क्यूँ बंदिशों में बांधते हो
क्यूँ बन्धनों में जकड़ते हो
भरने दो इन्हें भी उड़ान
नापने दो इन्हें भी दूरियां
छूने दो इन्हें भी आसमान
कर सकते हो तो इतना करो
क्यूँ बन्धनों में जकड़ते हो
भरने दो इन्हें भी उड़ान
नापने दो इन्हें भी दूरियां
छूने दो इन्हें भी आसमान
कर सकते हो तो इतना करो
हौसले इनके बढ़ाते चलो
मार्ग प्रशस्त करते चलो
क्यूँ लिंगभेद के उहापोह में
दिग्भ्रमित करते हो
रचना तो सबकी होती है
जनक चाहे कोई भी हो
क्यूँ स्त्री पुरुष के भेद को
ना पाट पाते हो
क्यूँ सृजनात्मकता पर
अंकुश लगाते हो
काव्य ---स्त्री या पुरुष
की थाती नहीं
सिर्फ कोमल भावों का
ही तो सृजन होता है
फिर पुरुष हो या स्त्री
भावों पर तो किसी का
जोर नहीं
तब तुम क्यूँ
बाँध बनाते हो
उड़ने दो
उन्मुक्त हवाओं को
बहने दो समय की
धारा के साथ
एक दिन ये भी
नया आकाश
बना देंगी
इन्हें भी रूढ़ियों
को बदलने दो
काव्य के नए
मार्ग प्रशस्त करते चलो
क्यूँ लिंगभेद के उहापोह में
दिग्भ्रमित करते हो
रचना तो सबकी होती है
जनक चाहे कोई भी हो
क्यूँ स्त्री पुरुष के भेद को
ना पाट पाते हो
क्यूँ सृजनात्मकता पर
अंकुश लगाते हो
काव्य ---स्त्री या पुरुष
की थाती नहीं
सिर्फ कोमल भावों का
ही तो सृजन होता है
फिर पुरुष हो या स्त्री
भावों पर तो किसी का
जोर नहीं
तब तुम क्यूँ
बाँध बनाते हो
उड़ने दो
उन्मुक्त हवाओं को
बहने दो समय की
धारा के साथ
एक दिन ये भी
नया आकाश
बना देंगी
इन्हें भी रूढ़ियों
को बदलने दो
काव्य के नए
मानक गढ़ने दो
दोस्तों
ये रचना कल की पोस्ट की ही उपज है क्यूँकि कुछ लोग सोचते हैं कि स्त्री को स्त्री के भावों पर ही लिखना चाहिये और पुरुष को पुरुष् के भावों पर मगर मेरे ख्याल से तो भावों को बांधा नही जा सकता इसलिए फिर चाहे स्त्री हो या पुरुष वो जो भी मह्सूस करे उसे लिखने देना चाहिये …………हो सकता है काव्य की दृष्टि से ये बात सही हो मगर मुझे इसका ज्ञान नही है और जरूरत भी नही है क्यूँकि भाव तो किसी भी बंधन को स्वीकार नही करते………बस कल यूँ ही ये भाव बन गये तो आपके समक्ष प्रस्तुत कर दिये।
25 टिप्पणियां:
एक सार्थक और सृजनात्मक विचार के लिए अर्थवान कविता। आपकी कविता से शैलेन्द्र के गीत की एक पंक्ति याद आई-तो अपने आंचल को परचम बना लेती तो अच्छा था।
वंदना जी सलाम आपको। आप अपने आंचल को परचम बना रही हैं। हम आपके साथ हैं।
अच्छे विषय पर आपने ध्यान दिलाया है एक अच्छी कविता ,बधाई
वन्दना जी, बहुत ही सुन्दर और बहुत ही प्यारा जबाब......मन प्रफुल्लित हुआ।
होंसले सभी के बढाते चलो,
मार्ग सभी का प्रशस्त करते चलो,
भावों पर किसी का जोर नहीं,
स्त्री-पुरूष का भेद मिटाते चलो,
फिर से नया गीत गाते चलो............
बहुत सही बात है ...
वाह सुन्दर रचना है
वाह वंदना जी ! आज तो दिल की बात कह दी आपने ..एक एक शब्द सच्चाई से भरा है.सच सृजन्त्मकता को लिंग भेद में क्यों बांधना..
बहुत बहुत सार्थक रचना.
सहमत हूं ,पहले से ।अच्छी अभिव्यक्ति ।
वन्दना जी . रचना मे व्यक्त भावनाएँ सार्वजनीन हैं । किसी भी प्रकार का वर्गीकरण सृजन को पक्षपात पूर्ण बनाता है ।
प्रशंसनीय कविता । बुद्धि का प्रभाव ।
पुरुष हो या स्त्री
भावों पर तो किसी का
जोर नहीं.... bilkul sahi likha
उन्मुक्त हवाओं को
बहने दो समय की
धारा के साथ
एक दिन ये भी
नया आकाश
बना देंगी
बहुत खूबसूरत और औचित्यपरक चाहत है
नया आकाश तो चाहिये ही ....
मैं अब फ्री हो गया हूँ.... थोडा सा... अब से रेगुलरली आऊंगा... थोड़ी सी माफ़ी... आज की पोस्ट बहुत सार्थक और अच्छी लगी....
काव्य ---स्त्री या पुरुष
की थाती नहीं
सिर्फ कोमल भावों का
ही तो सृजन होता है
फिर पुरुष हो या स्त्री
भावों पर तो किसी का
जोर नहीं
तब तुम क्यूँ
बाँध बनाते हो
उड़ने दो
उन्मुक्त हवाओं को
yatarth aur aadarsh ka yathochit sampreshan. ek nai parikalpna ke sath jiski aaj samaj ko mahti aawashyakka hai. Sarthak aur uddeshya parak sandeshprad rachna ka bhapoor swagat aur shaktibhr samarthan.
आपकी रचना आज के चर्चा मंच पर है
http://charchamanch.blogspot.com/2010/07/217_17.html
बहुत सुन्दर और सराहनीय रचना....सन्देश देती हुई....
sundar rachna....
लोगों की ऐसी सोच से मैं भी सहमत नहीं... बढ़िया लिखा..
क्यूँ लिंगभेद के उहापोह में
दिग्भ्रमित करते हो
रचना तो सबकी होती है
जनक चाहे कोई भी हो
क्यूँ स्त्री पुरुष के भेद को
ना पाट पाते हो
क्यूँ सृजनात्मकता पर
अंकुश लगाते हो
बहुत सही कहा वंदना...एक जगह मैने भी एक बार निवेदन किया था कि कृपया, लकीर ना खींचें इनके मध्य
बेहद सार्थक रचना
बहुत ही सुन्दर मनोविश्लेषण है!
--
शुभकामनाएँ!
इस बात को समझना चाहिये कविता में ही नहीं जीवन में भी। चीजों को समग्रता में देखा जाना चाहिये ना कि टुकड़ों में।
बहुत सही बात कह रही हैं आप ! लेकिन ऐसी कोई पाबंदी तो साहित्य में है नहीं ! सुमित्रानंदन पन्त जी की कई कवितायें ऐसी लगती हैं मानो किसी स्त्री ने लिखे हो... मोहन राकेश के नाटकों में स्त्रियों के भाव भी खुल कर सामने आये हैं! फिर भी साहसी रचना
Hi..
Ling-bhed ki uha-poh main..
Duniya uljhi yaha vahan..
Blog jagat bhi es charcha se..
Bhala achhuta kahan raha..
'Kavita' ko gar mahila samjhen..
'bhav' purush-lingi rahte..
Enke yog se jo upje to..
Unko 'geet' hain sab kahte..
Rachnatmakta ek antarman ka bhav hai, jise ling-bhed ki drushti se dekhna sarvth anuchit hai..
Deepak..
आप ने जिस बात का रेफरेंस दिया हें उसे भी पढ़ा था और राजेश उत्साही जी की बात भी सही लगी थी की कवी मन तो कविता करता है उसके लिए स्त्री पुरुष का भेद नहीं होता.
और आपने इस विचार को अपनी कविता में ढाल का सगठित कर दिया. बहुत अच्छी कविता लिखी..सबके से मन की बात.
बधाई.
सचमुच आपकी हर रचना में नए मानक गढ जाते हैं।
................
नाग बाबा का कारनामा।
महिला खिलाड़ियों का ही क्यों होता है लिंग परीक्षण?
और क्या ।
aapki baaton se sahmat hoon ,aur shikha ji ki baaton se bhi ,sundar kaha .
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