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मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

जीने के नए मानक गढ़ती हूँ…………

रोज नए चेहरे
छलने आते हैं
मुझे छल छल
जाते हैं और मैं
उस छल को जानकर भी
खुद को छलवाती हूँ
और कुछ देर के लिए
हकीकत से
पलायन कर जाती हूँ
मै ऐसा क्यूँ करती हूँ
ये एक प्रश्न है जिसका
उत्तर नहीं पाती हूँ
या
शायद जानती भी हूँ
मगर अन्जान रहना
चाहती हूँ
कुछ देर भ्रम में
जीने के लिए
या
 खुद से ही
भागना चाहती हूँ
इसलिए भ्रम में
जीकर हकीकत से
टकराने की कुछ
हिम्मत जुटाती हूँ
और बार बार
छली जाकर
एक नया अंकुर
उपजाती हूँ
खुद के पलायन से
नया तोहफा पाती हूँ
जीने के नए
मानक बना पाती हूँ
वो कहते हैं ना
गिर गिर कर ही इन्सान
संभालना सीखता है
और मैं खुद को छलवाकर
जीना सीखती हूँ
जीने के नए मानक
गढ़ती हूँ

33 टिप्‍पणियां:

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

आपकी कविता आज मार्गदर्शन कर रही है..जीवन को सहजता और सुगमता से जीने की कला सिखा रही है... सुन्दर कविता प्रवाह और कथ्य दोनों में...

सदा ने कहा…

और मैं खुद को छलवाकर
जीना सीखती हूं ... बहुत खूब ।

vins ने कहा…

bohot bohot khub...!

ZEAL ने कहा…

शायद इसी तरह इंसान जीना सीखता है । धीरे धीरे सच्चाइयों से रूबरू होता है और एक नयी ऊर्जा, नए अनुभव और नए मनोबल के साथ वापस डट जाता है ।

बेनामी ने कहा…

इस छल में भी आनन्द मिल रहा है आपको!
सुन्दर अभिव्यक्ति!

Er. सत्यम शिवम ने कहा…

सच्चाई से रुबरु करवाती इंसान की मनःस्थिती को व्यक्त करती...उत्कृष्ट रचना।

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

'खुद के पलायन से

नया तोहफा पाती हूँ '

जीवन के मर्म को बयां करती हुई सुन्दर रचना

Sushil Bakliwal ने कहा…

चैन से जीने का फार्मूला भी शायद यही है...

rashmi ravija ने कहा…

गिर गिर कर ही इन्सान
संभालना सीखता है
और मैं खुद को छलवाकर
जीना सीखती हूँ
यही नियति है...और जीने के लिए ऐसे अनुभव भी जरूरी हैं.
सार्थक अभिव्यक्ति

रश्मि प्रभा... ने कहा…

chhal ko jante hue chhala jana ... yah apneaap me ajeeb si sthiti hai..

ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने कहा…

जीवन को अनुभव की आँच में तपा कर उसे तराशने का अंदाज़ अच्छा लगा !

वाणी गीत ने कहा…

हम इसी तरह जिन्दगी से सब सीखते जाते हैं ..गिरना और और फिर संभलना !

सुरेन्द्र "मुल्हिद" ने कहा…

kya baat....kya baat....kya baat....

Sunil Kumar ने कहा…

छले जाने में भी आपको एक नया अनुभव हो रहा है भविष्य में यह कम आयेगा अच्छे भाव ,बधाई

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

चलना सीखने के लिए ठोकर खाना ही होता है ...

Shekhar Kumawat ने कहा…

. बहुत खूब ।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

हर दिन कुछ न कुछ सिखा जाता है।

Amit Chandra ने कहा…

गिरने पर ही तो चोट का अहसास होता है। बेहद ही सुन्दर रचना। आभार।

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

कुछ छलावों के साथ जीना ही अपने को सुख देता है , हर हाल में जीवन में सुख कि तलाश और जीने के सबब को पा लेने का सन्देश देती कविता के लिए आभार !

एस एम् मासूम ने कहा…

सुंदर कविता
.
ज़रा सोंच के देखें क्या हम सच मैं इतने बेवकूफ हैं

एस एम् मासूम ने कहा…

sunder kavita
.
ज़रा सोंच के देखें क्या हम सच मैं इतने बेवकूफ हैं

राजेश उत्‍साही ने कहा…

इसमें भी एक आनंद है।

Pratik Maheshwari ने कहा…

यह जीवन खुद एक छलावा है और यही हमें इंसान और हैवान बनाता है..
सुन्दर अभिव्यक्ति पर अकस्मात् समाप्ति..

राज भाटिय़ा ने कहा…

वाह जी बहुत खुब, धन्यवाद

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

छले जाने के बाद ही संभलना आता है..... और नए मानक तय होते हैं.... खूब

बेनामी ने कहा…

वंदना जी,

बहुत ही खुबसूरत अहसास......ऐसा शायद हर किसी ने महसूस किया होगा ......जानते हुए भी उसे कोई छल जाता है......पर मुझे लगता ठीक उसी पल उसकी आत्मा एक सीढ़ी और निचे गिरती है.....और हमारी एक ऊपर उठती है......शुभकामनायें इस पोस्ट के लिए|

निर्मला कपिला ने कहा…

सही कहा गिर गिर कर ही आदमी सीखता है। बहुत अच्छे भाव। शुभकामनायें।

mridula pradhan ने कहा…

bahut sahaz,saral aur sunder kavita hai.

रंजना ने कहा…

वाह...क्या बात कही...

सुन्दर भाव और मोहक अभिव्यक्ति...

उपेन्द्र नाथ ने कहा…

वंदना जी , शायद यही जिंदगी की लुकाछिपी है. ..... गहरे जज्बात के साथ सुंदर प्रस्तुति.

अजय कुमार ने कहा…

और मैं खुद को छलवाकर
जीना सीखती हूं ...

सुंदर भाव

Unknown ने कहा…

bahut khub.................

vijay kumar sappatti ने कहा…

vandana, bahut dino k e baad tumne bahut acchi rachna likhi hai ...... padhne ke baad insaan ko apne hi roop ke darshan hote hai .. badhayi ..