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शनिवार, 9 सितंबर 2017

अँधा युग

गोली और गाली
जो बन चुके हैं पर्यायवाची
इस अंधे युग की बनकर सौगात
लगाते हैं ठिकाने
बडबोली जुबान को

तुम , तुम्हारी जुबान और तुम्हारी कलम
रहन है सत्ता की
नहीं बर्दाश्त सत्ता को कलम का अनायास चल जाना
बन्दूक की निकली गोली सा
गर करोगे विद्रोह तो गोली मिलेगी
और मरने के बाद गालियों के फूलों से सजेगी तुम्हारी राख

आमूलचूल परिवर्तन आ चुका है हवाओं में
अब नहीं बहा करती हवा
पूरब से पश्चिम या उत्तर से दक्षिण
अब हवाएँ बहती हैं ऊपर से नीचे
आग उगलती हुईं, झुलसाती हुईं , मिटाती हुईं

ये नया युग है
नाम है अँधा युग
यहाँ जरूरत है ऐसे ताबेदारों की
जो फूँक से पहाड़ उड़ा दें
जो दस्तावेजों से हकीकत मिटा दें
जो देशभक्त को गद्दार बता दें
आओ , नवाओ सिर
कि कलम हो जाओ उससे पहले...
तुम थोथे चने हो
निराश हताश जंगल के बिखरे तिनके
कोई संगठित बुहारी नहीं
जो बुहार ले कूड़े करकट के ढेर को

सांत्वना के शब्द ख़त्म हो चुके हैं शब्दकोशों से
अब तुम तय करो अपना भविष्य
प्रतिमाएं स्थापित करने का युग है ये
शब्दों के कोड़ों से अक्सर उभर आते हैं नीले निशान
बच सको तो बच के रहना
ये वक्त न प्रतिशोध का है न प्रतिरोध का

दानव मुँह फाड़े खड़ा है
दाढ़ों में फँसने को हो जाओ सज्ज



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©वन्दना गुप्ता vandana gupta  

रविवार, 3 सितंबर 2017

हारे हुए सपनों की सनक

सपनों की लुगदी बनाओ 
और चिपका लेना ज़िन्दगी का फटा पन्ना 
उसने कहा था ......
और मैंने ब्रह्म्वाक्य मान किया अनुसरण 

आज हारे हुए सपनों की भीड़ में खड़ी
पन्ना पन्ना अलग कर रही हूँ 
तो हर पन्ना मुंह चिढ़ा रहा है 
मानो कह रहा है 
सपने भी कभी सच होते हैं ...........
और मेरे हारे हुए सपनों की सनक तो देखिये 
अनशन पर बैठ गए हैं 


जबकि जानते हैं ये सत्य सपनो के आकाश कभी नीले नहीं हुआ करते ..........