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बुधवार, 24 दिसंबर 2008

ख़ुद को मिटाया था जब सोचा था किसी को पा लेंगे
मगर ख़ुद को मिटाकर भी उसको ना पा सकें
वो मेरा कभी हुआ ही नही मुझको भी अपना बनाया नही
इस कांच से नाज़ुक रिश्ते को उसने कभी अपनाया ही नही
फिर क्या हो उस कोशिश का जो मैं हमेशा करती रही
तुझको पाने की कोशिश में ख़ुद को भी भुलाती रही

यादें

आजकल यादों के पन्ने फिर उखड़ने लगे हैं
हर पन्ने पर एक गहरी याद कुच्छ याद दिलाती है
हम इन यादों को फिर से जीने लगे हैं
आइना बन कर हर याद सामने आ जाती है
और हम इन यादों के समुन्दर में गोते खाने लगे हैं
दिल में यादों के भंवर हैं बड़े गहरे
हम तो इनमें फिर से डूबने लगे हैं
यादों को फिर से जीना इतना आसां नही होता
न जाने कितनी मौत मरकर जिया जाता है

मंगलवार, 23 दिसंबर 2008

राहुल गाँधी के नाम

आज के अख़बार हिंदुस्तान में मैंने एक ख़बर पढ़ी की राहुल गाँधी एक दलित सुनीता के घर गए उसके बच्चों के पास पहनने को कपड़े भी नही थे और पिता कपड़े इसलिए पह्न्ताथा ताकि बच्चे भूख से न मरें और वो कुछ काम कर ला सके .........मगर मैं कहती हूँ कि वो बच्चे यदि भूख से न भी मरे तो सर्दी से मर जायेंगे ,मुसीबत तो तब भी कम नही हुयी उनके सिर से.............मेरा दिल सुबह से उसी बारे में सोचे जा रहा है ...................क्या हम उनके लिए कुछ नही कर सकते .............आज हमारा देश nuclear पॉवर बन गया है मगर हमारी जनता आज भी वहीँ उसी नरक में जी रही है ...................क्या राहुल गाँधी ने इस मुद्दे को उठाया....................क्या उनके लिए कुछ किया...........हो सकता है किया हो मगर और भी न जाने कितनी सुनितायें और उनके बच्चे इससे भी बुरी हालत में जी रहे हैं.....................उनके लिए उन्होंने क्या सोचा...............................हो सकता है कुछ सोचा हो और करना चाहते हों मगर क्या जो वो करना चाहते हैं वो उन तक पहुँच पायेगा .............इसका कोई इंतजाम किया उन्होंने.......................मेरी एक राय है ................क्यूँ नही राहुल देश की हर माता बहन से एक अपील करते कि उन गरीबों के लिए कुच्छ सोचें ......................वैसी ही अपील जैसी अभी देल्ही विधानसभा चुनावों में हुयी थी की वोट देना जरूरी है वरना पप्पू कहलाओगे ....................टीवी के मध्यम से बिल्कुल उसी प्रकार जैसे वोटिंग के लिए की उनके लिए भी करें ............क्या गरीबी की रेखा से ऊपर रहने वाले लोगों में इतनी भी दया या vivek नही होगा की वो इस अपील को समझ पाएं ...................उदाहरण के लिए ..........अगर आज इतनी बड़ी आबादी में से कम से कम २०-२५ करोड़ लोग तो ऐसे होंगे ही जो इस पर ध्यान दें .............अगर उनसे कहा जाए हर घर एक कपड़ा अपने घर से उनके लिए दो जिन्हें इतना भी नसीब नही की वो तन ढँक सकें तो क्या कोई इस पर ध्यान नही देगा.......................हर इन्सान उनके लिए कुछ न कुछ करना चाहेगा और इससे करीबन इतने ही दलितों को एक छोटी सी सहायता से तन ढंकने को कपड़ा नसीब हो जाएगा..............हर गृहिणी उनके लिए कुछ न कुछ देना चाहेगी क्यूंकि हम अपने न जाने कितने ही कपड़े मन से उतर जाते हैं तो छोड़ देते हैं तो क्या एक पहल उनके लिए नही कर पाएंगे ..................राहुल आज के युवा हैं उनसे ये उम्मीद है की वो इस दर्द को समझते हैं और इस सब के लिए कुछ ऐसा करेंगे जिससे वो सब उन्ही को मिले जिनके लिए किया गया है न की आज के भ्रष्ट नेता या अफसर उसे हड़प लें .............एक अपील ऐसी एक बार अगर वो कर दें तो सारी जनता उनका साथ देने को तैयार हो जाए ..........बस एक कोशिश , एक पहल की जरूरत है...................तभी देश की असली तरक्की है ।
जो कोई भी इस लेख को पढ़े कृपया आगे प्रेषित करे ।

क्यूँ

क्यूँ हर बार नारी को ही अग्निपरीक्षा देनी पड़ी
क्यूँ हर बार नारी के सर ही हर दोष मढा गया
क्यूँ हर बार उसके हर निर्णय का अपमान किया गया
क्यूँ हर बार पुरूष के दंभ का शिकार बनी
हर अच्छाई का श्रेय नर को ही क्यूँ
क्यूँ हर बुराई का ठीकरा हर बार
नारी के ही सर फोड़ा गया
क्या उसका कोई अस्तित्व नही
क्या वो कोई इन्सान नही
क्या फर्क है नारी और नर में
क्या नारी का यूँ तिरस्कार कर
पुरूष सफलता पायेगा
क्या इतने से ही उसका
पोरुष संबल पा जाएगा
जब शक्ति बिना शक्तिमान
कार्य नही कर पाता है
तो फिर बता ए नर
तू उससे तो बड़ा नही
क्यूँ समझ नही पता है
नारी बिना नर का भी अस्तित्व नही

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

आओ एक बार फिर से एक कोशिश करके देखें

तुम क्यूँ नही पढ़ पाए मेरा मन आज तक
मैं तो हर मोड़ पर सिर्फ़ तुम्हें ही देखती रही
तुम्हारे लिए जीती रही तुम्हारे लिए मरती रही
मन का सफर तय करना इतना मुश्किल तो न था
इतना वक्त साथ गुजारने के बाद ,उम्र के इस मोड़ पर
अब भी मैं वो ही हूँ फिर तुम क्यूँ बदल गए
मेरे मन में आज भी वहीँ उमंगें हैं
वही अरमान हैं,वही चाहतें हैं
तुमने उन्हें कहाँ दफ़न कर दिया
आज फिर से वो ही पल
हम क्यूँ नही जी पाते
माना वक्त सब कुछ बदल देता है
मगर मन तो हमारा वो ही रहता है
क्यूँ हम एक ही बिस्तर पर पास होकर भी
मन से दूर हुए जाते हैं
क्या ज़िन्दगी ऐसे ही जी जाती है
कब तक हम अपने अपने
विचारों में गुम एक दूसरे से दूर
अपनी अपनी सोचों में जिए जायेंगे
क्यूँ नही तुम मुझे पढ़ पाते हो
क्या मेरी सदाएं तुम तक पहुंच नही पाती हैं
या फिर तुम सब जानते हो
और तुम भी अपनी ही दुनिया में
कहीं खोये जाते हो
क्यूँ हम अब एक दूसरे से
अपने जज़्बात बाँट नही पाते हैं
क्या उम्र इसी तरह दगा देती है
मुझे पता है कि दोनों तरफ़
प्यार की कोई कमी नही है
फिर भी मन क्यूँ बंटते जा रहे हैं
हम तो दोनों दो जिस्म एक जान हैं
फिर कहाँ से आया ये तूफ़ान है
आओ इस तूफ़ान को मिटा दें
अपने मन को एक बार फिर से मिला लें
अपने अपने मन को एक दूसरे में कुछ ऐसे
डुबो दें कि फिर कोई तूफ़ान
इन्हें जुदा कर न सके
आओ एक बार फिर से
एक कोशिश करके देखें
एक बार फिर से
एक कोशिश करके देखें

बुधवार, 17 दिसंबर 2008

पत्थर

ता-उम्र पत्थरों को पूजा
पत्थरों को चाहा
ये जानते हुए भी
पत्थरों में दिल नही होता
पत्थरों के ख्वाब नही होते
पत्थरों में प्यार नही होता
कोई अहसास नही होता
पत्थरों को दर्द नही होता
कोई जज़्बात नही होते
फिर भी पत्थरों को ही
अपना खुदा बनाया
पत्थरों की चोट खा-खाकर
पत्थरों ने ही
हमको भी पत्थर बनाया
हर अहसास से परे
पत्थर सिर्फ़ पत्थर होते हैं
जो चोट के सिवा
कुछ नही देते

मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

मुझमें न ढूंढ मुझे
राख के ढेर में अब
कोई चिनगारी नही
उम्र भर
इक चिता जलती रही
लकडियाँ कम पड़ गयीं
तो अरमान सुलगते रहे
जब कुछ न बचा
तो राख बन गई
बरसों से पड़ी है ये
कोई इसे भी उठाने न आया
अब तो इस राख पर भी
वक्त की धूल जम गई है
इसे हटाने में तो
जन्मों बीत जायेंगे
फिर बताओ
कहाँ से ,कैसे
मुझे मुझमें पाओगे
दिल चाहता है मूक हो जायें
सिर्फ़ धडकनों की धडकनों से बात हो
चहुँ ओर फैली खामोशी में
दिल के साज़ पर
धडकनों का संगीत बजता हो
कुछ इस तरह
धड़कने धडकनों में
समां जायें
तू , तू न रहे
मैं , मैं न रहूँ

रविवार, 14 दिसंबर 2008

मुझे मुझसे मिला गया कोई

दिल के सोये तारों को जगा गया कोई
मुझे मुझसे फिर मिला गया कोई
फिर एक बार तमन्ना है जगी
फिर एक बार महफिल है सजी
यादों को गुलजार कर गया कोई
दिल की हर धड़कन को भिगो गया कोई
सोये अरमानों को आइना दिखा गया कोई
कुछ इस तरह एक बार फिर
मुझे मुझसे मिला गया कोई

शून्य से शून्य की ओर

शून्य से शून्य की ओर जाता ये जीवन
कभी न भर पाता ये शुन्य
पैसा, प्यार, दौलत ,शोहरत
कितना भी पा लो फिर भी
शून्यता जीवन की
कभी न भर पाती
हर पल एक भटकाव
कुछ पाने की लालसा
क्या इसी का नाम जीवन है
हर कदम पर एक शून्य
राह ताकता हुआ
शून्य स शुरू हुआ ये सफर
शून्य में सिमट जाता है
जीवन की रिक्तता
जीवन भर नही भरती
और हम
शून्य से चलते हुए
शून्य में सिमट जाते हैं
अब जी नही करता
किसी के कंधे पर
सिर रख रोऊँ मैं
कोई मेरा हाथ थामे
मुझे अपना कहे
अब जी नही करता
किसी के दिल मैं जगह मिले
कोई प्यार करे मुझे
अब जी नही करता
सिर्फ़ जिस्मानी रिश्ते हैं
जो जिस्मों तक बंधे हैं
सब झूठ लगता है
इसलिए
अब जी नही करता
किसी के दामन का
सहारा लूँ मैं
किसी को अपना बना लूँ मैं
एक कांटा चुभा दिल में
आह भी निकली
दर्द भी हुआ
मगर
हर सिसकी जैसे
रेत में पड़ी बूँद
की मानिन्द
कहीं खो गई
मैंने दर्द का बगीचा लगाया
जिसमें ग़मों के बीज बोए
ज़ख्मों से सींचा उसको
अब तो नासूर रूपी फूलों से
हरी भरी है बगिया मेरी

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

फूल का दर्द

क्यूँ उदास है वो फूल बाग़ का,शायद किसी का इंतज़ार है उसे
क्यूँ खिलते हैं ये फूल बाग़ में,शायद किसी पथिक की थकन उतरने के लिए
ये देते हैं शांती आंखों को,दिए जाते हैं उपहार में
मगर किसी ने पूछा फूल से उसके उत्पन्न होने का सबब
यूँ तो लगते हैं सेहरे में भी फूल और चढाये जाते हैं अर्थी पर भी
पर क्या बीतती है उस लम्हा दिल पर फूल के
न जानना चाहा इसका सबब किसी ने
यूँ तो डाली से तोडा जाता है और फेंकने के बाद कुचला भी जाता है
क्या गुजरी,कितने ज़ख्म बने दिल पर फूल के,न समझ सका कोई
हर किसी ने निकला मतलब अपना अपना इससे
मगर न पूछा किसी ने की तुझे दर्द कहाँ है
रोते हैं ये फूल भी मगर न देखा रोना इनका किसी ने
अगर सुनना है फूलों का रुदन तो ख़ुद फूल बन जा
ये शायद खिलते और मुरझाते हैं दूसरों को सुकून देने के लिए
कर देते हैं अपनी ज़िन्दगी बलिदान खुशियों पे सभी की
अगर कुच्छ पाना या खोना है तो सिख फूलों से
जो लेते हैं गम और खोते हैं अपना रंग रूप
और फिर भी रहते हैं सदा मुस्कुराते
काँटों में है दर्द का अथाह सागर
इतना दर्द कैसे समेटा है अपने में
लोग कांटा लगने पर देते हैं गाली
मगर हमें तो प्यार आता है काँटों पर ही
काँटों पर प्यार आता है इसलिए
हमने और काँटों ने सहा है सिर्फ़ दर्द
आहटों से मुलाक़ात न करो
आहटें तो सुनाई देती हैं सिर्फ़ दूर से
खामोशियों ने छुपा रखा है हर आहट को अपने में
खामोशियों में ही सुन सकते हैं आहटों को
मगर हर कोई नही
आहटों की बात है बहुत प्यारी
खामोशियों में ही बात करो
खामोशी में ही खामोशी से मुलाक़ात करो
ज़िन्दगी तुम्हें आहटों से दूर
खामोशियों के समीप मिल जायेगी

मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

किसी ने कुच्छ कहा नही
फिर भी हमने सुन लिया
बिना कहे भी बात होती है
उसको कभी देखा नही
फिर भी हमने देख लिया
बिना देखे भी मुलाक़ात होती है
कभी कभी किसी को जाने बिना
हम जान लेते हैं ,पहचान लेते हैं
कुच्छ ऐसे नाते होते हैं
जो कभी अपने नही होते
फिर भी अपने से लगते हैं
कुच्छ रूहों को
न देखने की न जानने की
न पहचानने की
न अपनेपन की जरूरत होती है
यह तो जन्मों के नाते होते हैं
जो दिलों से बंधे होते हैं

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

तलाश जारी है

तलाश जारी है
हर किसी की
न जाने किसे
ढूंढ रहे हैं सब
हर कोई
कुछ  न कुछ
पाना चाहता है
जब मिल जाता है
तब फिर एक बार
कुछ  नया पाने की
चाहत में
तलाश शुरू करता है
फिर एक बार
एक अंतहीन
दिशा की ओर
चलने लगता है
और उसकी
यह तलाश
ता-उम्र जारी रहती है
किसी को खोजने
की तलाश
कुछ  पाने की
तलाश
मगर
तलाश है कि
कभी ख़त्म नही होती
मृत्यु के उस पार भी
उसकी यह
तलाश जारी रहती है
जब तक
ख़ुद को नही पाता
तब तक
तलाश जारी रहती है
ख़ुद को
पाये बिना
कोई तलाश
पूरी नही होती
और तब तक
तलाश जारी रहती है