चलो आज तुमसे कुछ बतिया लूं
कुछ तुम्हारा हाल जान लूं
सुना है तुम निर्लेप रहते हो
कुछ नहीं करते
सुना है जब महाप्रलय होती है
तुम गहरी नींद में सो जाते हो
और हजारों वर्ष गहरी नींद में
सोने के बाद योगमाया जगाती है
और फिर तुम्हें अपने अकेलेपन का भास होता है
और सृष्टि निर्माण का संकल्प मन में उठता है
मगर मैंने तो सुना था
तुम्हारे तो मन ही नहीं होता
फिर संकल्प कैसा और क्यों?
सारे उपद्रव तो मन ही मचाता है ना
तो फिर कैसे तुम्हें अपने अकेलेपन से
निज़ात पाने की चाह होती है
जबकि तुम्हारे तो मन ही नहीं होता
अच्छा बताओ ज़रा
जब तुम्हारी
एक से अनेक होने की
इच्छा होती है तो
बिना मन के तो इच्छा
नहीं हो सकती ना
फिर कैसे कहते हो
मन नहीं है तुम्हारे पास?
बहुत चालाक हो तुम छलिये
बहुत अच्छे से छलना जानते हो
और हमें मूर्ख बनाते हो
छलिये ........आज जानी हूँ तुम्हें
पहचाना है तस्वीर का दूसरा रुख
सच में दूसरा पक्ष हमेशा काला ही होता है
और तुम.........तुम तो दोनों तरफ से काले हो
देखो यूँ नाराज मत हो ............
कहने का अधिकार तो दोनों पक्षों को होता है
और आज मेरी बारी है ............
क्यूँ तुम जब नचाते हो हमें
तो हम कुछ नहीं कर पाते ना
नहीं कह पाते तुम्हें कुछ भी
सिवाय सिर झुकाकर तुम्हारी बात मानने के
और कोई चारा कभी छोड़ा है तुमने हमारे लिए
मगर आज तो तुम्हारी कारगुजारी
मेरी नज़रों से गुजरी है
आज जाना है मैंने तुम्हारा असली चेहरा
ये सब एक भरम फैलाया है तुमने
एक जाल बिछाया है और दाना डालते हो
देखें कौन सी मछली चुगती है
और तुम्हारे बिछाए जाल में फंसती है
और फिर तड़पती है ..........तुमसे मिलने को
तुम्हें देखने को .......तुम्हें पाने को
उसकी चाहत का अच्छा सिला देते हो
उम्र भर का रोग लगा देते हो
और दिल के रोग की तो दवा भी कोई नहीं होती
और फिर खेलते हो खेल ......लुकाछिपी का
तो बताओ तो ज़रा रंगीले ............
क्या बिना मन के ये सब संभव है ?
मन तो है तुम्हारे भी ..........बस मानते नहीं हो
वर्चस्व टूटने का खतरा नहीं उठाना चाहते ना
वैसे बताना ज़रा
कैसे रह लेते हो अकेले ?
कहीं कुछ नहीं ..........सिर्फ अपने साथ
मुश्किल होता होगा ना जीना
शायद तभी बनाते हो सृष्टि
और फिर लगा देते हो माया का चक्कर
और इंसान की विवशता से खेलते हो
हाँ सही कह रही हूँ .......खेलते ही तो हो
क्यूँकि है एक मन तुम्हारे पास भी
तभी करते हो तुम भी अपने मन की
जन्म मृत्यु के चक्कर में फँसा कर
रचते हो एक चक्रव्यूह
और मानव तुम्हारे हाथ की कठपुतली
जैसा चाहे नाचते हो .........
कभी गीता में उपदेश देते हो
मन पर लगाम लगाओ
और सब प्रभु समर्पण करते जाओ
साथ ही कहते हो
एक मेरे अंश से ही सारा संसार उपजा है
मेरा ही रूप सब में भास रहा है
तो बताना ज़रा
क्या तुम लगा पाए
अपने मन पर लगाम ?
कहो फिर क्यों रच दिया संसार ?
खुद से खेलना या कहो
अपनी परछाईं से खेलना
और खुश होना कितना जायज है
खेल के लिए दो तो होने चाहियें
मज़ा तो उसी में होता है
और तुमने बना दिए
स्त्री और पुरुष ...........है ना
दो रूप अपने ही
दोनों को साथ रहने का
गृहस्थ धर्म निभाने का
एक तरफ उपदेश देते हो
तो दूजी तरफ
मोह माया से दूर रहने का
सब कुछ त्यागने का सन्देश देते हो
ज़रा बताना तो सही
कैसे एक ही वक्त में
इन्सान दो काम करे
क्या तुम कर सकते हो
ये तुम ही तो इस रूप में होते हो ना
बताओ तो ज़रा क्या फिर कैसे
खुद से पृथक रह सकते हो
जब तुम खुद से जुदा नहीं हो
हर रूप में तुम ही भास रहे हो
सिर्फ बुद्धि विवेक की लाठी
हाथ में पकड़ाकर
नर नारी बनाकर
कौन सा विशेष कार्य किया
सब तुम्हारा ही तो किया धरा है
राधा मीरा शबरी के प्रेम का पाठ पढ़ाते हो
कभी भक्तों की दीन हीन दशा दर्शाते हो
क्यों श्याम ये भ्रम फैलाते हो
जबकि हर रूप में खुद ही भासते हो
या फिर जीने दो इंसानों को भी इन्सान बनकर
खुद की तरह .........जैसे तुम जी रहे हो
अकेले अपने मन के मुताबिक
करते हो ना मन की इच्छा पूर्ण
सिर्फ अपने मन की ...........
तभी तो इन रूपों में आते हो
प्रेम का ओढना ओढ़
सबको नाच नाचते हो
फिर अदृश्य हो जाते हो
क्या है ये सब ?
खुद में खुद का ही विलास
या करते हो तुम मानव बनाकार
उनका उपहास
अरे मान भी लो अब
तुम बेशक ईश्वर हो
मगर तुम भी मन के हाथों मजबूर हो
जब तुम मन के हाथों मजबूर हो
नयी सृष्टि रचाते हो
तो फिर मानव को क्यूँ उपदेशों से भरमाते हो
क्यों नहीं जीने देते
क्यों उसे दो नाव की सवारी करवाते हो
जानती हूँ
तुम ही उसमे होते हो.....मैंने ही कहा है अभी
क्योंकि तुमने ही तो कहा है गीता में
धर्म ग्रंथों में ...........हर रूप तुम्हारा है
कण कण में वास तुम्हारा है
वो ही मैं कह रही हूँ ............
फिर बताओ तो सही
कौन किससे जुदा है
और कौन किसके मन की कर रहा है
तुम और तुम्हारा मन ..........हा हा हा कान्हा
मान लो आज .............है तुम्हें भी मन
और किसके कहने पर
सिर्फ तुम्हारे मन के कहने पर
तुमने अपने संकल्प को रूप दिया
तो बताओ तो ज़रा .............
तुम भी तो मन के हाथों मजबूर होते हो
नहीं कान्हा .........तुम्हारी भी
कथनी और करनी में बहुत फर्क है
ये तो मानव बुद्धि है
जो तुम्हारे ही वश में है
जैसे चाहे यन्त्रारूढ चलाते हो
और व्यर्थ के जाल में सबको फंसाते हो
जबकि सत्य यही है
तुम भी अकेले हो .......नितांत अकेले
और अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए
अपने मन को बहलाने के लिए
तुम दुनिया बनाते हो ............और उसमे खुद ही भासते हो
खुद को भी उपदेश देते हो
खुद से ही खुद को पुजवाते हो
पर खुद को ही ना जान पाते हो
धर्म ग्रंथों में क्या लिखा है किसने लिखा
उसका किसने क्या अर्थ निकाला
सब जाना ..........और तुमने क्या कहा वो भी
तुमने ही तो कहा है .............
श्री मद भागवद मेरा वांगमय स्वरुप है
तो कहो अब .........क्या तुम्हारी वाणी झूठी है
अंततः तो यही निष्कर्ष निकला ना
बिना मन के इच्छा का जन्म नहीं होता
और बिना इच्छा के सृष्टि का निर्माण नहीं होता
फिर कहो प्यारे ...........और मान लो
मन की कालरात्रि के चक्रव्यूह में तुम भी फंसते हो
तुम कर्तुम अकर्तुम अन्यथा कर्तुम
ये सन्देश गलत ही देते हो
चाहतें तो तुम्हारे मन में भी भांवरे डालती हैं .......
बस इतना नहीं समझ पाते हो
बस इतना नहीं समझ पाते हो
तुम इतना नहीं समझ पाते हो .............
अगर हो कोई जवाब तो देना जरूर
इंतज़ार करूंगी मोहन उर्फ़ ब्रह्म उर्फ़ निराकार ज्योतिर्पुंज ............
36 टिप्पणियां:
नि:शब्द हूँ ...उत्कृष्ट प्रस्तुति ..आभार
क्या कहें कान्हा जी को आपने उन्हें उलझन में डाल दिया है
पर वास्तविकता यह है की कान्हा तो भक्त के मन से चलते हैं..
जब भक्त चाहता है असंख्य रूपों में विस्तृत हो जाते हैं नहीं तो निराकार रूप में उसके ह्रदय में वास करते हैं ..
:)
kalamdaan.blogspot.in
रितु जी मुश्किल तो यही है …………उसने भक्त के नाम का सहारा लिया हुआ है मगर कोई उससे पूछे जब ये दुनिया तूने बनायी हर कण कण मे तेरा ही वास है तेरी इच्छा के बिना पत्ता भी नही हिलता तो फिर कहाँ रह गया भक्त का मन? मन तो उसी का हुआ ना…………जैसा चाहा जिसे चाहा वैसा ही उसे घुमाया और खुद को निराकार निर्लेप बताया ………बिना मन का बताया जबकि कहीं ना कहीं मन तो उसमे भी है …………तभी सृष्टि के निर्माण की इच्छा उसे उत्पन्न होती है …………मन के बिना तो कोई संकल्प उठ ही नही सकता …………मुझे तो ऐसा ही लगा तो उनसे प्रश्न कर दिया …………देखें कौन हमे संतुष्ट कर पाता है …………उसका जवाब किस माध्यम से आता है …………अब उसका इंतज़ार है:)))
छलिया हैं वो ..सृष्टि का सृजन करके चुपचाप बैठ गए ..सृष्टि के भी तो कण कण में वो हैं..! कदापि पत्ते की ही इच्छा होती होगी की आती हुई बयार से वो हिले तो उसमे बैठी उसकी आत्मा उसे हिलने को प्रेरित करती है..:)
मैं तो यही मानती हूँ की प्रभु भक्त के वशीभूत हैं..
जैसा भक्त चाहता है ..वही वो करते हैं ..करवाते हैं ...
आगे भक्त की इच्छा वो सही कदम उठाये या गलत ..
हाँ गलत कदम उठाने से पहले वो उसे 'खबरदार' ज़रूर करते हैं ..
वंदना जी आपके भाव बहुत ही उच्च हैं व अति सुन्दर हैं ..प्रभु को किसी भी रूप में या किसी भी कारण से याद किया जाए उसमे भी तो भक्त के प्रेम ही छलकता है ..:)
:):)...अच्छी खबर ली है कान्हा की .
फिर वही बात ...
मन ना होता तो बांसुरी क्यूँ बजाता
मन ना होता तो कंस का नाश कैसे करता
मन ना होता तो एकांत की पीड़ा में सबको अश्रुसिक्त पाकर मैं ऊधो को गोकुळ क्यूँ भेजता
मन ना होता तो द्रौपदी की लाज कैसे बचाता
मन ना होता तो संधि प्रस्ताव का मौका क्यूँ देता
मन ना होता तो अर्जुन के लिए ग्रहण क्यूँ लगाता
मन ना होता तो तुम्हारे प्रश्नों का जवाब क्यूँ देता
मन है तो छल है
तुम छल करते हो
क्योंकि मैं करने देता हूँ
और करने देता हूँ
क्योंकि अपने छल का तर्क हासिल करता हूँ .....
................
शब्दों का यह चक्रव्यूह जो तुमने बनाया है
वह मेरे द्वारा हासिल स्नेह ही है
मन ना होता तो जरा सोचो
क्या यह सब संभव था !
सशक्त और प्रभावशाली रचना.....
रितु जी मानते तो हम सभी हैं और पूर्ण विश्वास भी है मगर फिर भी इस प्रश्न का उठना अचानक ………कोई तो कारण जरूर है बिना कारण इस रचना का जन्म नही होता ……शायद कुछ संकेत देना चाहता हो और मै समझ ना पा रही होऊँ …………एक जिज्ञासा उसने ही उत्पन्न की है क्योंकि अब तक जो मैने सुना है उसमे यही कहा गया है वो निराकार ब्रह्म जब सृष्टि का प्रलय करते हैं तो उसके बाद स्वंय को योगमाया को सौंप कर गहरी निद्रा मे सो जाते हैं और हजारों वर्ष बीतने पर जब योगमाया उन्हे जगाती हैं तब उनके मन मे इच्छा जागृत होती है सृष्टि के सृजन की …………बस यहीं आकर मेरा चिन्तन रुका …………क्योंकि सदा ये ही सुना और पढा कि भगवान निराकार हैं और भक्त की मर्ज़ी से रूप धारण करते हैं तो फिर कैसे उनके निराकार स्वरूप मे मन का निर्माण हुआ और उसमे इच्छा उत्पन्न हुयी संसार रचाने की …………कहते है जब एक से अनेक होने का उनका मन होता है तब वो दुनिया बनाते हैं …………प्रश्न उनसे सिर्फ़ इतना सा ही है कि मन तो तुम्हारे भी होता है कान्हा फिर क्यों तुमने सबको एक भूलभुलैया मे फ़ंसाया है …………अगर इंसान के मन बनाया है तो उसमे भी संकल्प और विकल्प उठेंगे ही…………बाकी आपकी बात सही है प्रभु को जिस रूप मे चाहो प्रेम ही छलकता है मगर प्रेमी भी तो प्रश्न करता है :)))
रश्मि जी ………यही तो उससे पूछना है ……
सारा बवाल मचा रखा है इस मन ने …………
उसी मन ने जो उसके खुद के अन्दर भी है
और हमे भी दिया है फिर क्यूँ कहता है
मन मुझे दे दो और तन संसार को …………
अरे हम तो तेरे हाथ की कठपुतली हैं
चाहे मन रख चाहे तन तेरी मर्ज़ी …………
हम तो ना लेने मे ना देने मे अब …………
आज कह दिया उसको …………
बस प्रश्न का जवाब दे दे …………
अब ये प्रश्न भी उसी की माया है
और उत्तर मिलेगा तो वोभी उसी की माया होगी :PPP
अद्भुत भाव में बहते जा रही है अनुपम संवाद..
उत्कृष्ट और प्रभावशाली प्रस्तुति
बहुत सटीक प्रश्न किये हैं कृष्ण से, उनको ज़वाब तो देना ही होगा....बहुत भावपूर्ण रचना...बधाई..
सुंदर संवाद कृष्ण से ....बिना मन के कुछ संभव नहीं ...मन दिया है ...मनन करने के लिए ...मन है उलझाने के लिए ...मन है सुलझाने के लिए ...तभी इतनी सुंदर रचना बनी कृष्ण से संवाद करते करते ...
sundar kavita... prabhavshali...
कान्हा से बड़ा बेबाक संवाद..उत्तर अवश्य प्राप्त होंगे..
bahut achcha prashan uthaya aapne kanha ke samne vandana jee.....
बहुत ही भावुक प्रश्न किये है माधव से , अच्छी सोच उभरती रचना
देखना ,कान्हा से जीत नहीं पाएंगी...
अदभुद रचना..
सस्नेह.
वाह! शानदार प्रस्तुति
Gyan Darpan
..
समझ तो पाते हो , जताना नहीं चाह्ते !
खूब लपेटा है आज इस छलिये को ...
वैसे इसके अँगुलियों पर नाचे ही क्यों !!!!
---बहुत सुन्दर ...
---हां, कथ्य व विषय का पिष्ट-पेषण है.... कविता लम्बी होने से यह दोष आ ही जाता है...
---सही कथन है ..सारा बबाल तो इस मन का ही है ....यही ईश्वर है, यही कान्हा, ब्रह्म, श्रिष्टि-कर्ता..आदि...
"मन ही देवता मन ईश्वर है मन से बडा न कोय...."
----सारे प्रश्न पहले से ही उत्तरित हैं......गीता में....
----वास्तव में आपके प्रश्न ही स्वयं उत्तर हैं--- ब्रह्म व ईश्वर में अन्तर है...यही तो गूढता है इस विषय में जो वास्तव में वैदिक साहित्य के गहन अध्ययन से ही दूर हो सकती है....
---सही कहा है रितु जी ने वो भक्त के वश में ही हैं जैसा भक्त..मन..चाहता है वही वो बन जाते हैं....
---सत्य ही है...वह ब्रह्म ...निराकार..निर्विकार ..मन रहित होता है वह ..जब योगमाया जगाती है( कविता में स्वयं ही उत्तर मौज़ूद है ) तब वह व्यक्त ईश्वर होजाता है..माया सहित...उसका मन होता है और अहैतुकी इच्छा.. से एकोहं द्वितीयमेच्छतं....से सन्सार की रचना होती है..वह स्वयं जीव बन कर माय में लिप्त होता है..और उसका मन भी भांवरें डालता है ..और समस्त अग्यान ...मायाभ्रम-सन्सार..धर्म..अध्यात्म..विग्यान..भौतिकता प्रारम्भ...जिसे काटने के लिये वह स्वयं इच्छा करता है, शास्त्र, अवतार आदि ...विविध रूप लेकर जीव को आगाह करता है ...कि अपने को /मुझे बन्धन से मुक्त कराओ..
----सच ही कहा है कविता में ..यह खेल ही तो है...मन का, ईश्वर का, कान्हा का..जो वह स्वयं को ही जीव व माया में व्यक्त करके खेलता रहता है....
श्याम गुप्ता जी आपने बहुत खूबसूरत विश्लेषण किया …………ये तो मै भी मानती हूँ जैसा भक्त बनाये वैसा रूप वो धारण कर लेते हैं …………मगर जब कहीं कुछ नही था सिर्फ़ और सिर्फ़ उसी का एक रूप था ज्योतिर्पुंज रूप मे या ईश्वर रूप मे मै तब की बात कर रही हूँ आपके उत्तर से काफ़ी संतुष्ट तो हूँ और ये बात मै जानती भी हूँ समझती भी हूँ मगर फिर भी मेरा प्रश्न सिर्फ़ इतना है कि मन तो उनमे भी होता है उस वक्त तो कोई भक्त नही होता जिसकी इच्छा पर उन्हे रूप धारण करना पडे ……उस वक्त तो उनकी खुद की इच्छा होती है एक से अनेक होने की और इच्छा का होना यही दर्शाता है कि कहीं ना कहीं मन तो उनमे भी है बेशक योगमाया जनित ही सही मगर योगमाया क्या है …………वो भी उन्ही का अंश , उन्ही का रूप उनसे जुदा तो नही है ना योगमाया भी ………और योगमाया जब उनसे जुदा नही है और उन्ही के अनुसार कार्य करती है तो कहीं ना कहीं मन दृश्यमान हो रहा है …………है उन्हे भी मन फिर चाहे किसी भी रूप मे हो…………प्रकट या अप्रकट …………वो ब्रह्म भी इससे परे नही है नही तो उन्हे इच्छा होनी ही नही चाहिये एक से अनेक होने की……………और यदि उनके मन है और उसकी वजह से वो इतना सब कुछ करते हैं इतनी बडी सृष्टि का निर्माण करते हैं , पालन करते है और फिर प्रलय करते हैं तो उनके द्वारा जनित जीव की तो हस्ती ही क्या है क्योंकि उसमे भी मन का निर्माण उन्ही के द्वारा निर्मित है और उन्ही के द्वारा संचालित ………बेचारा जीव 84 के फ़ेर मे भी भटकेगा जब ऐसे उपद्रवी मन को उसे वो देगा ……………जब उनका मन इतना कुछ कर सकता है तो बेचारा जीव तो पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों के साथ मन जैसे चक्रव्यूह मे फ़ंसा है उसका क्या दोष ? कितना भी बच ले कहीं ना कहीं कोई ना कोई हमला हो ही जाता है ………उस परब्रह्म तक पहुंचना इतना आसान कहाँ फिर ऐसे जीव के लिये …………बस यही एक ऐसा प्रश्न है जिसने काफ़ी सोचने को विवश किया है और इस कविता का जन्म हुआ है ………वैसे आखिरी मे आपने भी वोही बात कह ही दी जो मैने कही ………कि ये उसी मन का, ईश्वर का , कान्हा का खेल ही है…………अब चाहे मन को,ईश्वर , ब्रह्म या कान्हा :)))
वन्दना जी, मन तो है उसका पर वह मन का स्वामी है मन का गुलाम नहीं, वह द्रष्टा है, साक्षी है, मन चलता है अपनी राह तब भी वह स्वयं में तृप्त है...राम जब वन में रोते हैं तब भी वे जानते हैं कि यह लीला है, मानव मन का गुलाम हो जाता है और दुःख पाता है, कान्हा दुःख में भी मुस्काते हैं. मन एक साधन है.
बस अनीता जी यही कहना था ………मन तो है उसका भी…………बाकि जो आपने कहा उसमे तो शक ही नही है ……………अब जिसकी चीज़ होगी तो वो स्वंय तृप्त होगा ही …………मगर जीव उसकी स्थिति बहुत भिन्न है ………वो उसका अंश है और साथ मे विषय विकारों से युक्त देह मे कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों के चक्रव्यूह मे फ़ंसा मन की डोर से बंधा आखिर कब तक और कहाँ तक बचे …………साक्षी भाव, द्रष्टा बनकर देखना जीव के लिये इतनी आसानी से संभव नही हो पाता क्योंकि ये देह है तो किराये का मकान ही ना और इसमे वो रहता है तो इसी को अपना समझता है और इसको अपना समझने के कारण ही मन द्वारा संचालित होता है अपनी वास्तविक स्थिति से अन्जान दूसरी तरफ़ ईश्वर अपनी स्थिति से अंजान नही इसलिये मन के गुलाम नही………बस यही फ़र्क है दोनो की स्थितियों मे…………मगर मन तो दोनो के पास होता ही है…………आपके उत्तर ने काफ़ी हद तक निवारण किया है प्रश्न का
बहतु बढिया
चलो आज कुछ बतिया लूं
उसकी चाहत का अच्छा सिला देते हो
उम्र भर का रोग लगा देते हो
भावों के हिंडोले में बिठाकर देर तक झुलाती है यह लम्बी कविता .
itne gahre vishya pr itna sunder likha hai aapke vishleshan ka javab nahi uttan saval javab bhi unhi me hai ..........
aapko suksham darshita ko naman
rachana
उत्कृष्ट प्रस्तुति.
ये तो कमाल हो गया है.
आपने कान्हा को कठ्घरे में खड़ा कर जनता की अदालत में खड़ा कर दिया है.
सवाल पर सवाल.
कान्हा चुपचाप टुकर टुकर निहार रहा है आपको.
सोच रहा है ये मीरा है, राधा है या मैय्या यशोदा है.
नहीं नहीं ये तो साक्षात वंदना है.
अब पाला पड ही गया है तो प्यारे श्याम
कर लीजिए वंदन,वंदना जी का.
तभी छुटकारा मिलेगा.
क्यूँ मैंने ठीक कहा न वंदना जी.
क्यूंकि हमने भी सुना है भक्त बड़ा भगवान से.
आपको शत शत नमन,बार बार वंदन.
अरे नही राकेश जी ये क्या कह दिया …………मै किसी लायक नही ………
मै तो खुद उलझी हुयी हूँ
तभी तो उससे पूछ रही हूँ
ये कैसा खेल रचाया है
क्यों सबको भरमाया है
आप भी गोलमोल करके चल दिये ………कुछ तो जवाब देते ताकि हम उसे कान्हा का जवाब समझ लेते क्योंकि ज्ञानी ही इसका जवाब दे सकता है भक्त के पास तो सवाल ही नही होता और अब हम ना भक्त हैं ना ज्ञानी…………
तो आप को ही
इस उलझन को सुलझाना होगा
कान्हा को फ़ंदे से निकालना होगा
वंदना जी,फन्दा तो आपने ही उसपे डाला है.
अपने फंदे से उसे उलझन में डालकर
अब आप ही कह रहीं हैं निकालो उसे.
वाह! आप कह रहीं हैं कि आप न भक्त हैं न ज्ञानी
इतनी लंबी अभिव्यक्ति यूँ ही तो लिख नहीं सकतीं आप.
उस से जुडी,उसकी भक्त बनी,अब ज्ञानी बन इतने सारे
प्रश्न भी कर रहीं हैं.मैंने तो अपनी अल्प मति से पहले ही रास्ता सुझा दिया है
कान्हा को भी और स्वयं खुद को भी.
बस कर लो बार बार वंदन ,वंदना जी का.
अब तो आपकी कृपा पर ही सब निर्भर है.
जैसा आप चाहें वैसा ही कीजियेगा.
त्राहि माम! त्राहि माम!
आज की ताज़ा खबर .... कान्हा अदालत के कटघरे में ... और ये अदालत भी उसी का रचाया जाल है ... उत्तर दें या न दें ये भी उनकी मर्ज़ी .... :):)
सुंदर प्रस्तुति
bahut achchhi rachna !
मुश्किल तो यही है …………उसने भक्त के नाम का सहारा लिया हुआ है मगर कोई उससे पूछे जब ये दुनिया तूने बनायी हर कण कण मे तेरा ही वास है तेरी इच्छा के बिना पत्ता भी नही हिलता तो फिर कहाँ रह गया भक्त का मन? मन तो उसी का हुआ ना…………जैसा चाहा जिसे चाहा वैसा ही उसे घुमाया और खुद को निराकार निर्लेप बताया ………बिना मन का बताया जबकि कहीं ना कहीं मन तो उसमे भी है …………तभी सृष्टि के निर्माण की इच्छा उसे उत्पन्न होती है …………मन के बिना तो कोई संकल्प उठ ही नही सकता …………मुझे तो ऐसा ही लगा तो उनसे प्रश्न कर दिया …………देखें कौन हमे संतुष्ट कर पाता है …………उसका जवाब किस माध्यम से आता है …………अब उसका इंतज़ार है
मुश्किल तो यही है …………उसने भक्त के नाम का सहारा लिया हुआ है मगर कोई उससे पूछे जब ये दुनिया तूने बनायी हर कण कण मे तेरा ही वास है तेरी इच्छा के बिना पत्ता भी नही हिलता तो फिर कहाँ रह गया भक्त का मन? मन तो उसी का हुआ ना…………जैसा चाहा जिसे चाहा वैसा ही उसे घुमाया और खुद को निराकार निर्लेप बताया ………बिना मन का बताया जबकि कहीं ना कहीं मन तो उसमे भी है …………तभी सृष्टि के निर्माण की इच्छा उसे उत्पन्न होती है …………मन के बिना तो कोई संकल्प उठ ही नही सकता …………मुझे तो ऐसा ही लगा तो उनसे प्रश्न कर दिया …………देखें कौन हमे संतुष्ट कर पाता है …………उसका जवाब किस माध्यम से आता है …………अब उसका इंतज़ार है
एक टिप्पणी भेजें