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शनिवार, 28 जुलाई 2012

आयाम बिंधने के

कभी कभी
बिना बिंधे भी
बिंध जाता है कहीं कुछ
सूईं धागे की जरूरत ही नहीं होती
शब्दों की मार
तलवार के घाव से
गहरी जो होती है
मगर
कभी कभी
शब्दों की मार से भी परे
कहीं कुछ बिंध जाता है
और वो जो बिंधना होता है ना
शिकायत से परे होता है
क्या तो तलवार करेगी
और क्या शब्द

नज़र की मार के आगे
बिना वार किये भी वार करने का अपना ही लुत्फ़ होता है ........है ना जानम !!!!

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

हाँ, आ गया हूँ तुम्हारी दुनिया में



हाँ, आ गया हूँ 
तुम्हारी दुनिया में
अरे रे रे ...........
अभी तो आया हूँ
देखो तो कैसा 
कुसुम सा खिलखिलाया हूँ
देखो मत बाँधो मुझे
तुम अपने परिमाणों में 
मत करो तुलना मेरे 
रूप रंग की 
अपनी आँखों से
अपनी सोच से 
अपने विचारों से
मत लादो अपने ख्याल 
मुझ निर्मल निश्छल मन पर
देखो ज़रा 
कैसे आँख बंद कर 
अपने नन्हे मीठे 
सपनो में खोया हूँ
हाँ वो ही सपने
जिन्हें देखना अभी मैंने जाना नहीं है
हाँ वो ही सपने
जिनकी मेरे लिए अभी 
कोई अहमियत नहीं है
फिर भी देखो तो ज़रा
कैसे मंद- मंद मुस्काता हूँ
नींद में भी आनंद पाता हूँ
रहने दो मुझे 
ब्रह्मानंद के पास
जहाँ नहीं है किसी दूजे का भास
एकाकार हूँ अपने आनंद से
और तुम लगे हो बाँधने मुझको
अपने आचरणों से
डालना चाहते हो 
सारे जहान की दुनियादारी 
एक ही क्षण में मुझमे
चाहते हो बताना सबको
किसकी तरह मैं दिखता हूँ
नाक तो पिता पर है
आँख माँ पर 
और देखो होंठ तो 
बिल्कुल दादी या नानी पर हैं
अरे इसे तो दुनिया का देखो
कैसा ज्ञान है
अभी तो पैदा हुआ है
कैसे चंचलता से सबको देख रहा है
अरे देखो इसने तो 
रुपया कैसे कस के पकड़ा है
मगर क्या तुम इतना नहीं जानते
अभी तो मेरी ठीक से 
आँखें भी नहीं खुलीं
देखो तो
बंद है मेरी अभी तक मुट्ठी
बताओ कैसे तुमने 
ये लाग लपेट के जाल 
फैलाए हैं
कैसे मुझ मासूम पर
आक्षेप लगाये हैं 
मत घसीटो मुझको अपनी
झूठी लालची दुनिया में
रहने दो मुझे निश्छल 
निष्कलंक निष्पाप 
हाँ मैं अभी तो आया हूँ
तुम्हारी दुनिया में
मासूम हूँ मासूम ही रहने दो ना
क्यों आस  के बीज बोते हो
क्यों मुझमे अपना कल ढूंढते हो
क्यों मुझे भी उसी दलदल में घसीटते हो
जिससे तुम ना कभी बाहर निकल पाए
मत उढाओ मुझे दुनियादारी के कम्बल
अरे कुछ पल तो मुझे भी 
बेफिक्री के जीने दो 
बस करो तो इतना कर दो
मेरी मासूम मुस्कान को मासूम ही रहने दो............

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

मैं आग पहन कर निकली हूँ

मैं आग पहन कर निकली हूँ
मगर ना झुलसी हूँ ना जली हूँ
जो सीने में था बारूद भरा
चिंगारी से भी ना विस्फोट हुआ
जब आग को मैंने लिबास बनाया
तब बारूद भी मुझसे था शरमाया
ये कैसी आग की आँख मिचौली है
जो जलाती है ना रुलाती है 
ना भड़कती है ना सिसकती है
पर मुझमे ऐसे बसती है
गोया सांसों की माला पर 
कोई सुमरता हो पी का नाम 
उफ़ ..........................
देखा है कभी सिसकती रूहों पर आग का मरहम 

सोमवार, 16 जुलाई 2012

एक सच ये भी है ओ गोवहाटी की लडकी

एक सच ये भी है
नही हूँ व्यथित तुम्हारे लिये
क्योंकि जानती हूँ
होगा कुछ दिन बवाल
शोर चिल पों
सेकेंगे सभी अपनी अपनी रोटी
और फिर हाथ झाड चल देंगे
अगली खबर की तरफ़
तुम एक खबर से ज्यादा क्या हो? कहो तो ?
ये रोज रोज की लीपापोती
अब नही करती व्यथित मुझे
क्या फ़ायदा
क्या इससे मिल जायेगा
तुम्हे तुम्हारा सम्मान
हम महिलायें हैं
सिर्फ़ यहीं गरज बरस सकती हैं
अपने अपने दिल की
भडास निकाल सकती हैं
और फिर हम भी
चल दे्ती हैं
शाम की रोटी चूल्हे पर चढाने
आखिर दो शब्द लिख कर
हमने अपना फ़र्ज़ निभा जो दिया
मगर कभी अपने घर मे ही
अपने लिये मूँह ना खोल पायीं
अपनी बेटी के लिये
ना लड पायीं
गर्भ मे ही जिसे हमने भी दुत्कारा है
और गलती से यदि जन्म दिया है
तो भी ना साथ दिया
तब तुम्हारे लिये क्या लड सकती हैं
क्योंकि
हर लडाई या कहो हर सफ़ाई
घर से ही शुरु होती है ……………

शनिवार, 14 जुलाई 2012

जरूरी तो नहीं मानसून की आहटों से सबके शहर का मौसम गुलाबी हो ............



मानसून आ रहा है
मानसून आ रहा है
सिर्फ यही तो उसे डरा रहा है
कल तक जो रहती थी बेफिक्र
आज उसकी आँखों में उतरी है बेबसी
ग्रीष्म का ताप तो जैसे तैसे सहन कर लेती है
कभी किसी वृक्ष की छाँव में सो लेती है 
तो कभी किसी दीवार की ओट में बैठ लेती है
ज़िन्दगी गुजर बसर कर लेती है
शीत भी ना इतना डराता है
तेज ठिठुरती सर्द रातों में 
कुछ अलाव जला लेती है
और रात को सूरज का ताप दिखा
गुजार देती है 
दिन में चाहे चिथड़ों में लिपटी रहती है 
कभी टाट ओढ़ लेती है 
मगर दिन तो जैसे तैसे गुजार लेती  है 
मगर बरसात का क्या करे 
किस दर पर दस्तक दे 
जब बूँदें रिमझिम गिरती हैं 
किसी के मन को मोहती हैं
मगर उसे तो साक्षात् यम सी दिखती हैं
दिन हो या रात 
सुबह हो या शाम
कहीं ना कोई ठिकाना दिखता है
जब चारों तरफ जल भराव होता है
ना रात का ठिकाना होता है
ना दिन में कोई ठौर दिखता है
मूसलाधार बरसातों में तो 
प्रलंयकारी माहौल बनता है 
जब तीन चार दिन तक 
ना पानी थमता है
ना जीवन उसका  चलता है
बस रात दिन दुआओं में 
खुदा से विनती करती है 
ना चैन से सो पाती है 
ना दो रोटी खा पाती है 
बस ऐसी बेबस लाचार 
एक फ़ुटपाथिये की ज़िन्दगी होती है 
जब ऐसे हालातों से पाला पड़ता है
तब मुँह से यही निकलता है
हाँ , मानसून आ रहा है
सिर्फ यही तो उसे डरा रहा है 
जरूरी तो नहीं 
मानसून की आहटों से सबके शहर का मौसम गुलाबी हो ............


मंगलवार, 10 जुलाई 2012

क्या हर युग में चक्रव्यूह में घिरकर ही अभिमन्यु की मौत निश्चित है ?

मेरे मन की ग्रंथियों पर
कोई नाग कुंडली मार 
शायद बैठ गया है 
तभी तो कोई ग्रंथि
खुल ही नहीं रही
तमस में कहाँ 
हाथ दिखाई देता है
फिर इस गहन 
तमस में 
कौन सी ग्रंथि टटोलूं
कौन सी गांठ खोलूं
एक रंगहीन पर्दा है
जो हटता ही नहीं 
और उसके पार भी
दिखता ही नहीं
ना दशा का पता 
ना दिशा का पता
फिर मंजिल का निर्धारण कौन करे?
ग्रंथियों के चक्रव्यूह में उलझा मन
भेदने का मार्ग ढूँढ ढूँढ हार गया 
मगर ना कोई राह मिली
क्या हर युग में चक्रव्यूह में घिरकर ही अभिमन्यु की मौत निश्चित है ?

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

एक और अनुपम मोती ढूँढ लायी हूँ


मिलिये दोस्तों इस बार 
ब्लोग चर्चा के अन्तर्गत अलका सैनी जी से , उनके भावो की दुनिया से इस माह के अक्षय गौरव पत्रिका के अंक मे ……जिसका लिंक भी साथ मे संलग्न है

https://www.facebook.com/photo.php?fbid=151589944965465&set=a.151587081632418.4117.145727952218331&type=3&theater







मंगलवार, 3 जुलाई 2012

गुरु


गुरु
शिक्षा दे या दीक्षा
करता ज्ञान प्रकाश
शिक्षा गुरु करता 
राह रौशन जीवन की
मन्ज़िल तक पहुँचाता
जीवन जीने की
राह सुगम बनाता
दीक्षा गुरु करता
अध्यात्म प्रकाश
मार्ग मुक्ति का बतलाता
शिष्य को उस राह पर चलाता
मुक्ति की राह दिखाता
तत्वत: गुरु के दोनो रूप
एक मे ही समाहित हैं
गुरु भाव मे ही
परम कल्याण नज़र आता

गुरुका तात्विक विवेचन

गुयानि अन्धकार

रुयानि प्रकाश

अन्धकार से प्रकाश की ओर
जो ले जाये
वो ही तो वास्तव मे गुरु कहलाये
फिर चाहे किसी रूप मे
गुरु मिल जाये
शिक्षा दे या दीक्षा
मगर आत्म कल्याण का मार्ग बताये
मुक्ति की राह दिखाये
मंज़िल तक पहुंचाये
जीवन प्रकाशित कर जाये
वो ही वास्तव मेगुरुकहलाये