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बुधवार, 25 अप्रैल 2018

बिछड़े सभी बारी बारी :




जाने कैसा ये साल आया है एक के बाद एक सभी छोड़ कर जा रहे हैं. Vijay Kumar Sappatti पिछले कई सालों से एक के बाद एक मुश्किलों से गुजर रहे थे...हम ब्लॉग के वक्त से मित्र रहे और उसी दौरान उनके जीवन में पहले नौकरी की समस्या शुरू हुई जो कई सालों तक लगातार चलती रही. उसके बाद उनकी पत्नी बीमार रहीं और उन्हें आर्थिक तंगी के चलते मकान बेचना पड़ा और एक फ्लैट में आ गए ...मगर रहे जीवन्तता से भरपूर...हम भी कहते विजय ये वक्त भी गुजर जाएगा...वो कहते आखिर कब तक वंदना तो मैं यही कहती बस ये आखिरी है लेकिन जब उनके कैंसर की खबर सुनी तो स्तब्ध रह गयी थी लेकिन कुछ वक्त पहले जब बात हुई तो उन्होंने कहा - अब पूरी तरह ठीक हो गया - जानकर ख़ुशी हुई थी और सोचा था शायद अब ईश्वर मेहरबान हो गया और उनकी सभी परीक्षाएं पूर्ण हो गयीं ...लेकिन मैं गलत थी ....जाने क्या जरूरत आ पड़ी ईश्वर को जो अभी उन्हें अपनी जिम्मेदारियां भी पूरी नहीं करने दीं.....अभी तो बच्चे भी सेटल नहीं हुए और उम्र सिर्फ 52 साल ......ये क्या जाने की उम्र होती है ?

ब्लॉग के माध्यम से हम सब जुड़े थे. अक्सर एक दूसरे की रचनाओं पर गंभीरता से विमर्श करते और प्रोत्साहित भी और विजय कई बार ऐसी कविता लिखते जो दिल को छू जाती तो उसके प्रयुत्तर में मेरी तरफ से भी एक कविता आ जाती ...वो एक ऐसा दौर था जहाँ कितना अपनापन था, सम्मान था.अपनी छोटी छोटी खुशियों को सबसे बाँटना उनका प्रिय शगल रहा...एक बच्चे की तरह ...हमेशा पॉजिटिव थिंकिंग रही.........हर बार गिरकर उठना उसी उत्साह से जैसे कुछ हुआ ही न हो ........बहुत कुछ करना चाहते थे विजय वैसे भी एक ऑल राउंडर थे फिर वो फोटोग्राफी और चित्रकारी हो, कवितायेँ या कहानियां हों, या फिर अध्यात्म ...यहाँ तक कि पिछले दिनों उनकी बनायीं एक लघु फिल्म पर वो पुरस्कृत भी हुए .......जाने क्या कुछ करना चाहते थे और कितना कुछ अधूरा छोड़कर चले गए .

शुरू शुरू में जब ब्लॉग बनाया था तो किसी को जानती नहीं थी तो किसी से अपना नंबर शेयर नहीं करती थी न किसी से फ़ोन पर बात करती थी लेकिन जब हम सबने एक दूसरे को अच्छे से जाना , एक दूसरे पर विश्वास हुआ तब नंबर शेयर किया....तब भी सालों में बात होती थी तभी एक बार बात हुई थी तो विजय ने कहा हम देखो कितने सालों से मित्र हैं लेकिन अब तक मिले नहीं तो जो जवाब मैंने दिया आज सोचती हूँ तो लगता है किसी होनी ने ही वो जवाब दिलवाया होगा लेकिन आज वो ही टीस भी रहा है

हम कभी नहीं मिलेंगे
इस ज़िन्दगी में
कहा था मैंने
मिलने से भ्रम टूट जाते हैं

रु-ब-रु होने पर
एक ठंडापन
एक अजनबियत
एक औपचारिकता की त्रिवेणी में
जब डुबकी लगाओगे
नजर और दिल
खेलने चले जायेंगे गुल्ली डंडा
और तुम करते रह जाओगे
खानाबदोशी से गुफ्तगू

थोडा तो रुक जाते
इतनी भी जल्दी क्या थी जाने की
दोस्तों की बात का इतना भी क्या बुरा मानना भला
कहा था मैंने
और तुमने मान लिया
सच कर दिखाया

ये तब कहा था जब कई लोगों से मिलने पर भ्रम टूटे थे तो सोचा था जो दोस्ती बनी हुई है बनी रहे फिर हम चाहे कभी न मिलें ......लेकिन आज लग रहा है कितना गलत कहा था ....अक्सर कहा करती थी इस आभासी दुनिया ने मुझे बस सच्चे मित्र तो दो चार दिए हैं और विजय उनमे से एक थे ...हम आपस में अपने दुःख सुख शेयर कर लेते थे फिर वो लेखन से सम्बंधित हों या फिर ज़िन्दगी से ...बस अब और नहीं कुछ कह पाऊँगी ......बस तुम जहाँ भी हो ईश्वर अब विजय को अपना प्यार देना, बहुत तकलीफ से गुजरे थे .... 
 
अभी कमेंट में गिरिराज शरण जी ने सूचना लगाईं है विजय की नयी कहानी की किताब अमृत वृद्धाश्रम उनके प्रकाशन से प्रकाशित हुई है तो हम सबकी तरफ से यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी यदि हम सब उस किताब को पढ़ें और प्रकाशक उस किताब को साहित्य की दुनिया में पहचान दिलवाए क्योंकि 'एक थी माया' भी उन्ही के  प्रकाशन  से  प्रकाशित  हुई और बहुत  प्रसिद्द भी . 
विनम्र श्रद्धांजलि .........ईश्वर उनके परिवार को ये दुःख सहने की शक्ति दे :( :(

बुधवार, 18 अप्रैल 2018

स्त्रियों के शहर में आज जम के बारिश हुई है

कृष्णपक्ष से शुक्लपक्ष तक की यात्रा है ये
आकाशगंगाओं ने खोल लिए हैं केश और चढ़ा ली है प्रत्यंचा
खगोलविद अचम्भे में हैं
ब्रह्माण्ड ने गेंद सम बदल लिया है पाला

ये सृष्टि का पुनर्जन्म है
लिखी जा रही है नयी इबारत मनु स्मृति से परे
ये न इतिहास है न पुराण
चाणक्य की शिखा काट कर टांग दी गयी है नभ पर
प्रतीकों को नहीं बनाना हथियार इस बार
भेस बदलने के चलन को कर निष्कासित
खिल रहा है स्वरूप धरती का

खामोशी की कंटीली डगर एक दुस्वप्न सरीखी
चाहे जितना करे स्यापा
चहक, महल, लहक की उजास से द्विगुणित हो गया सौन्दर्य

मंडप में विराजमान है आदिम सत्ता की राख
नृत्यरत है रक्कासा
देवियाँ बजा रही हैं दुन्दुभी और यक्षिणी फूल 

वहाँ रागों के बदल गए हैं सुर
पहले ख्वाब की पहली मोहब्बत सा
ये है उजास का पहला चुम्बन

स्त्रियों के शहर में आज जम के बारिश हुई है

शनिवार, 14 अप्रैल 2018

सुनो देवी

सुनो देवी
तुम तो नहीं हिन्दू या मुसलमान
फिर कैसे देखती रहीं अन्याय चुपचाप
क्यों न काली रूप में अवतरित हो
किया महिषासुर रक्तबीज शुम्भ निशुम्भ का नाश

सुनो देवी
क्या संभव है तुम्हें भी तालों में बंद रखना?
फिर क्यों नहीं खोले तुमने
चंड मुंडों के दिमाग
क्यों नहीं दुर्गा रूप में अवतरित हो
किया अत्याचारियों का विनाश

सुनो देवी
क्या मान लें अब हम
तुम्हारा अस्तित्व भी महज कपोल कल्पना है
क्या जरूरी है
इंसानियत और मानवता से उठ जाये सबका विश्वास
और आस्था हो जाए पंगु

देखो देवी देखो
चहुँ ओर मच रहा कैसा हाहाकार
जब ईश्वरीय अस्त्तिव भी प्रश्चिन्ह के कटघरे में खड़ा हो गया
और कोई राजनीतिज्ञ
राम और रहीम के नाम पर
अपनी रोटी सेंक गया
क्या महज उन्हीं के हाथ की कठपुतली हो तुम
या फिर
उन्हीं तक है तुम्हारी भी प्रतिबद्धता?

उठो देवी उठो
करो जागृत खुद को
करो सुसज्जित स्वयं को दिव्य हथियारों से
सिर्फ एक बार
कर दो वो ही भीषण रक्तपात
मिटा दानवों को दो मनुष्यता को आधार

गर न कर सको ऐसा
तो कर दो देवी पद का त्याग
जो भ्रम से तो बाहर आ जाए इंसान

ईश्वर सबसे संदेहात्मक दलील है ...

#आसिफा

रविवार, 8 अप्रैल 2018

बचे रहेंगे रंग मेरी नज़र में


जीवन का उल्लास हैं रंग. ज़िन्दगी में इंसान चाहता ही क्या है सिवाय रंगों के होने के. बिना रंगों के कैसा जीवन? कितना नीरस होता जीवन यदि उसमें रंग न होते. यहाँ तक कि प्रकृति भी समेटे हुए है जाने कितने रंग और शायद यही है कारण इंसान ने रंगों के महत्त्व को जाना , समझा और अपनाया. ऐसा ही एक रंग लिए आये हैं कवि-चित्रकार कुंवर रविन्द्र जी बोधि प्रकाशन से प्रकाशित अपने नए कविता संग्रह ‘बचे रहेंगे रंग’ के साथ.

कवि होने के साथ चित्रकार हैं या चित्रकार होने के साथ कवि ये तय करना जरूरी नहीं क्योंकि दोनों ही विधाओं में रविन्द्र जी की जबरदस्त पकड़ है. जब उनकी कलाकृति देखते हैं तो वो खुद बोलती है और जब उनकी कविता पढ़ते हैं तो वो अन्दर उतरती है, आपको पिन चुभाती रहती है. सहज सरल भाषा में बेहद साफगोई के साथ रविन्द्र जी अपनी बात रखते हैं. शब्दों की मितव्ययिता कोई उनसे सीखे लेकिन कम शब्दों में बड़ी बात कहना आसान नहीं होता. गागर में सागर भरती कवितायेँ पढने वाले के जेहन पर तीखा प्रहार करती हैं. जो कहते हैं वो तो आप पढ़ लेते हैं लेकिन जो अनकहा रह जाता है वो ही देर तक आपको सोचने पर विवश किये रहता है और यही कविता की सार्थकता है जो बाद तक आपको उद्वेलित करती रहे.

रंगों के चितेरे रंग ही जीवन में उतारते हैं फिर वो कैनवस हो या किताब. यहाँ कवि का अभिप्राय समझने की जरूरत है. यहाँ आखिर रंगों से कवि का क्या आशय है ये सोचना जरूरी है. यूँ तो ज़िन्दगी रंगों बिना अजाब है मगर इसी ज़िन्दगी में जब भ्रष्टाचार, असमानता, वैमनस्य , जातिवाद, राष्ट्रवाद आदि के स्याह रंग घुलते हैं तब जीवन कैसे दूभर हो जाता है तब एक कवि उद्वेलित हो कह उठता है और शायद यही उसकी दृष्टि है जो अन्धकार में भी प्रकाश खोज लेती है, उम्मीद का दामन कवि नहीं छोड़ता और कह उठता है – बचे रहेंगे रंग लेकिन कौन से रंग बचाना चाहता है कवि? ये भी सोचना जरूरी है और जब कवितायें पढो तो पता चलता है कवि कौन से रंग चाहता है ज़िन्दगी में. कवि चाहता है इंसानियत, मानवीयता, समानता, अपनेपन का रंग. यदि ये रंग बचे रहेंगे तो जीवन सहज हो जाएगा और कवि आशा का वाहक है. निराशा से आशा की ओर प्रस्थान करना ही संग्रह का उद्देश्य है. तभी कह उठता है – ‘मैं अँधेरे से नहीं डरता/ अँधेरा मुझसे डरता है/ मैं उजाला अपने हाथ में लेकर चलता हूँ’

कवि की चिंताएं हैं देश और समाज के प्रति, जहाँ विकास का झुनझुना सबको पकडाया गया है मगर एक जागरूक इंसान जानता है महज खोखली बातों से, सब्जबागों से कोई देश तरक्की नहीं कर सकता तभी तो गहरा कटाक्ष करता है ये कहकर तो साथ में मन की पीड़ा भी उभर कर आती है जो बताती है जागरूक है कवि – ‘एक दिन जब तुम सुबह सोकर उठाओगे/ तो देखोगे तुम्हारा गाँव स्मार्ट सिटी बन चूका है /बुलेट ट्रेन तुम्हारे गाँव के बीच से होकर गुजर रही है/ और तुम खुद को स्मार्ट सिटी के / किसी फुटपाथ पर भीख मांगते पाओगे/ तब समझ लेना विकास हो चूका है/ और तुम एक विकसित देश के /सभी व् सम्माननीय नागरिक हो’

क्योंकि कवि मन है तो व्यथित होना लाजिमी है. संवेदनशील होना ही कवि होने की पहली निशानी होती है तभी तो कविताओं के माध्यम से धर्म से परे इंसानियत को तरजीह देता है कवि ये कहते हुए- ‘मुझे दुःख नहीं होता / ईसाईयों के मारे जाने पर/ मुसलामानों या हिन्दुओं/ या फिर यहूदियों के मारे जाने पर/ मुझे दुःख नहीं होता/ मुझे बहुत दुःख होता है/ सिर्फ / इंसानों के मारे जाने पर’

वहीँ लोकतंत्र का अर्थ यही कोई जानना चाहे तो ‘माली हुई तम्बाकू’ कविता पढ़े तो जानेगा सच्चाई...कम शब्दों में गहरी मार करती कविता न केवल कटाक्ष करती है बल्कि हमारी कमजोरियों को भी उजागर करती है तो साथ ही बताती है कैसे हम अपने अधिकारों और कर्तव्यों का दुरूपयोग करते हैं. इसी तरह जंग लगा लोकतंत्र भी कवि को गंवारा नहीं तभी उम्मीद का दामन थामे है, आशा की किरण तमाम अन्धकार को मिटाने को काफी है फिर चाहे कितना भी वो असंवेदनशीलता दिखाएँ. व्यवस्था से व्यथित कवि सिवाय कटाक्ष के और कर क्या सकता है और वो अपनी कलम की धार से कहीं भी वार करने को नहीं चूकता. तभी तो कहने में संकोच नहीं करता कि बेशक कुएं सूखे, बच्चे मरें और तुम यानि शासक कितना भी पुरजोर कोशिश करे मिटाने की, हम नहीं मिटने वाले क्योंकि बाकी है अभी जिजीविषा. शायद यही है एक इंसान के अन्दर का जज्बा जो उसे हर कड़वा घूँट भरने के बाद भी बचाए रखता है. वहीँ ‘बनैले सूअर’ कविता के माध्यम से सोये हुओं को जगाने का आह्वान करता है कवि. इसी तरह कैसे आदिवासियों को सिर्फ वोट बैंक की तरह प्रयोग किया जाता है ये छोटी सी कविता द्वारा जाना जा सकता है जहाँ शहर और जंगल का फर्क ही ख़त्म हो चुका है तो आदमी एक प्रश्नचिन्ह बन चुका है जो वोट बैंक में तब्दील हो चुका है.

देश के प्रति कवि की चिंता हर दूसरी कविता में प्रगट हो रही है जहाँ हम सब जानते हैं, देखते हैं लेकिन कहने की हिम्मत नहीं कर पाते. वहीँ कवि सच्चाइयों को एक के बाद एक प्रस्तुत करता जाता है जब कहता है –‘लोगों के दिमाग निकाल कर/ किनारे रख दिए गए हैं/किस्से-कहानियों और मिथकों के बल पर/ उनके देखने, सोचने और समझने की शक्ति/ बड़ी सफाई से छीन ली गयी है/ झूठ और अफवाहों के बल पर/ एक ही लाठी से / गधे-घोड़े, गाय-भैंस और इंसान को हांका जा रहा है’ विचारणीय यहीं है आखिर क्यों ऐसा किया जा रहा है? क्या सिर्फ इसलिए कि शासक चाहते हैं किसी भी तरह खुद की वाहवाही फिर इसके लिए चाहे किसी भी हद को तोडा जाए, फिर इससे चाहे विश्व का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश किसी हिटलर के ख़्वाबों की भेंट चढ़ जाए और देश लोकतान्त्रिक ‘है’ से ‘था’ हो जाए. यही कटाक्ष फिर अगली कविता में अलग ढंग से उभरता है जब कवि फिर शासक के खिलाफ एक और दलील पेश करता है जहाँ शासक की दिखाई लोलीपोप से जनता सम्मोहित है और वो खुद ऐश कर रहा है वहीँ आम जनता यानि किसान आत्महत्या कर रहा है वहां एक कटाक्ष काफी है हकीकत बयां करने को – ‘ध्यान रहे/ देश की क़ानून व्यवस्था/ मृतकों के लिए नहीं होती’

‘यदि तुम चीख नहीं सकते’ कविता में मानो कवि यही कहना चाहता है उठो, खड़े हो, लड़ो अपने अधिकारों के लिए, सत्ता के रौब में मत रहो. जो डरता है , दबता है वो मारा जाता है इसलिए कर रहा है कवि आह्वान कि करो अपना ज़मीर जिंदा वर्ना मार दिए जाओगे किसी भी दिन या त्यौहार पर फिर वो होली दिवाली हो या ईद या चुनाव

कितनी कविताओं का जिक्र करूँ और किन्हें छोडूँ, दुविधा उत्पन्न हो जाती है जब जगह जगह कवि मन की व्याकुलता प्रकट होती है और ये सिर्फ कवि मन की ही व्याकुलता नहीं है, ये हम सबकी व्याकुलता है, हम सबके व्यथित ह्रदय की पुकार है जो कवि ने कविताओं के माध्यम से उकेरी है. एक जलता अलाव सीने में ज्वालामुखी सा धधक रहा है और कवि उसकी कुछ बूँद ही मानो अभी छींट पाया है, नहीं उंडेल पाया पूरा लावा वर्ना तहस नहस हो जाए सभ्यता. सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा कविता ने तो इस सच्चाई को साबित कर दिया है कि यदि आपकी जेब भरी है तभी आप इस देश के नागरिक कहलाने लायक हैं, ये देश आपका है और सबसे बड़ी बात आप इस देश के हुक्मरान हैं, आप उन पर भी राज कर सकते हैं जो शासक हैं क्योंकि न्याय उन्हीं के लिए होता है पैसे के बल पर ख़रीदा हुआ और अन्याय आम आदमी के संग, ऐसे में मान लो यदि नहीं जाग सकते कि ये देश अब तुम्हारा नहीं रहा. मानो कवि कहना चाहता है जिसकी जेब भारी देश उसी का बस इतने तक रह गयी है आज देशप्रेमी होने की परिभाषा. तार तार कर देती हैं कविताएँ राजनीति के रेशे रेशे को. एक एक बंद को खोल रही है कवि की कलम. कवि कम शब्दों में गहरी मार कर रहा है और जो नहीं कह रहा वो ही ज्यादा सुनाई दे रहा है. हत्यारे हों या पद्म सम्मान से किन्हें नवाज़ा जाता है आज या फिर अच्छे दिन या सीमा पर मरते जवान कोई शय नहीं जो कवि के कटाक्ष का माध्यम न बनी हो. कवि के मन की बेचैनी कविताओं के माध्यम से उभरती हुई हमारी बेचैनियों को पोषित करती है.

‘उसने कहा/देश मेरे इशारों पर चलेगा /यदि नहीं चला / तो मैं देश को बर्बाद कर दूंगा/ देश पहले से ही अपाहिज था/ उसके इशारों पर नहीं चल पाया/ और अंततः उसने देश बेच दिया/ मूर्खों की बस्ती में जश्न था/ बुद्धिजीवी कर रहे थे विलाप’ क्या इस कविता के बाद भी कहने को कुछ बचता है? कवि की निगाह हर विसंगति पर है और कहने से उसकी कलम चूकती नहीं.

संग्रह में कवि की धारदार कलम ने सत्ता के खिलाफ मानो बिगुल बजा दिया है और मानो यही कहना चाहता हो या कहो यही है कवि का आह्वान – ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’, मानो इसी के माध्यम से सोई जनता को उठाना चाहता है कवि, जगाना जरूरी है और ये काम कवि ही कर सकता है वो वक्त आने से पहले कि एक बार फिर देश विकास के नाम पर अदृश्य गुलामी की जंजीरों में जकड जाए. कवि की छटपटाहट बेशक कितनी हो लेकिन उन्हीं के बीच उम्मीद का दीया जलाया हुआ है जो चिन्हित करता है कितनी ही दुश्वारियां क्यों न हों राह में, कितने ही अंधेरों के बीहड़ हों, आशा का मद्धम सा जलता दीया काफी है जीवन की खूबसूरती को बचा सकने में, उम्मीदों, उमंगों, उल्लास और ख़ुशी के रंगों से जरूर रंगे रहेगा जीवन फिर चाहे हताश, निराश, कंटकाकीर्ण मार्ग ही क्यों न हो और यही तो हैं ज़िन्दगी के सच्चे रंग. एक चित्रकार से ज्यादा कौन रंगों के महत्त्व को समझ सकता है फिर वो कैनवस पर हों या ज़िन्दगी में.

रविन्द्र जी की बेबाक लेखनी के लिए उन्हें साधुवाद. उम्मीद है कवि जीवन के सभी रंगों को बचा ले जायेगा जब तक आशा की एक भी किरण बाकी है.

वंदना गुप्ता





बुधवार, 4 अप्रैल 2018

एक लड़की की डायरी के अंतिम पन्ने 2

लड़की बोल रही है चट्टान, लिख रही है दूब...लड़की खोज रही है संसार, पा रही है खार...वाकिफ नहीं हकीकत के प्रवाह से ...लड़की बह रही है नदी सी समय के चक्रव्यूह में...नहीं जानती, तोड़ी जायेगी, मरोड़ी जाएगी, काटी जायेगी, छिली जायेगी, तपाई जायेगी तब बनेगी बांसुरी जिस पर गुनगुनायी जायेगी कोई एकतरफा प्रेमधुन...प्रेम, वो ही जिसके पलड़े कभी सम नहीं होते, एक तरफ झुकाव ही जिसकी नियति होती है, जिसमे देह बजे सितार सी उनके हाथों, उनकी धुन पर नाचे ता थैया थैया थैयी ...और वो रात और दिन के क्रम बदल दें उसके लिए..ये वक्त की खामोशियाँ हैं, कौन सुनता है? बस चुप रहो और छू सको तो छू लो अंतर्मन के ख्याली पुलाव तक है तुम्हारी नियति!!!

दिन बदलने से बदलते हैं...सुन रही हो न? हाँ, तोड़ो अपने पैर में पहना तोडा, गर तोड़ सको...लड़की छूमंतर कर दो डर के कबूतर और उड़ जाने दो आसमां में...गूंगा बहरा होना नहीं है अंतिम विकल्प...यहाँ देह वो अजायबघर है जिसमे गुनगुना रहा है आदिम संगीत, निकलो देह से बाहर, तोड़ो चौखट, करो लड़की प्रयाण...महाप्रयाण से पहले!!!

फिर स्वप्न! आह कितने स्वप्न! कितनी बेड़ियाँ! कितनी कहानियाँ, कितने जन्म, कितनी मौत...साँस साँस मौत, फिर भी जिंदा है लड़की...आखिर क्यों?
स्वप्न गुनाह नहीं, स्वप्न भोर का वो तारा है जो रखता है तुममें तुम्हें जिंदा... लड़की...बचा लो खुद को...बचा लो स्वप्न को...बचा लो उम्मीद की अंतिम टिमटिमाती लौ को !!!


आकाश के कदली स्तम्भ पर टिकी है तुम्हारी सृष्टि...लड़की मत हिलाओ नींव कि दरकने पर दरक जाए तुम्हारे शहर का समूचा लहलहाता ढाँचा जो भरता है रंग इन्द्रधनुषी तुम्हारी ख्वाबगाह में...और तुम लपेट लेती हो सम्पूर्ण धरा को अपनी देह पर...धानी रंग से भर लेती हो मांग और हो जाती हो सुहागन !!!

लड़की मत मिटने दो न सृष्टि के अंतिम विकल्प को...तुम हो तो सृष्टि है...जिंदा रखो अपने पहले स्वप्न को, बनाओ उसे अंतिम स्वप्न...
आस के दरीचों में करो बागवानी...जहाँ उम्र निठल्ली बैठी रहे और तुम संवार लो ज़ुल्फ़ का उलझा बल 

ये उम्र की परछाइयाँ चुकाने का वक्त है!!!


लड़की जिंदा हो रही है फलसफों में ...
©vandana gupta