पलायन
किस किस से करें
और कैसे
रिश्तों से पलायन
संभव है
समाज से पलायन
संभव है
मगर खुद से पलायन
एक प्रश्नचिन्ह है
एक ऐसा प्रश्नचिन्ह
जिसका जवाब भी
अपने अन्तस मे ही
सिमटा होता है
मगर हम उसे
खोजना नही चाहते
उन्हे अबूझा ही
रहने देना चाहते हैं
और अपनी पलायनता का
ठीकरा दूसरों पर
फ़ोडना चाहते हैं
जबकि सारे जहाँ से
पलायन संभव है
मगर खुद से नही
फिर भी उम्र की
एक सीमा तक
हम खुद से भी
नज़र बचाते फ़िरते हैं
इस आस मे
शायद ये मेरा
कोरा भ्रम है
मगर सच से कोई
कब तक नज़रे चुरायेगा
कभी तो मन का
घडा भर ही जायेगा
और खुद को धिक्कारेगा
वो वक्त आने से पहले
आखिर कोई कैसे
खुद ही अपनी चिता को आग लगाये
किस किस से करें
और कैसे
रिश्तों से पलायन
संभव है
समाज से पलायन
संभव है
मगर खुद से पलायन
एक प्रश्नचिन्ह है
एक ऐसा प्रश्नचिन्ह
जिसका जवाब भी
अपने अन्तस मे ही
सिमटा होता है
मगर हम उसे
खोजना नही चाहते
उन्हे अबूझा ही
रहने देना चाहते हैं
और अपनी पलायनता का
ठीकरा दूसरों पर
फ़ोडना चाहते हैं
जबकि सारे जहाँ से
पलायन संभव है
मगर खुद से नही
फिर भी उम्र की
एक सीमा तक
हम खुद से भी
नज़र बचाते फ़िरते हैं
इस आस मे
शायद ये मेरा
कोरा भ्रम है
मगर सच से कोई
कब तक नज़रे चुरायेगा
कभी तो मन का
घडा भर ही जायेगा
और खुद को धिक्कारेगा
वो वक्त आने से पहले
आखिर कोई कैसे
खुद ही अपनी चिता को आग लगाये
21 टिप्पणियां:
sahi kaha..abhar..
बहुत बढ़िया दर्शन वंदना जी...
पालयन कायरता का प्रतीक है...
वक्त आने से पहले कोई अपनी चिता को खुद आग कैसे लगाए..वाह...क्या बात कही आपने..
सादर.
मगर सच से कोई कब तक नज़र चुराएगा...
बहुत प्रभावशाली शब्द..
kalamdaan.blogspot.in
सच में आखिर पलायन कब तक
उम्दा कविता
पले पलायन का परशु,
पल-पल हो परचंड ।
अंकुश मस्तक से विलग,
हस्त करे शत-खंड ।।
दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक
http://dineshkidillagi.blogspot.in
आपकी कविता पढ़कर कबीर याद आ गए...जो घर जारे आपना चले हमारे साथ...खुद का सामना किये बिना खुद से मुक्ति नहीं...
हर पलायन में खुद से नज़रें चुराते हैं ... सही झूठ का बहीखाता बनाते जाते हैं
nice read...
न दैन्यं न पलायनम्
सच है इंसान सबसे भाग सकता है पर अपने आप से कैसे भागे ...
लाजवाब रचना ...
वाकई ...पलायन खुद से...
जग से चाहे भाग ले कोई, मन से भाग न पाये ।
बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी ,सच से आँखें बचायेगी ,खुद से भाग कहाँ जायेगी ?
इंसान सबको धोखा दे सकता है मगर खुद को नहीं . भ्रम कभी न कभी टूट ही जाता है .
आपकी साड़ी ही रचनायें बहुत अच्छी और सच के करीब होती हैं. ये भी बहुत अच्छी है :) :)
रचना मर्मस्पर्शी है !
खुद से कोई कब भाग सका है ? बहुत गहन अभिव्यक्ति
वह वक़्त आने से पहले ...
कब तक भागेगा आखिर !
विचारों की चिता तो अपने जीवन में हजारों बार आदमी ख़ुद जला रहा है,दुनिया से कूच कर जाने पर अल्लाह इसीलिए उसे ये अधिकार नहीं देता की अब ख़ुद वो अपनी चिता को आग लगाये.
bahut achchhi rachna ..bhavpoorn
वाह....वाह....बहुत ही सुन्दर लगी ये पोस्ट....गहन सत्य.....शानदार।
सूर पतित को बेगि उबारो
अब मेरी नाव भरी............
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