सुना है
कभी देखा नहीं
भारत तो गाँव में बसता है
मगर फिर भी तो देखो
गाँव की क्या दुर्दशा है
ना बिजली का अता पता है
ना पानी की कोई व्यवस्था है
सीवेज का भी हाल बुरा है
मूलभूत बुनियादी जरूरतों के बिना है
फिर भी खुशहाल दिखता है
हर चेहरे पर एक तबस्सुम मिलता है
अपनेपन की खुशबू बहती है
जो आँखों से झलकती है
शहरीकरण की आबोहवा ने रुख
बेशक इधर भी किया है
मगर आज भी भारत तो
मेरे गाँव में ही बसता है
जहाँ अतिथि भगवान बन जाता है
संतुष्टि का भाव हर चेहरे पर नज़र आता है
भेदभाव वैमनस्य से दूर का नाता है
अपनी समस्याओं से खुद जूझना
जिन्हें आता है
खेत खलिहान , चौपाल , पंचायत
हँसी ठिठोली , ठेठ बोली
गाँव की मासूमियत दर्शाती है
पर यहाँ मेड खुद खेत को नहीं खाती है
अपनी पहचान ना डुबोती है
तभी तो भारत की पहचान
गावों में बसती है
बेशक नए उपकरण अपनाते हैं
नयी जानकारियों का
सुन्दर उपयोग करते हैं
शहरीकरण की बयार में तब भी
बहे नहीं जाते हैं
ये मासूम गाँव की खुली
ताज़ी हवा सम बहते हैं
फिर चाहे दो वक्त की
रोटी का जुगाड़ भी मुश्किल से करते हैं
मगर गाँव की मिटटी से जुड़े रहते हैं
प्राकृतिक आपदाओं को सहते हैं
पर अपने जुझारू हौसलों से बुलंद रहते हैं
खेतों का सीना चीर
सबका पेट ये भरते हैं
मगर कर्त्तव्य से ना पीछे हटते हैं
तभी भारत की परम्पराएं
आज भी जीवित दिखती हैं
जो गाँव में ही बसती हैं
अपनी निश्छलता , निष्कपटता और मासूमियत से सजे
यूँ ही नहीं गाँव आज भी देश का ताज बने हैं .........
17 टिप्पणियां:
सार्थकता लिए सटीक अभिव्यक्ति ... आभार ।
आपने गाँव का जैसा चित्र खींचा है
शायद अब वो वैसा नहीं रहा है.
आस्था और मूल्यों में बहुत तेजी से
बदलाव आ रहा है.काश! यह बदलाव
सकारात्मक हो पाए.
उम्दा खुबसूरत
(अरुन =arunsblog.in)
सच्ची बात कहती रचना
सादर
गाँव की तो बात ही निराली है हाँ भारत तो गाँव में ही है शहरों में तो इंडिया हो गया है :-))
अब गांवों में शहरीकरण की बीमारी फैल गई है। सच में वो बात नहीं रही जो हुआ करती थी। आपको एक रचना पढवात हूं
गांव गया था गांव से भागा
गांव गया था
गांव से भागा
रामराज का हाल देखकर
पंचायत की चाल देखकर
आंगन में दीवाल देखकर
सिर पर आती डाल देखकर
नदी का पानी लाल देखकर
और आंख में बाल देखकर
गांव गया था
गांव से भागा।
गांव गया था
गांव से भागा
सरकारी स्कीम देखकर
बालू में से क्रीम देखकर
देह बनाती टीम देखकर
हवा में उड़ता भीम देखकर
सौ-सौ नीम हकीम देखकर
गिरवी राम रहीम देखकर
गांव गया था
गांव से भागा।
गांव गया था
गांव से भागा
जला हुआ खलिहान देखकर
नेता का दालान देखकर
मुस्काता शैतान देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गांव गया था
गांव से भागा।
गांव गया था
गांव से भागा
नये धनी का रंग देखकर
रंग हुआ बदरंग देखकर
बातचीत का ढंग देखकर
कुएं-कुएं में भंग देखकर
झूठी शान उमंग देखकर
पुलिस चोर के संग देखकर
गांव गया था
गांव से भागा।
गांव गया था
गांव से भागा।
बिना टिकट बारात देखकर
टाट देखकर भात देखकर
वही ढाक के पात देखकर
पोखर में नवजात देखकर
पड़ी पेट पर लात देखकर
मैं अपनी औकात देखकर
गांव गया था
गांव से भागा।
गांव गया था
गांव से भागा
नये नये हथियार देखकर
लहू-लहू त्यौहार देखकर
झूठ की जै-जैकार देखकर
सच पर पड ती मार देखकर
भगतिन का श्रृंगार देखकर
गिरी व्यास की लार देखकर
गांव गया था
गांव से भागा।
गांव गया था
गांव से भागा
मुठ्ठी में कानून देखकर
किचकिच दोनों जून देखकर
सिर पर चढ़ा जुनून देखकर
गंजे को नाखून देखकर
उजबक अफलातून देखकर
पंडित का सैलून देखकर
गांव गया था
गांव से भागा।
स्व. कैलाश गौतम
हाँ वंदना , भारत आज भी गाँव में बसता है, हमारी संस्कृति का परिपोषण तो वही हो रहा है. वहाँ के भोले भाले लोग आज भी किसी महिला को बहू और बेटी के रूप में देखते हैं. अतिथि को पानी के साथ एक गुड की डाली जरूर देते हैं. रही को जाता देख दो घड़ी सुस्ता लेने का आग्रह कर चारपाई पेड़ के नीचे डाल कर सम्मान करते हैं.
वर्तमान स्थिति का सही आकलन प्रस्तुत किया है आपने!
मन को छूती अभिव्यक्ति। धन्यवाद|
बहुत -बहुत सुन्दर .,,
सार्थक अभिव्यक्ति...
:-)
आज गाँव ही नहीं छोटे कसबे भी ऐसे ही हैं ..खूबसूरत प्रस्तुति
सटीक बात कहती सुंदर रचना
बहुत सार्थक प्रस्तुति!
ग्राम्य जीवन का सुन्दर चित्रण किया है आपने!
बहुत सार्थक प्रस्तुति!
ग्राम्य जीवन का सुन्दर चित्रण किया है आपने!
सोंधापन तो अभी भी बचा हुआ है..
No doubt the beauty and peaceful ambiance of village life is beyond words....
सर्थक प्रस्तुति।
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