न जाने
इतनी क़ुरबानी
देनी पड़ी होगी
न जाने कितने
अपनों का
साथ छूटा होगा
न जाने कितनी
हसरतों को
दफ़न किया होगा
न जाने कितने
मौसमों पर बसंत
आया ही न होगा
न जाने कितनी
अरमानों की
लाशों पर
पैर रख तू
आगे बढ़ा होगा
सिर्फ एक चाहत को
बुलंदी पर पहुँचाने के लिए
आसमान को छूने की
ऊंचाई पर पहुँचने कीचाहत की कुछ तो
कीमत चुकानी पड़ती है
क्या हुआ गर
"मैं" तुम से दूर हूँ तो
क्या हुआ गर आज
मेरी चाहत की कब्र
पर पैर रख तुमने
अपनी चाहतों को
बुलंद किया
मैं तो राह का
वो पत्थर थी
जो तुम्हारी
ऊंचाइयों में
मील का पत्थर बनी
शुक्र है पत्थर ही सही
तुम्हारी कामयाबी में
कुछ तो बनी
हर चीज़ की कीमत होती है
और ऊंचाई पर पहुँचने की
कीमत सभी को
चुकानी पड़ती है
और तुम्हारी
ऊंचाई की
कीमत "मैं " हूँ
37 टिप्पणियां:
tumharee unchaai... kimat main , bahut sare rahasya hain inme
tumharee unchaai... kimat main , bahut sare rahasya hain inme
तुम्हारी ऊंचाई की कीमत मैं हूं ...बहुत कुछ कहती हुई यह पंक्तियां ...बेहतरीन प्रस्तुति ।
तुम्हारी ऊंचाई की
कीमत "मैं " हूँ..
अब भी कीमत समझ लें तो कोई बात हो ...अच्छी प्रस्तुति
हर चीज़ की कीमत होती है
और ऊंचाई पर पहुँचने की कीमत सभी को चुकानी पड़ती है
और तुम्हारी ऊंचाई की कीमत "मैं" हूँ!
आखिरी पंक्ति तुम्हारी ऊंचाई की कीमत "मैं' हूँ अपने आप सब कुछ कह गयी...
सुन्दर...भावपूर्ण रचना
सच कह रही हैं वंदना जी हर चीज़ की कीमत होती है... अटल बिहारी वाजपेयी जी की कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं...
"
सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बँटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।
जो जितना ऊँचा,
उतना एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ढोता है,
चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
मन ही मन रोता है। "
ऊंचाई पर पहुँचने की
कीमत सभी को
चुकानी पड़ती है
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जी हाँ!
त्याग करके ही
कुछ मिलता है!
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बहुत सटीक रचना!
और ऊंचाई पर पहुँचने की
कीमत सभी को
चुकानी पड़ती है
मन को छू गयी
बहुत ही मर्म स्पर्शी कविता.
सादर
सचमुच इस बाज़ार में बिना क़ीमत चुकाए कुछ भी नहीं मिलता !
जीवन की यही सच्चाई है !
यथार्थपूर्ण, संवेदनशील कविता !
सत्य का सुन्दर प्रस्तुतीकरण।
वाह जी बहुत ही सुंदर रचना, धन्यवाद
End of the poem is fantastic!
Badhaii Vandana ji .
मैं तो राह का वो पत्थर थी जो तुम्हारी ऊंचाइयों में मील का पत्थर बनी शुक्र है पत्थर ही सहीतुम्हारी कामयाबी में कुछ तो बनी
kaise har din kuchh aisa kah pati hain, jo ek dum se dil ko chhuta hai..:)
'मैं तो राह का
वो पत्थर थी
जो तुम्हारी
ऊंचाइयों में
मील का पत्थर बनी'
गहन मार्मिक भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति
कविता तो पूरी पढ़ गया पर न सन्दर्भ तलाश पाया रहस्य समझ पाया.
Keemat sabko chukani padtee hai phir keemat bekar kee cheej ho gayee na?!!!!!!!!!!!!!!!!!
सत्य वचन.
उत्कृष्ट प्रस्तुति...
यह कविता तरल संवेदनाओं से रची गई है, जो दिल से पढ़ने की अपेक्षा रखती है।
महत्वाकांक्षा ! ऊपर पहुँचने हम अकेले बढ़ते हैं पर जब ऊंचाइयों से गिरते हैं तो हमें वही मिलते हैं रास्ते में , जिन्हें पीछे छोड़ हम ऊपर गए थे और तभी कीमत समझ में आती है ।
बहुत ही अच्छी एवं भावपूर्ण रचना !
बहुत सुंदर जज़्बात...
बधाई ।
"ऑल इंडिया ब्लॉगर्स एसोसिएसन" की अध्यक्षा बनाए जाने पर आपको ढेरों बधाईयाँ और शुभकामनाएँ.......
तुम्हारी ऊंचाई की
कीमत "मैं " हूँ.....
....बहुत ही गहरे भाव...बेहतरीन प्रस्तुति ।
बहुत ही सुंदर रचना, धन्यवाद|
बहुत ही मर्म स्पर्शी कविता.
ज मेरी चाहत की कब्र पर पैर रख तुमने अपनी चाहतों को बुलंद किया मैं तो राह का वो पत्थर थी जो तुम्हारी ऊंचाइयों में
मील का पत्थर बनी.....
बहुत अच्छी कविता।
आपको"ऑल इंडिया ब्लॉगर्स एसोसिएसन" की अध्यक्ष बनाए जाने पर हार्दिक शुभकामनाएं .
बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता
AIBA की अध्यक्षा को अभिवादन तथा बधाई ।
सुंदर रचना ,अंत के क्या कहने
वंदना जी,
नमस्ते!
मर्म स्पर्शी!
आशीष
--
लम्हा!!!
हर चीज की कीमत होती है. और ऊंचाई पर पहुँचने की कीमत सभी को चुकानी होती है......वास्तव में महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए आज का इंसान किसी हद तक जा सकता है. किसी के कंधे का इस्तेमाल कर सकता है. वर्तमान समाज के असली चेहरे को रेखांकित करती कविता के लिए बधाई.
तुम्हारी ऊंचाई की कीमत मैं हूं
आखिरी पंक्ति में पूरी कविता का सार समाहित है
शानदार रचना
समय मिले तो हमारा भी मार्गदर्शन करें
http://avaneesh99.blogspot.com
बहुत खूब ! शुभकामनायें वंदना जी !
Aisi Unchayi mujhe pasand nahin jahan apno se bicharne ki keemat chukani pare..
Par aap ne Unchayi ki keemat me khud ko kho dene ki sambhawnaaon par acche vichar prakat kiye hain.badhayi
Bahut sunder ..!
Badhai swikaren.
र ऊंचाई पर पहुँचने कीकीमत सभी को चुकानी पड़ती हैऔर तुम्हारी ऊंचाई की कीमत "मैं " हूँ
bahut hi sundar
'तुम्हारी ऊंचाई की कीमत "मैं" हूँ'मै की कुर्बानी
तो देनी ही पड़ती है ऊंचाई पाने के लिए.लगता है कुछ टीस सी है इस 'मैं ' को खोने की ?
बहुत अच्छी कविता।
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