मेरे आँगन में न उतरी धूप कभी
तब कैसे जानूं उसकी रौशनी है क्या
न बुन सकी कभी तमन्नाओं के धागे
न जोड़ सकी यादों के तार कभी
न जला सकी प्यार के दिए कभी
इस डर से की अंधेरे और न बढ़ जायें
माना नही ठहरती धूप किसी भी आँगन में
मगर मेरे आँगन में तो धूप की एक
छोटी सी किरण भी न उतर सकी
भला कैसे जानूं मैं किस तरह
खिला करती है धूप आँगन में
5 टिप्पणियां:
मेरे आँगन में न उतरी धूप कभी
तब कैसे जानूं उसकी रौशनी है क्या
न बुन सकी कभी तमन्नाओं के धागे
न जोड़ सकी यादों के तार कभी
न जला सकी प्यार के दिए कभी
इस डर से की अंधेरे और न बढ़ जायें
sunder chitr khincha hai aapne
"मेरे आँगन में न उतरी धूप कभी
तब कैसे जानूं उसकी रौशनी है क्या"
वाह, क्या बात है!
-- शास्त्री जे सी फिलिप
-- समय पर प्रोत्साहन मिले तो मिट्टी का घरोंदा भी आसमान छू सकता है. कृपया रोज कम से कम 10 हिन्दी चिट्ठों पर टिप्पणी कर उनको प्रोत्साहित करें!! (सारथी: http://www.Sarathi.info)
gehre bhav sundar rachana
जिसने तम को ही देखा हो,
वो उज्वल किरणों से डरता।
इक आफताब की आशा में,
उसको घुटकर जीना पड़ता ।
न जला सकी प्यार के दिए कभी
इस डर से की अंधेरे और न बढ़ जायें
...बहुत अच्छी पंक्तियां.
बधाई.
एक शेर याद आया-
खुद अपनेआप में ये कायनात डूब गई,
खुद अपनी महक से ये जगमगा के उभरेगी.
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