घर की देहरी
पार कर भी ले
मन की देहरी
ना लाँघ पाया कभी
तेरे मन की दहलीज
पर अपने मन की
बन्दनवार सजाई
मगर फिर भी
सूक्ष्म, अनवरत
बहते विचारों को
मथ ना पाया कभी
ना जाने कौन सा
सतत प्रवाह
रोकता रहा
बढ़ने से
कौन सा बाँध
बना था
तेरे मन की
देहरी पर खिंची
लक्ष्मण रेखा पर
जिसे आज तक
ना तू लाँघ पाया
ना मुझे ही आने
की इजाजत दी
मन की खोह
में छिपी कौन सी
प्रस्तर प्रतिमा
रोकती है तुझे
जिसके अभिशाप
से कभी मुक्त
ना हो पाया
ना वर्तमान को
अपना पाया
ना भविष्य
को सजा पाया
सिर्फ भूत के
बिखरे टुकड़ों
में खुद को
मिटाता रहा
एक छोटी- सी
रेखा ना लाँघ
पाया कभी
वरना आफताब सी
प्रेम की तपिश
पा गया होता
माहताब तेरा
बन गया होता
जीवन तेरा
सँवर गया होता
पार कर भी ले
मन की देहरी
ना लाँघ पाया कभी
तेरे मन की दहलीज
पर अपने मन की
बन्दनवार सजाई
मगर फिर भी
सूक्ष्म, अनवरत
बहते विचारों को
मथ ना पाया कभी
ना जाने कौन सा
सतत प्रवाह
रोकता रहा
बढ़ने से
कौन सा बाँध
बना था
तेरे मन की
देहरी पर खिंची
लक्ष्मण रेखा पर
जिसे आज तक
ना तू लाँघ पाया
ना मुझे ही आने
की इजाजत दी
मन की खोह
में छिपी कौन सी
प्रस्तर प्रतिमा
रोकती है तुझे
जिसके अभिशाप
से कभी मुक्त
ना हो पाया
ना वर्तमान को
अपना पाया
ना भविष्य
को सजा पाया
सिर्फ भूत के
बिखरे टुकड़ों
में खुद को
मिटाता रहा
एक छोटी- सी
रेखा ना लाँघ
पाया कभी
वरना आफताब सी
प्रेम की तपिश
पा गया होता
माहताब तेरा
बन गया होता
जीवन तेरा
सँवर गया होता
35 टिप्पणियां:
वास्तविकता तो यह है कि-
--
रचना बहुत बढ़िया है!
--
मगर तुम रचना को पुर्लिंग में ही
ज्यादातर लिखती हो!
--
महिलाओँ को तो स्त्रीलिंग में लिखना चाहिए!
@आदरणीय शास्त्री जी,
मगर आज की रचना मे तो ऐसा नही है
जो आप कह रहे हैं
ये तो स्त्री मन के उद्गार ही हैं।
आज की रचना तो मैने स्त्री की तरफ़ से ही लिखी है पुरुष को सम्बोधित करते हुये।
हो सकता है मै आपके कहने का सही अर्थ ना समझ पायी हूँ।
वाह वन्दना .......मन को छू गया .......बहुत ही भावनात्मक रचना है !!
वन्दना जी, आत्मा न तो स्त्री होती है और न ही पुरूष होती है। आपने अपने अति सुन्दर आत्मिक विचारों को बहुत ही सुन्दर शब्दों में जो ढ़ालने का प्रयत्न किया है वह सराहनीय है। इसी प्रकार आप अपने आत्मिक विचारों को शब्दों की माला पहनाती रहें।
जय श्री कृष्णा!
वन्दना जी, रचना बहुत सुन्दर है। परन्तु उर्दु शब्दों का अर्थ भी दे दिया कीजिए। आभार।
घुघूती बासूती
अति सुन्दर रचना .....
स्थूल सीमा लांघना तो आसान होता है पर मन के अंदर की सूक्ष्म सीमा लांघना कठिन ...
वंदना जी कविता में केवल इस एक परिवर्तन से वह पूरी तरह एक स्त्री के भाव लगेंगे-
...........
वरना आफताब
पा गया होता
माहताब मेरा ( तेरा की जगह)
आपकी यह कविता पढ़कर मुझे अपनी एक कविता याद आ गई-
मेरे तुम्हारे
बीच जैसे सात समुंदर पार की दूरी
और सात समुंदर पार जाना
अब भी
हमारी संस्कृति के खिलाफ है।
राजेश जी
मै सिर्फ़ आफ़ताब का अर्थ स्पष्ट कर रही हूँ ताकि सब रचना के भाव को समझ सकें।इसलिये उसमे 2 शब्द जोड दिये हैं।
आभार्।
आपकी इस कविता से एक नई बहस शुरू हो सकती है। मेरे विचार से लेखक लेखक होता है। वह स्त्रीलिंग या पुर्लिंग नहीं होता। इसलिए एक पुरुष स्त्री की तरह भी भी लिख सकता है और एक स्त्री पुरुषं की तरह। बाकी सब क्या सोचते हैं।
यही बात मै कहती हूँ कि लेखक सिर्फ़ लेखक होता है उसे सीमाओं मे नही बाँधा जा सकता।
अगर आप देखें तो पता चलेगा कि ज्यादातर पुरुषों ने ही स्त्री के संदर्भ मे ज्यादा लिखा तो क्या वो गलत था।
मौसम ए बहार में खिज़ा सा आलम हो गया
बहार ए जश्न में ग़मों सा मातम हो गया
छा गया क्यूँ सन्नाटा शहनाई की रुत में भला
भरी दोपहरी में भी क्यूँ शब् सा आलम सो गया
आईने में भी मुझे दीखता नहीं हैं क्यूँ भला
वक़्त की तपिश में चेहरा कहीं है खो गया
शजर शजर पे थी कभी तेरी मेरी कहानियां
जुबां जुबां पे चर्चा "आरज़ू ओ सलीम" हो गया
(ये रचना मैंने हाल ही में बनाई है)
vandana jee,
yaqeenan bahut achchi rachna hai
kuchh meri taraf se
मौसम ए बहार में खिज़ा सा आलम हो गया
बहार ए जश्न में ग़मों सा मातम हो गया
छा गया क्यूँ सन्नाटा शहनाई की रुत में भला
भरी दोपहरी में भी क्यूँ शब् सा आलम सो गया
आईने में भी मुझे दीखता नहीं हैं क्यूँ भला
वक़्त की तपिश में चेहरा कहीं है खो गया
शजर शजर पे थी कभी तेरी मेरी कहानियां
जुबां जुबां पे चर्चा "आरज़ू ओ सलीम" हो गया
(ये रचना मैंने हाल ही में बनाई है)
तेरे मन की दहलीज
पर अपने मन की
बन्दनवार सजाई
मगर फिर भी
सूक्ष्म, अनवरत
बहते विचारों को
मथ ना पाया कभी
बहुत सुन्दर....यह सूक्ष्म ही तो नहीं भेद पाते...और आफताब महताब बन जाता.....बहुत सुन्दर सोच....
मन के विचारों को शब्द देना आसान नही होता ... आपने बहुत सार्थक किया है लेखन को .... सुंदर रचना है ...
आज की कविता बस वह हर बात लग रही है जो मेरे मन में चल रहा है... आभार..
बहुत भीतर तक मन को छू गयी आपकी कविता.
भविष्य की चिंता में जो भविष्य की नीव यानी आज को खुशियों से दुरस्त न कर पाया तो क्या उम्मीद की जा सकती है की उसका कल कैसा होगा ?
आप की रचना 16 जुलाई के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
http://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
बहुत सुन्दर कल्पना और कृति
aapne charitarth kiya hai is baat ko ki kavi ki kalpna pratibandhon se pare hoti hai....koi bahas nahin, purnta yahi hai ki sabke paas apne bhaw hain
भई मुझे तो बहुत पसंद आई । कुछ नसीहत सी देती हुई रचना ,और रही बात स्त्री-पुरुष की तो लेखक दोनों का प्रतिनिधि है ।
behn vndnaa ji men khud ko rok naa paayaa vrnaa aaftaab paa gyaa hota khbsurt chunnindaa alfaazon ki mdmst maalaa jo bni he iske liyen aapko bdhaayi bhut khubsurt vichar or prstututikrn. akhtar khan akela kota rajsthan
behn vndnaa ji khubsurt alfaazon men lipte hen khubsurt vichaar bs ab kyaa khen aaj hm sb ho rhe hen isi kaa shikaar kyonki aane lgaa he sbhi ko is trhaaa kaa bukhaar lekin hqiqt yeh he bhnji ki aapki ekhni ke aage he hm sb ki lekhni bekaar fir milenge nmskaar . akhtar khan akela kota rajsthan
आप की रचना 16 जुलाई के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपने सुझाव देकर हमें प्रोत्साहित करें.
http://charchamanch.blogspot.com
आभार
अनामिका
achchi rachna
ek baar phir aapki qalam se umdaa rachnaa....
बहुत खूबसूरत रचना, बहुत खूब!
बहुत खूब.....
सुन्दर भाव !!
बहुत सुन्दर सोच,बहुत खूबसूरत रचना...
क्या खूब लिखा है....
बहुत सुंदर
कुछ खोने का दर्द सा है ....मन की भावनाओं को कशमकश .....!!
speachless !!!
शास्त्री जी को आपने क्यूँ परेशानी में डाला हुआ है,वंदना जी.अब पुर्लिंग से स्त्रीलिंग कर ही दीजियेगा न.
बात तो केवल 'आफताब पा गया होता' या 'पा गई होती' तक ही तो है.
आपको क्या फर्क पड़ता है.
प्रस्तुति तो सुन्दर है और सुन्दर ही रहेगी.
दोनों अवस्थाओं में मैं तो कहूँगा आभार.. आभार... बहुत बहुत आभार आपका.
प्रेम की तपिश
पा गया होता
माहताब तेरा
बन गया होता
जीवन तेरा
सँवर गया होता
बेहतरीन पंक्तियाँ हैं।
सादर
घर की देहरी
पार कर भी ले
मन की देहरी
ना लांघ पाया कभी..
सुंदर भाव और अभिव्यक्ति भी.
बहुत बढिया
bahut gahan abhivyakti ...Vandana ji ...
abhar.
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