए पत्तों को
हवाएं कहाँ ले जाती हैं
पता भी नहीं चलता
मगर वृक्ष पहले भी
था , है और रहेगा
ये आत्म प्रवंचना नहीं है
ये वो सत्य है जिसे तुम
जानती हो
मानती हो
स्वीकारती हो
मगर फिर भी देखती हो
खुद को देह से परे … एक अस्तित्व
मादा होना ही एक प्रश्नचिन्ह है
फिर देह से परे एक अस्तित्व खोजना
तो तुम्हारी वो भूल है
मानो तपते सूरज पर
कोई चाँद की रोटियां सेंक रहा हो
मगर पेट भी न भर रहा हो
5
ओ मेरे पिंजरे की मैना
मेरे हाथों की कठपुतली
तुम्हारी सारी डोरें
सारे दरवाज़े
सारे झरोखे
मेरे अहम् के गाढे किले से बंधे हैं
जहाँ मैं जानता हूँ
कब और कितनी छूट देनी है
कब डोर खींचनी है
और कब प्रयोग करके तोड़ देनी है
ख्याति के वटवृक्ष हेतु
तुम्हारी बलि अनिवार्य है
क्योंकि
तुम मेरे खेल का वो पांसा हो
जिसमे चौसर की बिसात पर
दोनों तरफ से खिलाडी मैं ही हूँ
और खुद की जीत की खातिर
पांसों को कैसे पलटना है , जानता हूँ
क्योंकि
मैं वो शकुनि हूँ
जो अपने उद्देश्यपूर्ति के लिए
चाहे कितनी ही पीढियां तबाह हो जायें
महाभारत कराये बिना कुछ नहीं देता
गर हो तुम में दम
गर हो तुम में अर्जुन और कृष्ण सा सारथि
तभी करना कोशिश
वर्ना तो कितनी ही
सभ्यताएं नेस्तनाबूद होती रहीं
मगर मेरा अस्तित्व
ना कभी ख़त्म हुआ
और ना ही ख़ारिज
6
बेशक तुम्हारा होना भी जरूरी रहा
मगर सिर्फ ढाल बनकर
तलवार बनकर नहीं
इसलिए याद रखना हमेशा
प्रमेय का सिद्धांत
मैं नर हूँ
और तुम ………. मादा
जिसमे नहीं है माद्दा
बिना मेरे साथ की बैसाखी के
हिमालय को फतह करना
वर्ना आज तुम यूँ ना शोषित होतीं
वर्ना आज तुम्हारी अस्मिता के
यूँ ना परखच्चे उड़े होते
वर्ना आज तुम्हारी ही इज्जत
हर गली , कूचों और गलियारों में
यूँ ना शोषित होती
फिर चाहे वो घर हो, समाज या साहित्य …………
3 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (09-03-2015) को "मेरी कहानी,...आँखों में पानी" { चर्चा अंक-1912 } पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (09-03-2015) को "मेरी कहानी,...आँखों में पानी" { चर्चा अंक-1912 } पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहद उम्दा और सटीक लेखन की प्रतीक है यह रचना।
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