आज तो बल्कि ये हो रहा है कि लेखक से ही पैसा लिया जाता है छापने का और उसे कुछ प्रतियाँ देकर इतिश्री कर ली जाती है फिर उसकी किताबें बिकें या नहीं उनको बाज़ार मिले या नहीं किसी को कोई फ़र्क नही पडता और प्रकाशक अपने अगले शिकार पर निकल पडता है ऐसे मे कहां लेखक से न्याय हुआ? इस तरह के कुछ गंभीर विषय हैं जो चाहते हैं कि उन पर भी ध्यान दिया जाये और नये लेखकों को प्रकाशक और बाज़ार दोनो मिले क्योंकि प्रतिभायें आज भी हैं मगर उन्हे फ़लने फ़ूलने के लिये समुचित वातावरण नही मिल रहा। सिर्फ़ कोरा व्यावसायिक दृष्टिकोण बनकर रह गया है ।
ये आज का सच है कि जो बिकता है सिर्फ़ वो ही छपता है अपनी शर्तों पर बाकि जो
लोग छप रहे हैं वो सिर्फ़ खुद अपना घर फ़ूंक तमाशा देख रहे हैं ……आप ही बताइये
इसे क्या कहा जाये ……जब लेखक से पैसे लेकर उसे छाप दिया जाये कुछ प्रतियाँ
उसे देकर काम की इतिश्री कर ली जाये क्योंकि ये आजकल के प्रकाशकों का ही
कहना है कि आजकल कविताओं की मांग नही है इसलिये हम नही छापते तो क्या
समझा जाये इस बात का मतलब? अगर कविताओं की मांग नही है तो क्यों उनके
स्टाल पर कविताओं की किताबें लगी हैं और क्यों किताबे छप रही हैं कविताओं
की…………इसका साफ़ मतलब है कि प्रकाशक लेखक को कोई रियायत या
मुनाफ़ा नही देना चाहता ना ही उसे बेस्टसेलर की श्रेणी मे लाना चाहता है ………हाँ
कोई चेतन भगत जैसा यदि खुद ही अपना प्रोमोशन करे तो हर कोई उसे अपने रैक
मे रखना चाहेगा मगर आम लेखक को नही …………सिर्फ़ अपनी स्वार्थसिद्धि की
वजह से ………वैसे भी सभी जानते हैं कि छपाई कितने मे हो जाती है मगर उससे
कितने गुना ज्यादा मांगा जाता है लेखकों से खासतौर पर नये लेखकों से .......ये भी
सबको पता है तो कमाई तो प्रकाशक की वहीं हो जाती है तो बताइये ज़रा वो क्यों
बाज़ार का रुख करेगा …………और लेखक या कवि पर मेहनत करेगा ………
उसका धंधा तो चल रहा है ना और नया लेखक बेवकूफ़ बन रहा है .
लोग कहते हैं आज खुद को छपवाने वाले लेखकों की भीड़ बढ़ रही है मगर अच्छा लेखन कम नज़र आ रहा है इसलिए ऐसा हो रहा है मगर देखा जाये तो ---------
शब्दो के जोड तोड से किया गया लेखन सिर्फ़ शब्दों तक ही सीमित रहता है और जो
दिल से निकले और सीधा दूसरे के दिल तक पहुँचे और एक जगह बना ले मेरे
ख्याल से तो एक लेखक के लिये वो ही उसका सबसे बडा पारिश्रमिक होता है
………जब लेखक स्वान्त:सुखाय लिख रहा होता है तो वहाँ उसके दिल से ही शब्द
निकलते हैं लेकिन जब लेखक किसी विधा मे बंधकर लिखता है तो उसे उसकी
सीमाओं मे बंधकर लिखना पडता है तो आप खुद समझ सकते हैं कि उसमे वो भाव
कहाँ आ सकते हैं जबकि दिल से तो सीधे भाव उतरते हैं और दिल तक पहुंचते हैं
………आपकी बात मानती हूँ कि भीड बढ रही है मगर ये भी दर्शा रही है कि
कितनी प्रतिभा है जिसे नकारा जा रहा है जिसे उसका उचित स्थान नही मिल रहा
………वैसे आज ये ट्रेंड बनता जा रहा है कि लेखक से मुफ़्त मे उसका लेखन लिया
जाये और जब इतने लेखक होंगे तो सभी अपनी पहचान पाने के लिये कोई ना कोई
राह अपनायेंगे जिस वजह से उनका दोहन हो रहा है ये मानती हूँ मगर इसके लिये
हमारे वरिष्ठ साहित्यकार भी दोषी हैं यदि वो थोडा सहयोग करें तो नयी प्रतिभा को
उभरने से कोई नही रोक सकता ………वो यदि चाहें तो अपने साथ एक नयी
प्रतिभा को भी स्थान देने के लिये यदि प्रकाशक को बाध्य करें तो एक नया ट्रेंड शुरु
हो और एक नयी दृष्टि सबमे व्याप्त हो और प्रतिभासमपन्न लेखकों को उनका स्थान
मिल सके ……मगर स्थापित साहित्यकारों मे से कोई भी अपने वर्चस्व पर आघात
नही चाहता और एक नयी पहल करने की कोशिश नही करता जिस कारण भी ये
समस्या बनी है।
अब देखिये बोधि प्रकाशन जैसे प्रकाशन भी हैं ना जो कम से कम पैसे मे किताबें छाप रहे हैं और उनका प्रोमोशन भी कर रहे हैं मगर ऐसे सिर्फ़ चंद प्रकाशन मुश्किल से ही मिलेंगे ………अभी इनकी पुस्तक "स्त्री होकर सवाल करती है" 327 पेज हैं इसमे और महज 100 रुपये की…………एक मोटी सी बात यदि सोची जाये तो इतने कम रेट मे इतने पेज की किताब कहाँ मिलती है और इसमे भी थोडा बहुत तो उन्होने भी कमाई का हिस्सा रखा होगा ना अर्थात थोडा लाभ तो चाहिये ना उन्हे भी ……यूं ही तो नही दानखाते मे इतना काम किया जायेगा और ये उनका हक भी बनता है ………मगर देखिये यहाँ उन्होने किसी भी लेखक से पैसे नही लिये………बल्कि फ़ेसबुक के नये नये लेखकों को प्रकाशित करने का जो रिस्क उठाया है वो बेहद सराहनीय है साथ ही अपनी तरफ़ से एक एक प्रति भी सबको उपलब्ध करवाई उसके अतिरिक्त चाहिये तो पैसे देकर मंगाई जा सकती है …………जब वो ऐसा कर सकते हैं तो बाकि के प्रकाशक क्यों नही…………इसका मतलब साफ़ है …………इस कार्य मे लाभ भी है और मांग भी है बस सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये कुछ लोगों ने इस कार्य को बदनाम कर दिया है ………अगर बोधि प्रकाशन जैसे प्रकाशन आगे आयें तो जरूर एक बार फिर लेखक अपनी पहचान बनाने मे कामयाब हो सकेंगे और पाठकों को भी एक नया वर्ग नयी सोच के साथ मिल सकेगा जो अभी तक कुछ स्वार्थियों की वजह से सामने आने मे खुद को असमर्थ पा रहा है ।
लोग कहते हैं कि आज अतुकांत कविताओं के कारण हर ऐरा गैरा कवि बन जाता है
अपनी किताबें छपवाकर खुद ही बाँट रहा है जिससे माहौल की गंभीरता ख़त्म हो
गयी है और अच्छी किताबें या अच्छे लेखक भी उसकी जद में आ गए हैं .
क्या सभी अतुकांत कवितायें खराब हैं? ऐसा तो नही है ना और इसका सबसे बढिया
उदाहरण बोधि प्रकाशन की :स्त्री होकर सवाल करती है : पुस्तक है ………जो इस
बात को सिद्ध करती है कि अगर प्रकाशक चाहे तो अर्श पर बैठा सकता है और ना
चाहे तो फ़र्श पर …………और निस्वार्थ कार्य का बोधि प्रकाशन से बढिया उदाहरण
अभी तक तो मेरी आंखो के आगे से गुजरा नही ………दूसरी बात नये लोगों को
प्लेटफ़ार्म दिया जिसमे पता भी नही था कि इसका हश्र क्या होगा ………बिकेगी भी
या नहीं फिर भी प्रकाशक ने रिस्क लिया और वो इस पर कामयाब उतरे जो ये
सिद्ध करता है कि कविताओं का बाज़ार तो आज भी विस्तृत है मगर जब तक कोई
जौहरी ना मिले हीरा भी कांच ही रहता है ……………यही मेरा कहना है कि अच्छे
लेखक भीड मे खो रहे हैं उन्हे उनकी पहचान नही मिल पा रही है जो साहित्य का
दुर्भाग्य है ।
यूँ तो पुस्तक मेला हर दूसरे साल आता रहेगा और ऐसे ना जाने कितने प्रश्न छोड़कर
जाता रहेगा अब ये आज के साहित्यकारों का फ़र्ज़ बनता है कि वो साहित्य के
आकाश पर नवागंतुकों के लिए भी जगह बनाएँ और एक नई मुहीम , एक नई
चेतना का जागरण कर एक नया उदाहरण पेश करें ताकि आगे आने वाली पीढियां
और समाज उनके कृत्य के लिए उनका सदा ऋणी रहे . प्रकाशकों और नए लेखकों
के बीच एक ऐसे पुल का निर्माण करें जहाँ से नयी राहें प्रशस्त हो सकें .