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बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

न देशभक्त न देशद्रोही

चलिए देशभक्ति शब्द को फांसी दे दें
या कर दें बनवासी
और देशद्रोह शब्द को आदर सम्मान दे दें
शायद आज इन शब्दों की बस इतनी सी है पहचान

वो और वक्त था
जब देशभक्ति एक जज़्बा हुआ करता था
ये और वक्त है
जब देशद्रोह एक जज़्बा हुआ करता है 
 
फूट डालो और शासन करो 
की कभी बिसात बिछायी जाती थी 
क्या ऐसा नहीं लगता 
एक बार फिर वो ही चक्रव्यूह रचा गया 
देशद्रोह और देशभक्ति के मध्य खड़ा किया गया

क्या हुआ है
देश बदला या समय या सोच
जरा सोचिये
कुछ भी कहने या करने से पहले
उत्तर तुम स्वयं जानते हो
फिर भी
अपने ही देश को धिक्कारते हो

न ,न , नहीं कहूँगी कुछ भी तुम्हें
न देशभक्त न देशद्रोही
बस तुम खुद का खुद आकलन कर लेना
देशभक्ति और देशद्रोह शब्दों की
थोड़ी व्याख्या कर लेना
अंतर जब समझ जाओ
देश के प्रति कुछ नतमस्तक हो लेना

मेरा देश तुम्हें माफ़ कर देगा ...........जानती हूँ बहुत सहिष्णु है ये

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

कैसे करूँ नमन ?




शहीदों को नमन किया
श्रद्धांजलि अर्पित की
और हो गया कर्तव्य पूरा


ए मेरे देशवासियों
किस हाल में है मेरे घर के वासी
कभी जाकर पूछना हाल उनका


बेटे की आंखों में ठहरे इंतज़ार को
एक बार कुरेदना तो सही
सावन की बरसात तो ठहर भी जाती है
मगर इस बरसात का बाँध कहाँ बाँधोगे
कभी बिटिया के सपनो में झांकना तो सही
उसके ख्वाबों के बिखरने का दर्द
एक बार उठाना तो सही
कुचले हुए
अरमानों की क्षत-विक्षत लाश के
बोझ को कैसे संभालोगे?


कभी माँ के आँचल को हिलाना तो सही
दर्द के टुकड़ों को न समेट पाओगे
पिता के सीने में जलते
अरमानो की चिता में
तुम भी झुलस जाओगे


कभी मेरी बेवा के
चेहरे को ताकना तो सही
बर्फ से ज़र्द चेहरे को
एक बार पढ़ना तो सही
सूनी मांग में ठहरे पतझड़ को
एक बार देखना तो सही
होठों पर ठहरी ख़ामोशी को
एक बार तोड़ने की कोशिश करना तो सही
भावनाओं का सैलाब जो आएगा
सारे तटबंधों को तोड़ता
तुम्हें भी बहा ले जाएगा
तब जानोगे
एक ज़िन्दगी खोने का दर्द


चलो ये भी मत करना
बस तुम कुछ तो जिंदा खुद को कर लेना
मेरी बीवी मेरे बच्चे
मेरी माँ मेरे पिता
सबके चेहरे पर मुस्कान खिल जायेगी
जिस दिन शहादत के सही मायने तुम्हें समझ आयेंगे
और तुम
अपने घर में छुपे गद्दारों से दो - दो हाथ कर पाओगे 


पडोसी मुल्क जिंदाबाद के नारों
और आतंकवादी की मृत्यु के विरोध में
उठती आवाजों से
जिस दिन तुम्हारे कान फट जायेंगे
विद्रोह के बीज के साथ
देशभक्ति के बीज तुम्हारी नस्लों में बुब जायेंगे
मेरी शहादत आकार पा जायेगी
देश की मिटटी देश के काम आयी
सोच , मेरी रूह सही मायनों में
उस दिन सुकून पाएगी 


क्योंकि तुम
तब शायद समझ पाओगे
कर्तव्य सिर्फ़ नमन तक नही होता
सिर्फ़ नमन तक नही होता....

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

पहाड़ भर सपने ... अंजुरी भर प्यार

तुम्हारे
अंजुरी भर प्यार में
मैंने
पहाड़ भर देख डाले सपने

पहाड़
जिन्होंने नहीं सीखा हिलना
अडिग रहना है
जिनकी नियति

अंजुरी
जिसे कभी न कभी
खुलना ही था
हथेली सीधी करते हुए

फिर भी
जानते हुए इस सत्य को
तुम्हारे 

अंजुरी भर प्यार में
मैंने
पहाड़ भर देख डाले सपने

शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

घुलनशील पदार्थ




अपने आने जाने के क्रम में
कितनी ही उठापटक कर लें
मगर हश्र अंततः मिटना ही है
फिर वो कोई भी हो
चिंताएं , ज़िन्दगी या इन्सान

तिल तिल कर जलने से नहीं मिटा करतीं
जबरन चाहतों पर फूल नहीं चढवाये जा सकते
चिंताओं की अनगिनत लकीरों में
उम्र के तकाज़े फीके पड़ने लगते हैं

तमाम पोशीदा राज़ मानो
उघड़ने को आतुर हो उठते हों
मगर
नफीरियों के बजने से ही तो
नहीं होता इल्म बारात का
वक्त की नज़ाकतें ही
तजवीजें उपलब्ध कराती हैं
मुक्ति की

ये एक आत्मघाती हमला है
बचाव का कोई साधन नहीं
फिर भी
जाने क्यों ढोई जाती हैं चिता तक
जबकि जानते हैं सब
घुलनशील पदार्थ सी तो होती हैं चिंताएं

शनिवार, 23 जनवरी 2016

दस्तकें

तुम्हारे आश्वासनों की दहलीज पर
बैठी रही आस मेरी ताकते हुए
दरवाज़ा खुला रखा था मैंने

तुमने नहीं आना था
तुम नहीं आये
और अब
आस की गुलाबी दहलीज पर
सन्नाटों के शहर में
लगी आग से
कौतुहल में मत पड़ना
रिवाज़ है अपने अपने शहर का
रस्मों को जिंदा रखने का

हाँ , रस्म है ये भी
आस के बिलबिलाते पंछी को सांत्वना देने की
कर लो तुम भी दरवाज़ा बंद
कि
पहर पिछले हों या अगले
दस्तकें , बंद दरवाज़ों पर ही हुआ करती हैं

सोमवार, 18 जनवरी 2016

पहला समीक्षा संग्रह

मित्रों
१२ जनवरी २०१६ को विश्व पुस्तक मेले में लेखक मंच पर मेरे द्वारा लिखे ‪#‎पहलेसमीक्षासंग्रह‬ ' सुधा ओम ढींगरा : रचनात्मकता की दिशाएं ' का पुस्तक मेले में विमोचन हुआ जो शिवना प्रकाशन से प्रकाशित है . उस अवसर की कुछ झलकियाँ आपके समक्ष :


जो मित्र ये पुस्तक पढना चाहते हैं वो यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं :


https://paytm.com/…/sudha-om-dhingra-rachnatmkta-ki-dishaye…
http://www.flipkart.com/item/9789381520314

http://www.amazon.in/dp/9381520313




















बुधवार, 30 दिसंबर 2015

बेमुरव्वत!

आने वाला आता है जाने वाला जाता है
दस्तूर दुनिया का हर कोई निभाता है

कोई खार बन तल्ख़ ज़ख्म दे जाता है
कोई यादों में गुलाब बन खिल जाता है

बेमुरव्वत! इक फाँस सा सीने में धंसा जाता है
उम्र भर का लाइलाज दर्द जो दिए जाता है

गिले शिकवों का शमशानी शहर बना जाता है
जब भी यादों में बिन बुलाये चला आता है

यही जाते साल को नज़राना देने को जी चाहता है
फिर न किसी मोड़ पर तू ज़िन्दगी के नज़र आना

मुझे मुझसे चुरा लिया बेखुदी में डुबा दिया
अब किसी पर न ऐतबार करने को जी चाहता है


गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

बेखुदी के शहर में

इश्क का लबालब भरा प्याला था जब
उमंगों की पायल अक्सर छनछनाया करती थी
छल्का करता था गागर से इश्क का मौसम बेपरवाह सा

मगर अब बेखुदी के शहर में लगी आग में
झुलस गयी है मेरे इश्क की गुलाबी रंगत
मातमपुर्सी को नहीं है रूह के पास कोई साजो सामान

कौन सा सवाया लगाऊँ
किस पीर फ़क़ीर से मुनादी कराऊँ
कि राज-ए-उल्फ़त में कतरा - कतरा बिखरा है जूनून मेरा

ओ बेखबर शहर के खुमार
यूँ अक्सर खुद को घटते देख रही हूँ मैं ...........

बुधवार, 9 दिसंबर 2015

कत्ले आम का दिन था वो

 
 
कत्ले आम का दिन था वो
अब सन्नाटे गूंजते हैं
और खामोशियों ने ख़ुदकुशी कर ली है

तब से ठहरी हुई है सृष्टि
मेरी चाहतों की
मेरी हसरतों की
मेरी उम्मीदों की

अब
रोज बजते शब्दों के झांझ मंजीरे
नहीं पहुँचते रूह तक

तो क्या खुदा बहरा हो गया या मैं
जिंदा सांसें हैं या मैं
मौत किसकी हुई थी उस दिन
नहीं पता
मगर रिश्ता जरूर दरक गया था

और सुना है
दरके हुए आईने को घर में रखना अपशकुन होता है

रविवार, 29 नवंबर 2015

लव ब्लॉसम्स हेयर जानां ...........

 
 
प्यार महकता है
मोहब्बत की सौंधी सौंधी महक
इश्क की खुशबू
कुछ भी कहूँ
बात तो एक ही है
बस जरूरत है तो इतनी सी
वो तुम तक पहुँचे

वो ' तुम '
कोई भी हो सकते हो
न मैंने नहीं देखा तुम्हें
नहीं जानती कौन हो
कहाँ हो , कैसे हो
बस महकते हो मुझमे साँसों से
चहकते हो , बहकते हो
और मैं बेबस सी
तुम्हारी अनजानी अनदेखी मोहब्बत में गिरफ्तार
युगों से प्रतीक्षा की दहलीज पर
सजदा किये बैठी हूँ
एक कभी न बुझने वाली चिर परिचित प्यास का घूँट पीकर

जबकि जानती हूँ
तुम नहीं हो कहीं
न यहाँ न कहीं और इस पूरे ब्रह्माण्ड में
सिवाय मेरे अनचीन्हे ख्याल की पुआल पर बैठे एक जोगी की तरह

सदायें बिना पंखों की वो पंछी हैं
जिन्हें उड़ने को न आकाश चाहिए
और न ही धड़कने को दिल
पहुँच ही जाती हैं मंजिल तक

जाने क्यों फिर भी कहने को दिल करता है
मृग की नाभि में कस्तूरी सा
लव ब्लॉसम्स हेयर जानां ...........

रविवार, 22 नवंबर 2015

बस चलन है

जाने कैसी दुनिया कैसे लोग
नकाब पर नकाब पर नकाब डाल 
जी लेते हैं जो
और वो छद्मों को
उँगलियों पर गिनते गिनते बुढा जाते हैं
फिर भी न फितरत समझ पाते हैं
और एक दिन उकता कर
ख़ुदकुशी को निकल जाते हैं
फिर वो ख़ुदकुशी
समाजिक हो राजनीतिक हो या साहित्यिक 

ये लेखक की साहित्यिक मौत नहीं
राजनीतिज्ञ की राजनीतिक मौत नहीं
इंसान की समाजिक मौत नहीं
ये वैसे भी कभी बहस का मुद्दा होता ही नहीं
अति भावुकता का होना और व्यावहारिक होने में कुछ तो फर्क होता ही है

बस चलन है अपने अपने देश का
समझ सकते हो तो रहना जंगल में वर्ना ...

देश निकाले के सबके लिए अपने अपने अर्थ होते हैं


शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

क्या सच में जिए ?

जीने की चाहत में मरना जरूरी था
फिर भी ज़िन्दगी से मिलन अधूरा था

सच ही तो है
जी लिए इक ज़िन्दगी
फिर भी
इक खलिश जब उधेड़ती है मन के धागे
चिंदी चिंदी बिखर जाती है पछुआ के झोंके से

मजबूरी में जीने और इच्छानुसार जीने में कुछ तो फर्क होता है
हाँ , समझौतों के लक्ष्मण झूलों पर झूलते
जब ज़िन्दगी गुजरती है
तब प्रश्न उठना लाजिमी है

वैसे क्या ये सच नहीं है
कि
यहाँ मनचाहा जीवन कभी कोई जीया ही नहीं

सभी अपनी आधी अधूरी चाहतों की
अतृप्त प्यास से जकड़े ही कूच कर गए 
 
खाली बर्तनों की टंकारें खोखली ही हुआ करती हैं  

ऐसे में
क्या सच में जिए ?
प्रश्न मचा देता है हलचल
और हम हो जाते हैं निशब्द ...
 

सोमवार, 16 नवंबर 2015

मौन के दुर्दिन

समय के कांटे हलक में उगकर अक्सर करते रहे लहुलुहान और तकलीफ की दहलीज पर सजदा करना बन गया दिनचर्या . ऐसे में कैसे संभव था शब्दों से जुगलबंदी करना . मौन के पंछियों का डेरा नियमित आवास बन गया फिर भी कुछ था जो कुरेद रहा था तरतीब से बिछे गलीचों को . गलीचों की ऊपरी सुन्दरता ही मापदंड है - ' सब कुछ ठीक है ' का . फिर कैसे संभव था अनकहे को लिपिबद्ध करना या खंगालना .

न , न यहाँ कोई नहीं जो भाषा की जुगाली करे या भावों का तर्पण . एक चुप्पी का कटघरा ही अक्सर संवाद करना चाहता है मगर मेरे पास कोई नहीं जो मेरे मौन से मुझे अवगत कराये .

चुप्पियों को घोंटकर पीने का वक्त है ये . मौन के दुर्दिन हैं ये जहाँ संवाद की हत्या हो गयी है ऐसे में जीत और हार बराबरी से विवश हैं सिर्फ शोक मनाने को ....

रविवार, 8 नवंबर 2015

वैश्या , कुल्टा और छिनाल

शौक़ीन हूँ मैं
तुम्हारे दिए संबोधनों
वैश्या , कुल्टा और छिनाल की

तुम्हारे उद्बोधनों का
जलता कोयला रखकर जीभ पर
बजाते हुए ताली
मुस्कुराती हूँ जब खिलखिलाकर
खुल जाते हैं सारे पत्ते
तुम्हारी तहजीब के
और हो जाते हो तुम
निर्वस्त्र ...

बात न जीत की है न हार की
यहाँ कोई बाजी नहीं लगी
न ही शर्त है बदी
बस
तुम्हारा तमतमाता ध्वस्त चेहरा
गवाह है
तोड़ दी हैं स्त्री ने
तुम्हारी बनायी कुंठित मीनारें


तुम्हारी छटपटाहट
बिलौटे सी जब हुंकारती है
स्त्री हो जाती है आज़ाद
और उठाकर रख देती है एक पाँव
आसमा के सीने पर
छोड़ने को छाप इस बार
बनकर बामन नापने को तीनों लोक
कि
फिर न हो सके
किसी भी युग में
किसी भी काल में
स्त्री फिर से बेबस , मूक , निरीह ...

अंत में
सोचती हूँ बता ही दूं
तुम्हें एक सत्य
कि
तुम्हारे दिए उद्बोधन ही बने हैं नींव
मेरी स्वतंत्रता के ......

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

विडंबना

जिन राहों की कोई मंजिल नहीं होती
वहां पदचिन्ह खोजने से क्या फायदा
ये जानते हुए भी
आस की बुलबुल अक्सर
उन्ही डालों पर फुदकती है
ख्यालों की बंदगी करने लगती है

शायद ऐसा हो जाए
न न ऐसा ही होगा
ऐसा ही होना चाहिए
आस का कोई भी पहलू
एक बार बस करवट बदल ले
उम्मीद के चिराग देह बदलने लगते हैं

जबकि
जानते सभी हैं ये सत्य
सिर्फ ख्यालों और चाहतों की जुगलबंदियों से नहीं बना करते नए राग

अब ये मानव मन की विडंबना नहीं तो और क्या है ?

बुधवार, 28 अक्टूबर 2015

खिन्न मौन

शब्द विचार और भावों का एक खिन्न मौन
जाने किस रति का मोहताज

संवेदनहीनता की निशानी
या 
निर्लेप निरपेक्षता को प्रतिपादित करता

प्रश्न सिर उठाये बैरंग लौट आया

तो क्या ये
मौन से मौन तक की ही कोई गति है ?

शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2015

बस , कलम तू उनकी जय जय बोल

जिनके नहीं कोई दीन ईमान 
कलम तू उनकी जय जय बोल

जो तू उल्टी चाल चलेगी
तेरी न यहाँ दाल गलेगी
प्रतिरोध की बयार में प्यारी
तेरी ही गर्दन पे तलवार चलेगी
बस , कलम तू उनकी जय जय बोल

जो तू सम्मान वापस करेगी
तब भी तेरी ही अस्मत लुटेगी
प्रतिरोध की ये फांस भी
न उनके गले से नीचे उतरेगी
कलम तू उनकी जय जय बोल

इस पासे न उस पासे
तुझे चैन लेने देगी
ये धार्मिक अंधी कट्टरता
राजनीति का पहन कर चश्मा
तेरा ही विरोध करेगी
कलम तू उनकी जय जय बोल

तेरे स्वाभिमान की तो यहाँ
ऐसे ही धज्जियाँ उडेंगी
गर कर सके समझौता उनसे
तभी तू जीवित रह सकेगी
बस , कलम तू उनकी जय जय बोल 


( रामधारी सिंह दिनकर की पंक्ति साभार : कलम , आज उनकी जय बोल )

बुधवार, 21 अक्टूबर 2015

जश्न अभी बाकी है

न मेरा दर हवाएं खटखटाती
न मैं हवाओं के घर जाती
अपनी अपनी मसरूफियतें हैं
अपने अपने शिकवे शिकायतें
फिर भी अक्सर
राह चलते होती मुलाकातों में
एक अदद मुस्कराहट का पुल
संभावनाओं का साक्षी है
कि है उधर भी ऊष्मा बची हुई
कि है उधर भी अहसासों संवेदनाओं की धरती बची हुई

अब फर्क नहीं पड़ता
कि गले लगाकर ही ईद सा उत्सव मनाएं और खुद को बहलायें
हकीकत की मिटटी अभी नम है

तो फिर मुस्कुराओ न ... जश्न अभी बाकी है


मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

सिसकना नियति है


अपने तराजुओं के पलड़ों में
वक्त के बेतरतीब कैनवस पर
हम ही राम हम ही रावण बनाते हैं
जो चल दें इक कदम वो अपनी मर्ज़ी से
झट से पदच्युतता का आईना दिखा सर कलम कर दिए जाते हैं

ये जानते हुए कि
साम्प्रदायिकता का अट्टहास दमघोंटू ही होता है
नहीं रख पाते हम 
अभिव्यक्ति के खिड़की दरवाज़े खुले

आओ चलो
कि पतंग उड़ायें अपनी अपनी बिना कन्नों वाली
कि नए ज़माने के नए चलन अनुसार
जरूरी है प्रतिरोध के दांत दिखाना भर
क्योंकि
आगे के गणित की परिकल्पनाओं पर नहीं है हक़ किसी का

सिसकना नियति है
फिर लोकतंत्र हो या अभिव्यक्ति .........

बुधवार, 7 अक्टूबर 2015

चेतनामयी






हैलो
मुझे वंदना गुप्ता जी से बात करनी है
जी मैं बोल रही हूँ
मैं चित्रा मुद्गल बोल रही हूँ

उफ़ ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे , दिल की धडकनें तेज हो उठीं और मैं उछल पड़ी . कानों पर विश्वास नहीं हुआ कि जो सुना सही सुना . उसके बाद बात का सिलसिला शुरू हुआ जब दी ने कहा , ' वंदना , संवेदन पत्रिका में तुम्हारी कवितायें पढ़ीं जिन्होंने मुझे तुमसे बात करने को मजबूर किया , मैं रुक नहीं सकी तुमसे बात करने से .

बेशक इससे पहले हम दो - तीन बार मिल चुके थे लेकिन वो मेरे बारे में ज्यादा कुछ जानती नहीं थीं और उसके बाद उन्होंने मुझे अपने कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया .

चित्रा मुद्गल दी द्वारा संचालित ' चेतनामयी संस्था ' में डॉ कुंवर बेचैन जी की अध्यक्षता में डॉ रमा सिंह जी के साथ मुझे भी  कल ६ अक्टूबर को कविता पाठ करने का अवसर प्राप्त हुआ जो मेरे लिए किसी दिवास्वप्न से कम नहीं था . अपने समय की देश विदेश में जानी मानी सभी बड़ी हस्तियाँ और उन सबके बीच मुझ सी नाचीज़ को यदि ऐसा मौका मिले तो उसे स्वप्न सच होना न कहूं तो क्या कहूं समझ नहीं आ रहा . औपचारिक रूप से शाल , फूलों का गुलदस्ता और मानदेय देते हुए अतिथियों का संस्था की कर्मठ अनीता जी ने स्वागत किया और फिर ईश वंदना के साथ कार्यक्रम का आरम्भ किया गया .

चेतनामयी संस्था में सिर्फ स्त्रियों का ही साम्राज्य है जहाँ वो साहित्य को पूर्ण रूप से समर्पित हैं जिसका अंदाज़ा आपको तब होता है जब आप कविता सुनाते हैं तो हर शख्स एक एक पंक्ति को इतने ध्यान से सुनता है कि कविता के बाद उस पर अच्छा खासा विमर्श भी होता है और मेरे साथ तो ये एक ऐसा मौका था कि जो हो रहा था वो मैंने सोचा भी नहीं था .

मेरी पहली दो कवितायें ' मेरे फुंफकारने भर से ' और ' क्योंकि अपराधी हो तुम ' को तो आग्रह करके दो दो बार सुना और मैं आश्चर्यचकित इतने सुधि श्रोता पाकर . यूँ मैंने चार कवितायें सुनाईं जिसमे से एक प्रेम कविता और एक पौराणिक चरित्र गांधारी पर थी तो उस पर भी काफी विमर्श चलता रहा .

किसी भी रचनाकार के लिए वो पल अविस्मर्णीय बन जाते हैं जब अपने समय की बड़ी हस्तियों से भी दाद पाए और इतने बढ़िया श्रोता मिलें और ये मेरा एक ऐसा ही दिन था जिसने मुझे अभिभूत किया .

सबसे बड़ी बात डॉ रमा सिंह जी और डॉ कुंवर बेचैन जी के साथ ने केवल बैठना बल्कि उन्हें सुनना एक उपलब्धि से कम नहीं . रमा सिंह जी के गीतों और गजलों में जहाँ जीवन दर्शन समाया था वहीँ डॉ कुंवर बेचैन जी ने शहर और गाँव के अंतर के साथ मध्यमवर्गीय जीवन का एक ऐसा खाका पेश किया जो शायद हर घर की कहानी है लेकिन संवेदना का उच्च स्तर ही मनोभावों को छूता है . उसके बाद संक्रमण और फिर जब अंत में अपनी प्रसिद्ध कविता  ' बदरी ' सुनाई तो ज्यादातर सभी की आँख भर आई .

डॉ साहब का ये कहना कि 'मैंने अपने इतने साल के समय में ऐसा माहौल नहीं देखा' ही सिद्ध करता है कि कैसे चित्रा दी साहित्य की सच्ची सेवा कर रही हैं . चित्रा दी दिल से आभारी हूँ जो आपने मुझे इस काबिल समझा और इतने बढ़िया श्रोता उपलब्ध करवाए .
अंत में यही कह सकती हूँ सुधि श्रोता किसी भी कार्यक्रम की जान होते हैं .




अंत में सबसे बड़ी बात : ' संवेदन ' पत्रिका निकालने वाले राहुल देव की हार्दिक आभारी हूँ जो मुझे पत्रिका का हिस्सा बनाया . जिसे पढ़ स्वयं चित्रा दी का मुझे फ़ोन आया और मुझे इस कार्यक्रम का हिस्सा बनने का उन्होंने ये सु-अवसर दिया .

कहने को इतना है कि कहती जाऊं और बात ख़त्म न हो और शायद तब भी पूरा न कह पाऊँ लेकिन उस वजह से पोस्ट बड़ी हो जाएगी इसलिए जो ट्रेलर दिखाया है उसी से सब्र करना पड़ेगा :)

फिलहाल जो चित्र उपलब्ध हैं उन्हीं से काम चलाइये ये भी डॉ कुंवर बेचैन जी के सौजन्य से प्राप्त हुए हैं .

रविवार, 4 अक्टूबर 2015

एक नयी शुरुआत के लिए

आशंका के समंदर में
हिलोर मारती लहरों से
नहीं पूछा जाता यूं उठने गिरने का सबब
जब तक कि अंदेशा न हो कोई
मगर बिना सबब नहीं होता कुछ भी
तूफ़ान से पहले के संकेत साक्षी हैं
तूफ़ान से पहले और बाद की शांति के

एक एक कर क्रमानुसार
बदल जाती हैं तस्वीरें
तुम चाहो या न चाहो
काल से बड़ा कोई काल नहीं
जो अंदेशों को सही सिद्ध कर देता है
और देता है सन्देश
जहाज के डूबने के अंदेशे पर
चूहे ही छोड़ते हैं सबसे पहले जैसे
वैसे ही ज़िन्दगी के मझधार में भी
यूं ही क्रिया प्रतिक्रियाओं के भंवर में
छोड़ जाते हैं वक्त के गाल पर अनचाहे निशान
कुछ चेहरे ,कुछ लोग , कुछ अजनबी

बस यही तो है ज़िन्दगी का फलसफा
मिलना बिछड़ना , टूटना जुड़ना
निर्माण विध्वंस
फिर पुनर्निर्माण हेतु उपक्रम
तो पकड़ो फिर एक नया सिरा
एक नयी शुरुआत के लिए
क्योंकि ..........चलना जरूरी है