अम्बुआ की डाली पर
चाहे न कुहुके कोयल
किसी अलसाई शाम से
चाहे न हो गुफ्तगू
कोई बेनामी ख़त चाहे
किसी चौराहे पर क्यों न पढ़ लिया जाए
ज़िन्दगी का कोई नया
शब्दकोष ही क्यों न गढ़ लिया जाये
अंततः
बातें हैं बातों का क्या ...
अब के देवता नहीं बाँचा करते
यादों की गठरी से ... मृत्युपत्र
न दिन बचना है न रातें
फिर बातों का भला क्या औचित्य ?
श्वेत केशराशि भी कहीं लुभावनी हुआ करती हैं
फिर
क्यों बोझिल करें अनुवाद की प्रक्रिया
जाओ रहो मस्त मगन
मेरे बाद न मैं , मेरे साथ भी न मैं
बस सम ही है अंतिम विकल्प समस्त निर्द्वंदता का
कौन हल की कील से खोदे पहाड़ ?
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©वन्दना गुप्ता vandana gupta