कोई भी आकलन करने की
खुद को कटहरे में खडा करने की
या दूसरे पर दोषारोपण करने की
किसी भी स्थिति से मुक्त करने की
कोई जद्दोजहद नहीं कर सकती
विश्राम की भी अवस्था नहीं ये
तटबंधों पर खामोश खडा तूफ़ान भी नहीं ये
बेवजह जिरह करने की तबियत भी नहीं ये
सुलगता दावानल भी नही ये
फिर क्या है जो बेचैन किये है
वक्त , हालात या परिस्थितियाँ
या मुक्तिबोध से पूर्व की अवस्था
सिमटने को मुट्ठी ना फ़ैलने को आकाश चाहिये
मुझे बस मेरा एक अदद साथ चाहिये
क्योंकि
बेचैन हूँ …………जाने क्यों ?
बेवजह की बेचैनी का कोई तो सबब होगा यारों ………
बुधवार, 30 जनवरी 2013
सोमवार, 28 जनवरी 2013
प्रसिद्धि का शार्टकट
हर बार विश्व पुस्तक मेले के आयोजन का होना जैसे एक घटना को घटित कर देता
है मुझमें और मैं हो जाता हूँ सतर्क हर तरफ़ चौकन्नी निगाह …………कौन , कहाँ
और कैसे छप रहा है , किसने क्या जुगाड किया, किसने पैसे देकर खुद को
छपवाया, किसने सच में नाम कमाया और किसने अनुचित हथकंडे अपनाये और पा ली
प्रसिद्धि, किसने वर्जित विषय लिखे और पहुँच गये मशहूरियत के मुकाम पर
…………देख देख मुझमें खून का उबाल चरम सीमा पर पहुँचने लगता है और मैं डूब
जाता हूँ विश्लेषण के गणित में………
लिखना वो भी निरन्तर उस पर उसकी साधना करना, अराधना करना मुझ जैसे निष्क्रिय के बस की बात तो नहीं जब सुबह एक बार तस्वीर के आगे नतमस्तक नहीं होता तो यहाँ इसकी अराधना कैसे की जाये और कौन इन पचडों मे पडे । ये तो गये ज़माने की बातें हैं और आज का वक्त तो वैसे भी इंटरनैट का वक्त है ………जहाँ जैसे ही कोई विचार उतरे चाहे उसमें तुक हो या नहीं सीधा चिपका दो दीवार पर और हो जाओ शुरु अपने मन की भडास निकालना …………अब इसमें कोई मोल थोडे लगता है सो हम भी इसी तरह कर लेते हैं एक दिन में ना जाने कितनी बार अराधना शब्दों की और खुद को साबित कर देते हैं महान लिक्खाड्……आज के वक्त में जो जितना ज्यादा बात करे, चाहे तीखी या मीठी वो ही प्रसिद्धि के सोपान चढता है और वहीँ सबसे ज्यादा चटखारे लेने वालों की भीड नज़र आती है ………बस इस बात को गिरह में बाँध हमने भी जोर -शोर से धावा बोल दिया और लगे बतियाने, ताज़ा -ताज़ा माल परोसने, कभी घर की तो कभी बाहर की बात , तो कभी देश और समाज पर अपने ज्ञान का परचम फ़हराते हम किसी के भी लेखन के बखिये उधेडने में बहुत ही जल्द परिपक्व हो गये …………आहा! क्या दुनिया है ……जब चाहे जिस पर चाहे अपनी भडास निकालो और अपनी पहचान बना लो क्योंकि सीधे रास्ते पर चलकर कितने मुकाम पाते हैं …………उन जैसों को तो कोई पूछता भी नहीं और यदि गलती से कोई पूछ भी ले तो सारे परिदृश्य पर असर पडता हो ऐसा भी नज़र नहीं आता तो सुगम , सरल , सहज रास्ता क्यों ना अपनाया जाये और प्रसिद्धि के मुकाम पर खुद को क्यों ना पहुँचाया जाये और उसका सबसे आसान रास्ता एक ही है …………आप चाहे कवि हों या कथाकार या लेखक आपको आलोचना करना आना चाहिये ………कोई चाँद को चाँद कहे तो भी आपमें उसके नज़रिये को बदलने का दमखम होना चाहिये………जहाँ से उसे चाँद में भी दाग साफ़ - साफ़ नज़र आ जाये और वो आपके लेखन का, आपकी आलोचना का कायल हो जाये और सफ़लता की सीढी का ये पहला कदम है बस इतना काफ़ी है और ये हमने बखूबी सीख लिया और चल पडे मंज़िल की ओर …………
अपनी धुन में हमने भी लिख मारी काफ़ी कवितायें, तुकबंदियाँ और आलेख …………आहा ! एक एक शब्द पर वाह- वाही के शब्दों ने तो जैसे हमारे मन की मुरादों में इज़ाफ़ा कर दिया । बडे - बडे कवियों , लेखकों से तुलना उत्साह का संचार करने लगी ……चाहे पुराने हों या समकालीन ………अब तो हमारा आकाश बहुत विस्तृत हो गया जहाँ हमें हमारे सिवा ना कोई दूसरा दिखता था ………समतुल्य तो दूर की बात थी …………अब जाकर सोचा हमने भी चलो अब छपना चाहिये क्योंकि अभी तक तो एक पहला पडाव ही तो पार किया था …………इंटरनैट महाराज की कृपा से ।
और करने लगे हम भी जुगाड किसी तरह छपने का और पुस्तक मेले में विमोचित होने का …………आहा ! कितना गौरान्वित करता वो क्षण होता होगा जब अपार जनसमूह के बीच खुद को खडे देखा जाये, सम्मानित होते देखा जाये …………बस इस आशा की किरण ने हमें प्रोत्साहित किया और हम चल पडे ………यूँ तो इंटरनैट महाराज की कृपा से काफ़ी प्रकाशन जानने लगे थे और छापते भी थे मगर अकेले अपना संग्रह छपवाना किसी उपलब्धि से कम थोडे था सो नामी- गिरामी प्रकाशनों से बात करके सबसे बडे प्रकाशन के द्वारा खुद को छपवाने का निर्णय किया और साथ ही प्रचार- प्रसार में भी कोई कमी नहीं होने देने का वचन लिया । दूसरी सबसे बडी बात इंटरनैट महाराज की कृपा से इतने लोग जानने लगे थे कि पुस्तक का हाथों - हाथ बिकना लाज़िमी था क्योंकि सभी आग्रह करते थे कि आपका अपना संग्रह कब निकलेगा ? कब आप उसे हमें पढवायेंगे …सो उन्हें भी आश्वस्त किया और कम से कम हजार प्रतियाँ छपवाने का निर्णय लिया जिसमें से पाँच सौ प्रतियाँ अपने लिये सुरक्षित रखीं क्योंकि चाहने वालों की लिस्ट भी तो कम नहीं थी साथ ही समीक्षा के लिये भी तो कहीं सम्मान के लिये एक - एक जगह दस - दस प्रतियाँ भी भेजनी पडती हैं तो उसके लिये भी जरूरी था और लगा दी अपनी ज़िन्दगी की जमापूँजी पूरे विश्वास के साथ अपनी चिर अभिलाषा के पूर्ण होने के लिये……………
अपने आने वाले संग्रह का प्रचार - प्रसार हमने खुद ही इंटरनैट पर करना शुरु कर दिया ताकि आम जन - जन में , देश क्या विदेशों में भी सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे संग्रह का ही डंका बजे और सब तरफ़ से बधाइयोँ का ताँता लग गया ………शुभकामना संदेशों की बाढ आ गयी …………और हमारा मन मयूर बिन बादलों के भी नृत्य करने लगा ………एक पैर धरती पर तो दूसरा आकाश में विचरण करने लगा …………संग्रह के आने से पहले ही उसकी प्रसिद्धि ने हमारे हौसलों मे परवाज़ भर दी और हम स्वप्नलोक में विचरण करने लगे …………पुस्तक के छपने से पहले ही उसकी समीक्षायें छपवा दीं अपने जानकारों द्वारा ………यानि हर प्रचलित हथकंडा अपनाया ताकि कोई कमी ना रहे …………
और फिर आ गया वो शुभ दिन जिस दिन हमारे संग्रह का लोकार्पण होने वाला था …………बेहद उत्साहित हमारा ह्रदय तो जैसे कंठ में आकर रुक गया था , पाँव जमीन पर चलने से इंकार करने लगे थे मगर जैसे तैसे खुद को संयत किया आखिर ये मुकाम यूँ ही थोडे पाया था काफ़ी मेहनत की थी …………खुद को समझाया और चल दिये लोकार्पण हाल की तरफ़ …………खचाखच भीड से भरा हाल , कैमरे, विभिन्न मैगज़ीनों अखबारों के पत्रकार आदि , नामी गिरामी हस्तियाँ और उनके बीच खुद को बैठा देखना किसी स्वप्न के साकार होने से कम नहीं था …………और फिर वो क्षण आया जब हमारी पुस्तक का लोकार्पण हुआ और मुख्य अतिथि ने अपना वक्तव्य दिया …………बस वो क्षण जैसे हमारे लिये वहीं ठहर गया जैसे ही मुख्य अतिथि ने कहा यूँ तो इतने संग्रहों का विमोचन किया और पढे भी और उन पर अपना वक्तव्य भी दिया मगर ऐसा संग्रह हाथ से आज तक नहीं गुजरा …………ये सुनते ही हमारे अरमान थर्मामीटर मे पारे की तरह चढने लगे …………आगे उन्होने कहा …………आज़ इंटरनैट बाबा की कृपा से रोज नये - नये लिक्खाड खुद को साबित करने में जुटे हैं । यहाँ तक कि जैसा लिखने वाले हैं वैसे ही वाह वाही करने वाले हैं वहाँ जो हर लेखक को महान कवि साबित करने मे जुटे हैं । इस इंटरनैट क्रांति ने आज रचनाओं का परिदृश्य ही बदल दिया है , कोई भी ना तो मनोयोग से लिखता है और ना ही मनोयोग से कोई उसे पढता है , सब जल्दी में होते हैं कि इसे पढ लिया अब दूसरे को भी आभास करा दें हम तुम्हें पढते हैं ताकि वो भी आप तक पहुँचता रहे और आपका खुद को तसल्ली देने का कारोबार चलता रहे । जब ऐसा वातावरण होगा जहाँ रचनायें सिर्फ़ वक्ती जामा पहने चल रही हों तो कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वहाँ से कोई महान कवि या लेखक का जन्म होगा सिर्फ़ कुछ एक आध को छोडकर । कोई कोई ही पूरी लगन , मेहनत और निष्ठा से अपने कार्य को अंजाम देता है और प्रसिद्ध भी होता है …………उनका इतना कहना था और हमारा दिल तो बल्लियों उछलने लगा और लगा आज हमारे कार्य का सही मूल्यांकन हुआ है , अब हमें प्रसिद्ध होने से और किताब के बिकने से कोई नहीं रोक सकता क्योंकि जाने माने कवि , आलोचक जब हमारे बारे में ऐसा कहेंगे तो ये सर्वविदित है कि हर कोई उस संग्रह को अपनी शैल्फ़ में सहेजना चाहेगा ………हम अपने ख्यालों के भंवर में अभी डूब -उतर ही रहे थे कि उनकी अगली पंक्ति तो जैसे हम पर , हमारे ख्यालों पर ओलावृष्टि करती प्रतीत हुयी जैसे उन्होंने कहा कि बचकानी तुकबंदियाँ , बेतुकी कवितायें , बे -सिर पैर की रचनाओं से लबरेज़ ये संग्रह सहेजने तो क्या पढने के योग्य भी नहीं है …………हमारे तो पैरों तले जमीन ही खिसक गयी …………कहीं गलत तो नहीं सुन लिया , कहीं हम सपना तो नहीं देख रहे ये देखने को खुद को ही चिकोटी काटी तो अहसास हुआ नहीं हम ही हैं ये ……हमारी तो आशाओं और सपनों की लाश का ऐसा वीभत्स पोस्टमार्टम होगा हमने तो सपने में भी नहीं सोचा था ………तो क्या जो दाद हमें इंटरनैट महाराज की कृपा से मिला करती थी वो सब झूठी थी, जो दोस्त बन सराहते थे वो सब झूठे थे ……… सोचते - सोचते हम कब तक जमीन पर बैठे रहे पता ही नहीं चला ………वो तो भला हो वहाँ के सिक्योरिटी आफ़ीसर का जो उसने हमें हिला कर वस्तुस्थिति से अवगत कराया तो देखा पूरा हाल खाली था और हम अपने 1000 किताबों के संग्रह के साथ अकेले अपने हाल पर हँस रहे थे …………कल तक दूसरों की आलोचना करने वाला , प्रसिद्धि के लिये अनुचित हथकंडे अपनाने वाला आज जमीन पर भी पाँव रखने से डर रहा था , आज उसे अपनी वास्तविक स्थिति का बोध हुआ था और जो उसने दूसरों पर कीचड उछाली थी उसे खुद पर महसूस किया था ………………और सोच रहा था ………प्रसिद्धि का शार्टकट वाकई में शार्ट होता है ……………
लिखना वो भी निरन्तर उस पर उसकी साधना करना, अराधना करना मुझ जैसे निष्क्रिय के बस की बात तो नहीं जब सुबह एक बार तस्वीर के आगे नतमस्तक नहीं होता तो यहाँ इसकी अराधना कैसे की जाये और कौन इन पचडों मे पडे । ये तो गये ज़माने की बातें हैं और आज का वक्त तो वैसे भी इंटरनैट का वक्त है ………जहाँ जैसे ही कोई विचार उतरे चाहे उसमें तुक हो या नहीं सीधा चिपका दो दीवार पर और हो जाओ शुरु अपने मन की भडास निकालना …………अब इसमें कोई मोल थोडे लगता है सो हम भी इसी तरह कर लेते हैं एक दिन में ना जाने कितनी बार अराधना शब्दों की और खुद को साबित कर देते हैं महान लिक्खाड्……आज के वक्त में जो जितना ज्यादा बात करे, चाहे तीखी या मीठी वो ही प्रसिद्धि के सोपान चढता है और वहीँ सबसे ज्यादा चटखारे लेने वालों की भीड नज़र आती है ………बस इस बात को गिरह में बाँध हमने भी जोर -शोर से धावा बोल दिया और लगे बतियाने, ताज़ा -ताज़ा माल परोसने, कभी घर की तो कभी बाहर की बात , तो कभी देश और समाज पर अपने ज्ञान का परचम फ़हराते हम किसी के भी लेखन के बखिये उधेडने में बहुत ही जल्द परिपक्व हो गये …………आहा! क्या दुनिया है ……जब चाहे जिस पर चाहे अपनी भडास निकालो और अपनी पहचान बना लो क्योंकि सीधे रास्ते पर चलकर कितने मुकाम पाते हैं …………उन जैसों को तो कोई पूछता भी नहीं और यदि गलती से कोई पूछ भी ले तो सारे परिदृश्य पर असर पडता हो ऐसा भी नज़र नहीं आता तो सुगम , सरल , सहज रास्ता क्यों ना अपनाया जाये और प्रसिद्धि के मुकाम पर खुद को क्यों ना पहुँचाया जाये और उसका सबसे आसान रास्ता एक ही है …………आप चाहे कवि हों या कथाकार या लेखक आपको आलोचना करना आना चाहिये ………कोई चाँद को चाँद कहे तो भी आपमें उसके नज़रिये को बदलने का दमखम होना चाहिये………जहाँ से उसे चाँद में भी दाग साफ़ - साफ़ नज़र आ जाये और वो आपके लेखन का, आपकी आलोचना का कायल हो जाये और सफ़लता की सीढी का ये पहला कदम है बस इतना काफ़ी है और ये हमने बखूबी सीख लिया और चल पडे मंज़िल की ओर …………
अपनी धुन में हमने भी लिख मारी काफ़ी कवितायें, तुकबंदियाँ और आलेख …………आहा ! एक एक शब्द पर वाह- वाही के शब्दों ने तो जैसे हमारे मन की मुरादों में इज़ाफ़ा कर दिया । बडे - बडे कवियों , लेखकों से तुलना उत्साह का संचार करने लगी ……चाहे पुराने हों या समकालीन ………अब तो हमारा आकाश बहुत विस्तृत हो गया जहाँ हमें हमारे सिवा ना कोई दूसरा दिखता था ………समतुल्य तो दूर की बात थी …………अब जाकर सोचा हमने भी चलो अब छपना चाहिये क्योंकि अभी तक तो एक पहला पडाव ही तो पार किया था …………इंटरनैट महाराज की कृपा से ।
और करने लगे हम भी जुगाड किसी तरह छपने का और पुस्तक मेले में विमोचित होने का …………आहा ! कितना गौरान्वित करता वो क्षण होता होगा जब अपार जनसमूह के बीच खुद को खडे देखा जाये, सम्मानित होते देखा जाये …………बस इस आशा की किरण ने हमें प्रोत्साहित किया और हम चल पडे ………यूँ तो इंटरनैट महाराज की कृपा से काफ़ी प्रकाशन जानने लगे थे और छापते भी थे मगर अकेले अपना संग्रह छपवाना किसी उपलब्धि से कम थोडे था सो नामी- गिरामी प्रकाशनों से बात करके सबसे बडे प्रकाशन के द्वारा खुद को छपवाने का निर्णय किया और साथ ही प्रचार- प्रसार में भी कोई कमी नहीं होने देने का वचन लिया । दूसरी सबसे बडी बात इंटरनैट महाराज की कृपा से इतने लोग जानने लगे थे कि पुस्तक का हाथों - हाथ बिकना लाज़िमी था क्योंकि सभी आग्रह करते थे कि आपका अपना संग्रह कब निकलेगा ? कब आप उसे हमें पढवायेंगे …सो उन्हें भी आश्वस्त किया और कम से कम हजार प्रतियाँ छपवाने का निर्णय लिया जिसमें से पाँच सौ प्रतियाँ अपने लिये सुरक्षित रखीं क्योंकि चाहने वालों की लिस्ट भी तो कम नहीं थी साथ ही समीक्षा के लिये भी तो कहीं सम्मान के लिये एक - एक जगह दस - दस प्रतियाँ भी भेजनी पडती हैं तो उसके लिये भी जरूरी था और लगा दी अपनी ज़िन्दगी की जमापूँजी पूरे विश्वास के साथ अपनी चिर अभिलाषा के पूर्ण होने के लिये……………
अपने आने वाले संग्रह का प्रचार - प्रसार हमने खुद ही इंटरनैट पर करना शुरु कर दिया ताकि आम जन - जन में , देश क्या विदेशों में भी सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे संग्रह का ही डंका बजे और सब तरफ़ से बधाइयोँ का ताँता लग गया ………शुभकामना संदेशों की बाढ आ गयी …………और हमारा मन मयूर बिन बादलों के भी नृत्य करने लगा ………एक पैर धरती पर तो दूसरा आकाश में विचरण करने लगा …………संग्रह के आने से पहले ही उसकी प्रसिद्धि ने हमारे हौसलों मे परवाज़ भर दी और हम स्वप्नलोक में विचरण करने लगे …………पुस्तक के छपने से पहले ही उसकी समीक्षायें छपवा दीं अपने जानकारों द्वारा ………यानि हर प्रचलित हथकंडा अपनाया ताकि कोई कमी ना रहे …………
और फिर आ गया वो शुभ दिन जिस दिन हमारे संग्रह का लोकार्पण होने वाला था …………बेहद उत्साहित हमारा ह्रदय तो जैसे कंठ में आकर रुक गया था , पाँव जमीन पर चलने से इंकार करने लगे थे मगर जैसे तैसे खुद को संयत किया आखिर ये मुकाम यूँ ही थोडे पाया था काफ़ी मेहनत की थी …………खुद को समझाया और चल दिये लोकार्पण हाल की तरफ़ …………खचाखच भीड से भरा हाल , कैमरे, विभिन्न मैगज़ीनों अखबारों के पत्रकार आदि , नामी गिरामी हस्तियाँ और उनके बीच खुद को बैठा देखना किसी स्वप्न के साकार होने से कम नहीं था …………और फिर वो क्षण आया जब हमारी पुस्तक का लोकार्पण हुआ और मुख्य अतिथि ने अपना वक्तव्य दिया …………बस वो क्षण जैसे हमारे लिये वहीं ठहर गया जैसे ही मुख्य अतिथि ने कहा यूँ तो इतने संग्रहों का विमोचन किया और पढे भी और उन पर अपना वक्तव्य भी दिया मगर ऐसा संग्रह हाथ से आज तक नहीं गुजरा …………ये सुनते ही हमारे अरमान थर्मामीटर मे पारे की तरह चढने लगे …………आगे उन्होने कहा …………आज़ इंटरनैट बाबा की कृपा से रोज नये - नये लिक्खाड खुद को साबित करने में जुटे हैं । यहाँ तक कि जैसा लिखने वाले हैं वैसे ही वाह वाही करने वाले हैं वहाँ जो हर लेखक को महान कवि साबित करने मे जुटे हैं । इस इंटरनैट क्रांति ने आज रचनाओं का परिदृश्य ही बदल दिया है , कोई भी ना तो मनोयोग से लिखता है और ना ही मनोयोग से कोई उसे पढता है , सब जल्दी में होते हैं कि इसे पढ लिया अब दूसरे को भी आभास करा दें हम तुम्हें पढते हैं ताकि वो भी आप तक पहुँचता रहे और आपका खुद को तसल्ली देने का कारोबार चलता रहे । जब ऐसा वातावरण होगा जहाँ रचनायें सिर्फ़ वक्ती जामा पहने चल रही हों तो कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वहाँ से कोई महान कवि या लेखक का जन्म होगा सिर्फ़ कुछ एक आध को छोडकर । कोई कोई ही पूरी लगन , मेहनत और निष्ठा से अपने कार्य को अंजाम देता है और प्रसिद्ध भी होता है …………उनका इतना कहना था और हमारा दिल तो बल्लियों उछलने लगा और लगा आज हमारे कार्य का सही मूल्यांकन हुआ है , अब हमें प्रसिद्ध होने से और किताब के बिकने से कोई नहीं रोक सकता क्योंकि जाने माने कवि , आलोचक जब हमारे बारे में ऐसा कहेंगे तो ये सर्वविदित है कि हर कोई उस संग्रह को अपनी शैल्फ़ में सहेजना चाहेगा ………हम अपने ख्यालों के भंवर में अभी डूब -उतर ही रहे थे कि उनकी अगली पंक्ति तो जैसे हम पर , हमारे ख्यालों पर ओलावृष्टि करती प्रतीत हुयी जैसे उन्होंने कहा कि बचकानी तुकबंदियाँ , बेतुकी कवितायें , बे -सिर पैर की रचनाओं से लबरेज़ ये संग्रह सहेजने तो क्या पढने के योग्य भी नहीं है …………हमारे तो पैरों तले जमीन ही खिसक गयी …………कहीं गलत तो नहीं सुन लिया , कहीं हम सपना तो नहीं देख रहे ये देखने को खुद को ही चिकोटी काटी तो अहसास हुआ नहीं हम ही हैं ये ……हमारी तो आशाओं और सपनों की लाश का ऐसा वीभत्स पोस्टमार्टम होगा हमने तो सपने में भी नहीं सोचा था ………तो क्या जो दाद हमें इंटरनैट महाराज की कृपा से मिला करती थी वो सब झूठी थी, जो दोस्त बन सराहते थे वो सब झूठे थे ……… सोचते - सोचते हम कब तक जमीन पर बैठे रहे पता ही नहीं चला ………वो तो भला हो वहाँ के सिक्योरिटी आफ़ीसर का जो उसने हमें हिला कर वस्तुस्थिति से अवगत कराया तो देखा पूरा हाल खाली था और हम अपने 1000 किताबों के संग्रह के साथ अकेले अपने हाल पर हँस रहे थे …………कल तक दूसरों की आलोचना करने वाला , प्रसिद्धि के लिये अनुचित हथकंडे अपनाने वाला आज जमीन पर भी पाँव रखने से डर रहा था , आज उसे अपनी वास्तविक स्थिति का बोध हुआ था और जो उसने दूसरों पर कीचड उछाली थी उसे खुद पर महसूस किया था ………………और सोच रहा था ………प्रसिद्धि का शार्टकट वाकई में शार्ट होता है ……………
शुक्रवार, 25 जनवरी 2013
मैं लगा देती हूँ निर्वस्त्रता के सम्पुट जब भी
मैं लगा देती हूँ
निर्वस्त्रता के सम्पुट जब भी
नकाबों की होली जल जाती है
रामायण के सुर बदल जाते हैं
राम नाम धारियों की पेशानी पर
पौरुष के चिन्ह उभर जाते हैं
जो जब भी निर्वस्त्र हुए
तो आग की लपटों में घिरे
खौलता कोलतार ही बने
जो चलने वालों की चप्पल जूतों में चिपक तो जाते हैं
मगर खीज भी उत्पन्न कर देते हैं
मगर चलना मजबूरी होती है
इसलिए कुछ देर झेल लेते हैं
मगर जैसे ही राह की धूल से वास्ता पड़ता है
वो चिपका कोलतार अपना रंग खो देता है
और ध्यान भी वहाँ से हट जाता है
बस यही तो है तुम्हारा अस्तित्व
एक कोलतार से ज्यादा कुछ नहीं
बेशक सड़क बिछ जाती है
मगर फिर कहाँ कोलतार चिपकता है
शायद तभी ध्यान हट जाता है
ऐसे वजूदों से
और चल पड़ता है राही
फिर भी ना जाने क्यों
राम के नाम पर
तो कभी मजहब के नाम पर
तो कभी जूनून के नाम पर
तुम हमेशा सुलगते ही रहते हो
एक अंधे कुएं में
जिसका जिस्म तो होता ही नहीं
सिर्फ रक्त ,मांस , मज्जा का
सुलगता कोई शमशान ही प्रतीत होता है
जो जब भी निर्वस्त्र होता है
तो सतही आवरण ही नहीं
भीतरी ऊष्मा भी वस्त्रहीन हो जाती है
जो अकेली सिसकती दिखती है
किसी कोयले की खदान में खदकते कोयले सी
यूँ ही नहीं ज्वालामुखी बना करते
यूँ ही नहीं विस्फोट हुआ करते
यूँ ही नहीं आत्माएं मरा करतीं
जीवित होती है तो सिर्फ शमशान की कालिमा
शायद तभी
मैं लगा देती हूँ
निर्वस्त्रता के सम्पुट जब भी
नकाबों की होली जल जाती है
निर्वस्त्रता के सम्पुट जब भी
नकाबों की होली जल जाती है
रामायण के सुर बदल जाते हैं
राम नाम धारियों की पेशानी पर
पौरुष के चिन्ह उभर जाते हैं
जो जब भी निर्वस्त्र हुए
तो आग की लपटों में घिरे
खौलता कोलतार ही बने
जो चलने वालों की चप्पल जूतों में चिपक तो जाते हैं
मगर खीज भी उत्पन्न कर देते हैं
मगर चलना मजबूरी होती है
इसलिए कुछ देर झेल लेते हैं
मगर जैसे ही राह की धूल से वास्ता पड़ता है
वो चिपका कोलतार अपना रंग खो देता है
और ध्यान भी वहाँ से हट जाता है
बस यही तो है तुम्हारा अस्तित्व
एक कोलतार से ज्यादा कुछ नहीं
बेशक सड़क बिछ जाती है
मगर फिर कहाँ कोलतार चिपकता है
शायद तभी ध्यान हट जाता है
ऐसे वजूदों से
और चल पड़ता है राही
फिर भी ना जाने क्यों
राम के नाम पर
तो कभी मजहब के नाम पर
तो कभी जूनून के नाम पर
तुम हमेशा सुलगते ही रहते हो
एक अंधे कुएं में
जिसका जिस्म तो होता ही नहीं
सिर्फ रक्त ,मांस , मज्जा का
सुलगता कोई शमशान ही प्रतीत होता है
जो जब भी निर्वस्त्र होता है
तो सतही आवरण ही नहीं
भीतरी ऊष्मा भी वस्त्रहीन हो जाती है
जो अकेली सिसकती दिखती है
किसी कोयले की खदान में खदकते कोयले सी
यूँ ही नहीं ज्वालामुखी बना करते
यूँ ही नहीं विस्फोट हुआ करते
यूँ ही नहीं आत्माएं मरा करतीं
जीवित होती है तो सिर्फ शमशान की कालिमा
शायद तभी
मैं लगा देती हूँ
निर्वस्त्रता के सम्पुट जब भी
नकाबों की होली जल जाती है
सोमवार, 21 जनवरी 2013
नहीं है मेरी कविता का कैनवस इतना विशाल
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसमें सारे जहान का
दर्शन शास्त्र समा लूँ
कैसे सम्भोग से समाधि तक
पात्रों को ले जाऊँ
जहाँ विषमता का ज़हर
हर पात्र मे भरा है
कैसे प्रेम के अद्वैत को समझाऊँ
कैसे द्वैत को अद्वैत से
भिन्न दिखलाऊँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसमें सारी दुनिया की
फ़िलासफ़ी समा जाये
जहाँ जो नहीं है
उसको चित्रित कर दूँ
या फिर देखने वाले के
नज़रिये को ही बदल दूँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसे सिगरेट के धुँये
के छल्ले बना हवा में
उडा दिया जाये
और उसमें एक शख्स
उसकी वेदना
उसकी मौन अभिव्यक्ति को
व्यक्त किया जाये
चाहे वो उसकी
अभिव्यक्ति हो या नहीं
एक फ़िक्र की चादर को बुनकर
एक रिक्शाचालक के
या एक झोंपडी में रहने
वाले के दुख दर्द का
बयान कर खुद को
अग्रिम पंक्ति में
स्थापित करने का
नौस्टैलज़िया दिखा सकूँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसमें राजनीति के
समीकरणों को
दो दूनी आठ की
भाषा का केन्द्र बना लूँ
कुछ जोड - तोड की
नी्ति को अपना
अपने लिये एक
राजनीतिक मंच बना लूँ
और सराहना या पुरस्कारों
या सम्मानों का ढेर लगा लूँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसमें कहीं मोहब्बत के
तो कहीं नफ़रत के
तो कभी ख्वाबों के
शामियाने लगा लूँ
आखिर किस लिये ?
खुद को साबित करने के लिये
कब तक नकाब ओढे रखूँ
कब तक कविता की
सारी सीमायें तोडती रहूँ
हर वर्जना को
अस्वीकारती रहूँ
आखिर कब होगा अंत ?
आखिर कब होगा मुक्तिबोध ?
कविता का और खुद का
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसमे आकाशीय खगोलीय
ब्रह्मांडीय घटनाओं के
समावेश से पूर्णता मिल जाये
इतना आसान कहीं होता है
हर ब्लैक होल मे विचरण करना ?
ये ब्रह्मांड के अनन्त
अथाह परिवेश से गहरे
कविता के मर्म को जानना
क्या इतना आसान है
जो चंद लफ़्ज़ों का मोहताज़ हो
समीक्षक की दृष्टि भी तो
उसकी सीमाओं तक ही
सीमित है
मगर कविता असीम है
निस्सीम है
अनन्त है
एक छोर से अनन्त के
उस पार तक
जिस का सिरा
कोई नही पकड पाया
फिर कैसे बांधूँ
हर उपालम्भ को
कविता के दायरे में
जबकि जानती हूँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
कैनवस इतना विशाल
जिसमें सारे जहान का
दर्शन शास्त्र समा लूँ
कैसे सम्भोग से समाधि तक
पात्रों को ले जाऊँ
जहाँ विषमता का ज़हर
हर पात्र मे भरा है
कैसे प्रेम के अद्वैत को समझाऊँ
कैसे द्वैत को अद्वैत से
भिन्न दिखलाऊँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसमें सारी दुनिया की
फ़िलासफ़ी समा जाये
जहाँ जो नहीं है
उसको चित्रित कर दूँ
या फिर देखने वाले के
नज़रिये को ही बदल दूँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसे सिगरेट के धुँये
के छल्ले बना हवा में
उडा दिया जाये
और उसमें एक शख्स
उसकी वेदना
उसकी मौन अभिव्यक्ति को
व्यक्त किया जाये
चाहे वो उसकी
अभिव्यक्ति हो या नहीं
एक फ़िक्र की चादर को बुनकर
एक रिक्शाचालक के
या एक झोंपडी में रहने
वाले के दुख दर्द का
बयान कर खुद को
अग्रिम पंक्ति में
स्थापित करने का
नौस्टैलज़िया दिखा सकूँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसमें राजनीति के
समीकरणों को
दो दूनी आठ की
भाषा का केन्द्र बना लूँ
कुछ जोड - तोड की
नी्ति को अपना
अपने लिये एक
राजनीतिक मंच बना लूँ
और सराहना या पुरस्कारों
या सम्मानों का ढेर लगा लूँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसमें कहीं मोहब्बत के
तो कहीं नफ़रत के
तो कभी ख्वाबों के
शामियाने लगा लूँ
आखिर किस लिये ?
खुद को साबित करने के लिये
कब तक नकाब ओढे रखूँ
कब तक कविता की
सारी सीमायें तोडती रहूँ
हर वर्जना को
अस्वीकारती रहूँ
आखिर कब होगा अंत ?
आखिर कब होगा मुक्तिबोध ?
कविता का और खुद का
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
जिसमे आकाशीय खगोलीय
ब्रह्मांडीय घटनाओं के
समावेश से पूर्णता मिल जाये
इतना आसान कहीं होता है
हर ब्लैक होल मे विचरण करना ?
ये ब्रह्मांड के अनन्त
अथाह परिवेश से गहरे
कविता के मर्म को जानना
क्या इतना आसान है
जो चंद लफ़्ज़ों का मोहताज़ हो
समीक्षक की दृष्टि भी तो
उसकी सीमाओं तक ही
सीमित है
मगर कविता असीम है
निस्सीम है
अनन्त है
एक छोर से अनन्त के
उस पार तक
जिस का सिरा
कोई नही पकड पाया
फिर कैसे बांधूँ
हर उपालम्भ को
कविता के दायरे में
जबकि जानती हूँ
नहीं है मेरी कविता का
कैनवस इतना विशाल
शुक्रवार, 18 जनवरी 2013
स्त्री तो स्त्री होती है
स्त्री तो स्त्री होती है
फिर चाहे वो
पड़ोस की हो
पडोसी नगर की हो
या पडोसी मुल्क की
मिल जाता है तुम्हें लाइसेंस
उसके चरित्र के कपडे उतारने का
उसको शब्दों के माध्यम से बलात्कृत करने का
उसको दुश्चरित्र साबित करने का
फिर चाहे उम्र , ओहदे या चरित्र में
तुमसे कितनी ही ऊँची हो
और इस जद्दोजहद में तुम
दे जाते हो अपने चरित्र का प्रमाणपत्र
दे जाते हो तुम अपने संस्कारों का प्रमाणपत्र
कर जाते हो शर्मिंदा उस कोख को भी
जिसने तुम्हें जन्म दिया
मगर तुम्हारी जड़ सोच को जो न बदल सकी
माँ , बहन , बेटी बनकर भी ..........
मगर तुम्हें फर्क नहीं पड़ता
आदिम वर्ग के मनु
मानसिक विक्षिप्त हो
तुम , तुम्हारी सोच और तुम्हारी जाति भी
और अब मैं शतरुपा
प्रतिनिधित्व कर रही हूँ
स्त्री जाति का , उसके अस्तित्व का ,उसके सम्मान का बिगुल फ़ूँक कर ……
क्योंकि
जान गयी हूँ
तुम्हारे लिए
स्त्री तो सिर्फ स्त्री होती है
फिर चाहे वो
पड़ोस की हो
पडोसी नगर की हो
या पडोसी मुल्क की .............
फिर चाहे वो
पड़ोस की हो
पडोसी नगर की हो
या पडोसी मुल्क की
मिल जाता है तुम्हें लाइसेंस
उसके चरित्र के कपडे उतारने का
उसको शब्दों के माध्यम से बलात्कृत करने का
उसको दुश्चरित्र साबित करने का
फिर चाहे उम्र , ओहदे या चरित्र में
तुमसे कितनी ही ऊँची हो
और इस जद्दोजहद में तुम
दे जाते हो अपने चरित्र का प्रमाणपत्र
दे जाते हो तुम अपने संस्कारों का प्रमाणपत्र
कर जाते हो शर्मिंदा उस कोख को भी
जिसने तुम्हें जन्म दिया
मगर तुम्हारी जड़ सोच को जो न बदल सकी
माँ , बहन , बेटी बनकर भी ..........
मगर तुम्हें फर्क नहीं पड़ता
आदिम वर्ग के मनु
मानसिक विक्षिप्त हो
तुम , तुम्हारी सोच और तुम्हारी जाति भी
और अब मैं शतरुपा
प्रतिनिधित्व कर रही हूँ
स्त्री जाति का , उसके अस्तित्व का ,उसके सम्मान का बिगुल फ़ूँक कर ……
क्योंकि
जान गयी हूँ
तुम्हारे लिए
स्त्री तो सिर्फ स्त्री होती है
फिर चाहे वो
पड़ोस की हो
पडोसी नगर की हो
या पडोसी मुल्क की .............
सोमवार, 14 जनवरी 2013
जीने को मुझमें मेरा होना जरूरी तो नहीं
जीने को मुझमें
मेरा होना जरूरी तो नहीं
बस यही है नियति मेरी
कहना है उनका …………
जानने को मुझमें
मेरा कुछ बचा ही नहीं
सब जानते हैं मेरे बारे में
कहना है उनका ………
क्योंकि
स्त्री हूँ मैं
और स्त्री होना मापदंड है
उसके ना होने का
उसके खुद को ना जानने का
उसके खुद को प्रमाणित ना करने का
वरना उनकी पितृसत्तात्मक सत्ता के
कमज़ोर होने का खौफ़
कहीं उनके चेहरों पर ना उतर आये
और हो जायें उनके आदमकद अक्स वस्त्रहीन
बस सिर्फ़ इसलिये
कहीं मंत्र तंत्र
तो कहीं जादू टोना
तो कहीं डर
तो कहीं दहशत का साम्राज्य बोना ही
उनकी नियति बन गयी है
और कठपुतली की डोर
अपने हाथ मे पकडे
दिन में अट्टहास करते मुखौटे
सांझ ढले ही
रौद्र रूप धारण कर
शिकार पर निकल पडते हैं
फिर नही होती उनकी निगाह में
कोई माँ , बहन या बेटी
बस होती है देह एक स्त्री की
जहाँ निर्लज्जता , संवेदनहीनता और वीभत्सता का
पराकाष्ठा को पार करता
तांडव देख शिव भी शर्मिंदा हो जाते हैं
और कह उठते हैं
बस और नहीं
बस और नहीं
स्त्री ………तेरा ये रूप अब और नहीं
जान खुद को
पहचान खुद को
बन मील का पत्थर
दे एक मंज़िल स्वंय को
जहां फ़हरा सके झंडा तू भी अपने होने का
जहाँ कोई कह ना सके
सब जानते हैं तेरे बारे मे
तुझे अब अपने बारे मे जानने की जरूरत नहीं
या जहाँ कोई कह ना सके
तेरे होने के लिये
तेरा तुझमें होना जरूरी नहीं
बल्कि कहा जाये
हाँ तू है तो है ये सृष्टि
क्योंकि
तू है स्त्री ……………
और स्त्री होना अभिशाप नहीं ……………कर प्रमाणित अब !!!
मधेपुरा टुडे के इस लिंक पर छपी है ये कविता
http://www.madhepuratoday.com/2013/01/blog-post_12.html
गुरुवार, 10 जनवरी 2013
बदलना है इस बार नियति
भूतकाल का शोक
भविष्य का भय
और
वर्तमान का मोह
बस इसी में उलझे रहना ही
नियति बना ली
जब तक ना इससे बाहर आयेंगे
खुद को कहाँ पायेंगे?
और सोच लिया है मैंने इस बार
नही दूंगी खुद की आहुति
बदलना है इस बार नियति
भूतकाल से सीखना है
ना कि भय को हावी करना है
और उस सीख का वर्तमान में सदुपयोग करना है
जलानी है एक मशाल क्रांति की
अपने होने की
अपने स्वत्व के लिए एकीकृत करना होगा
मुझे स्वयं मुझमे खोया मेरा मैं
ताकि वर्तमान न हो शर्मिंदा भविष्य से
खींचनी है अब वो रूपरेखा मुझे
जिसके आइनों की तस्वीरें धुंधली न पड़ें
क्योंकि
स्व की आहुति देने का रिवाज़ बंद कर दिया है मैंने
गर हिम्मत हो तो आना मेरे यज्ञ में आहूत होने के लिए
वैसे भी अब यज्ञ की सम्पूर्णता पर ही
गिद्ध दृष्टि रखी है मैंने
क्योंकि
जरूरी नही हर बार अहिल्या या द्रौपदी सी छली जाऊं
और बेगुनाह होते हुए भी सजा पाऊँ
इस बार लौ सुलगा ली है मैंने
जो भेद चुकी है सातों चक्रों को मेरे
और निकल चुकी है ब्रह्माण्ड रोधन के लिए ................
भविष्य का भय
और
वर्तमान का मोह
बस इसी में उलझे रहना ही
नियति बना ली
जब तक ना इससे बाहर आयेंगे
खुद को कहाँ पायेंगे?
और सोच लिया है मैंने इस बार
नही दूंगी खुद की आहुति
बदलना है इस बार नियति
भूतकाल से सीखना है
ना कि भय को हावी करना है
और उस सीख का वर्तमान में सदुपयोग करना है
जलानी है एक मशाल क्रांति की
अपने होने की
अपने स्वत्व के लिए एकीकृत करना होगा
मुझे स्वयं मुझमे खोया मेरा मैं
ताकि वर्तमान न हो शर्मिंदा भविष्य से
खींचनी है अब वो रूपरेखा मुझे
जिसके आइनों की तस्वीरें धुंधली न पड़ें
क्योंकि
स्व की आहुति देने का रिवाज़ बंद कर दिया है मैंने
गर हिम्मत हो तो आना मेरे यज्ञ में आहूत होने के लिए
वैसे भी अब यज्ञ की सम्पूर्णता पर ही
गिद्ध दृष्टि रखी है मैंने
क्योंकि
जरूरी नही हर बार अहिल्या या द्रौपदी सी छली जाऊं
और बेगुनाह होते हुए भी सजा पाऊँ
इस बार लौ सुलगा ली है मैंने
जो भेद चुकी है सातों चक्रों को मेरे
और निकल चुकी है ब्रह्माण्ड रोधन के लिए ................
रविवार, 6 जनवरी 2013
जरूरी तो नहीं ना हर बार धरा ही अवशोषित हो
गहन अन्धकार में
भीषण चीत्कार
एक शोर
अन्तस की खामोशी का
दिमाग की नसों पर
पडता गहरा दबाव
समझने बूझने की शक्ति ने भी
जवाब दे दिया हो
और कहने को कुछ ना बचा हो
बस भयंकर नीरवता सांय - सांय कर रही हो
कितना मुश्किल होता है उस वक्त
एक तपते रेगिस्तान में
उम्मीद का दरिया बहाने का ख्वाब दिखाना
बस गुजर रहा है हर मंज़र आज इसी दौर से
देखें अब और कौन सा खंजर बचा है उस ओर से
यूं तो दफ़नायी गयी हूँ हर बार देह के पिंजर में
इस बार निकली हूँ आतिशी कफ़न ओढ कर
जलूँगी या जला दूँगी
दुनिया तुझे इस बार आग लगा दूँगी
जो आज है चिन्गारी
कल उसे ही ज्वालामुखी बना दूँगी
बस ना ले मेरे सब्र का और इम्तिहान
बस ना कर मेरे जिस्म से और खिलवाड
क्योंकि
पैमाना अब भर चुका है
हद पार कर चुका है
बस इक ज़रा सा हवा का झोंका ही
वज़ूद तेरा मिटा देगा
इस बार अपना वार चला देगा
गर चाहे बचना तो इतना करना
मुझे मेरे गौरान्वित वजूद के साथ जीने देना
एक आह्वान …………खुद का ……खुद से ……खुद के लिये ………जीने की जिजिविषा के साथ…………
क्योंकि सफ़ेद पड चुकी नस्ली रंगत बदलने के लिये
कुछ तो आवेश की लाली जरूरी होती है
और इस बार मैने चुरा लिया है लाल रंग थोडा सा दिनकर के ताप से
जरूरी तो नहीं ना हर बार धरा ही अवशोषित हो
वाष्पीकरण की प्रक्रिया में कुछ शोषण सागर का भी होना जरूरी है …………ज़िन्दगी के लिये
भीषण चीत्कार
एक शोर
अन्तस की खामोशी का
दिमाग की नसों पर
पडता गहरा दबाव
समझने बूझने की शक्ति ने भी
जवाब दे दिया हो
और कहने को कुछ ना बचा हो
बस भयंकर नीरवता सांय - सांय कर रही हो
कितना मुश्किल होता है उस वक्त
एक तपते रेगिस्तान में
उम्मीद का दरिया बहाने का ख्वाब दिखाना
बस गुजर रहा है हर मंज़र आज इसी दौर से
देखें अब और कौन सा खंजर बचा है उस ओर से
यूं तो दफ़नायी गयी हूँ हर बार देह के पिंजर में
इस बार निकली हूँ आतिशी कफ़न ओढ कर
जलूँगी या जला दूँगी
दुनिया तुझे इस बार आग लगा दूँगी
जो आज है चिन्गारी
कल उसे ही ज्वालामुखी बना दूँगी
बस ना ले मेरे सब्र का और इम्तिहान
बस ना कर मेरे जिस्म से और खिलवाड
क्योंकि
पैमाना अब भर चुका है
हद पार कर चुका है
बस इक ज़रा सा हवा का झोंका ही
वज़ूद तेरा मिटा देगा
इस बार अपना वार चला देगा
गर चाहे बचना तो इतना करना
मुझे मेरे गौरान्वित वजूद के साथ जीने देना
एक आह्वान …………खुद का ……खुद से ……खुद के लिये ………जीने की जिजिविषा के साथ…………
क्योंकि सफ़ेद पड चुकी नस्ली रंगत बदलने के लिये
कुछ तो आवेश की लाली जरूरी होती है
और इस बार मैने चुरा लिया है लाल रंग थोडा सा दिनकर के ताप से
जरूरी तो नहीं ना हर बार धरा ही अवशोषित हो
वाष्पीकरण की प्रक्रिया में कुछ शोषण सागर का भी होना जरूरी है …………ज़िन्दगी के लिये
शुक्रवार, 4 जनवरी 2013
गीता ………जो भाव बन उतर गयी
श्री मद भगवद गीता भाव पद्यानुवाद श्री कैलाश शर्मा जी द्वारा रचित काव्य संग्रह बेशक संग्रहणीय है। बेहद सरल भाषा में भावों को संजोना और कथ्य से भी कोई समझौता न करना एक बेहद दुष्कर कार्य है क्योंकि भावों में बहने के बाद कथ्य पर फर्क पड़ जाता है मगर जब प्रभु की असीम कृपा होती है और भक्त जब भावों के अथाह सागर में गोते लगाने लगता है और जब उसका अंतर्घट प्रेम रस से लबालब भर जाता है तो उसके जल का बरतना जरूरी हो जाता है क्योंकि अगर प्रयोग न किया जायेगा तो ख़राब हो जायेगा और यदि निरंतर प्रवाह बना रहेगा तो स्वच्छ बना रहेगा। नित नवीन बने रहने के लिए उसे सब में बाँटना पड़ता है और ये सब प्रभु प्रेरणा के बिना संभव ही नहीं . यूँ तो सभी दिन रात धार्मिक ग्रन्थ पढ़ते हैं , कथा कीर्तन सुनते हैं मगर सब में भावों का दरिया नहीं बहता . ये तो जो उस उच्च अवस्था को प्राप्त कर लेता है उसी की मूक वाणी में माँ सरस्वती का आह्वान होता है और जीव वो सब कहने में सक्षम हो जाता है जो वो स्वप्न में भी नहीं सोच सकता ........ये होता है भाव साम्राज्य .बस ऐसी ही परम कृपा जब कैलाश जी पर बरसी तो भावों ने पद्य रूप धारण कर लिया और सरल भाषा में गीता की कलि - कलि खोल दी .
यदि मनुष्य अपने जीवन में श्री मद भगवद गीता के उपदेश उतार कर जीना शुरू कर दे तो उसका जीवन गृहस्थ में रहकर भी सन्यासी का हो सकता है क्योंकि ये कर्मयोग है और इसमें शिक्षा कर्म की ही दी है क्योंकि इस पृथ्वी पर जो भी आया है उसे कर्म करना ही पड़ेगा वो उससे एक क्षण भी विमुख नहीं रह सकता फिर चाहे सन्यासी ही क्यों न हो तो जब कर्म करना ही है तो सन्यास की क्या जरूरत , गृहस्थ में रहकर अपने कर्तव्यों को निरंतर करते हुए सिर्फ इतना ही तो करना है कि जो भी कर्म करो उन्हें प्रभु को समर्पित करते चलो बस यही तो मुख्य गीता ज्ञान है जिसे कैलाश जी ने अपनी भाव शैली में इतनी सरलता से प्रस्तुत किया है जिसे यदि अल्पज्ञानी भी पढ़े तो समझ सके कि आखिर श्रीमद भगवद गीता कहना क्या चाहती है और यही किसी भी रचनाकार के लेखन का प्रमुख उद्देश्य होता है कि जो उसने कहा वो बिना किसी प्रयास के दूसरे के अंतस में उतर जाए जिसका उन्होंने बेहद कुशलता से निर्वाह किया है . ईश्वर की उन पर असीम अनुकम्पा है जो नित्य निरंतर बनी रहे इसी कामना के साथ कैलाश जी को हार्दिक बधाई देती हूँ .
जितना सुरुचिपूर्ण कैलाश जी का लेखन है उतना ही उम्दा प्रकाशन। हिन्द युग्म द्वारा प्रकाशित श्री मद भगवद गीता भाव पद्यानुवाद एक संग्रहनीय पुस्तक है . प्रिंटिंग और पेज बहुत बढ़िया क्वालिटी के प्रयोग किये गये हैं साफ़ और सुन्दर शब्द मन मोहते हैं साथ ही कोई व्याकरणीय त्रुटि न होने के कारण पुस्तक अपनी और आकर्षित करती है और ये किसी भी प्रकाशक के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण बात होती है .
यदि आप इस पुस्तक को प्राप्त करना चाहते हैं तो यहाँ से मंगा सकते हैं
हिन्द युग्म
1, ,जिया सराय , हौज़ खास, नयी दिल्ली ..........110016
मोबाइल : 9873734046, 9968955908
ईमेल : sampadak@hindyugm.com
ये कैलाश जी का ईमेल है :
kcsharma.sharma@gmail.com
मंगलवार, 1 जनवरी 2013
आज मैं फिर जी उठी हूँ
उम्मीदों की पुडिया
हर बार बाँधी मैंने
और रख दी आस की टोकरी में
ये सोच अब की बार जरूर
एक नया रंग भरेगी
मगर आस की टोकरी
हमेशा सूखती रही
और मुझमे एक चेतना का
संचार करती रही
और अब और नहीं , और नहीं
बहुत हुआ ख्वाबों के महल सजाना
अब मैंने हकीकत से है आँख मिलाना
बस जिस दिन ये प्रण लिया
मेरी उम्मीदों की बगिया का
हर फूल खिल उठा
जीवन का हर पल महक उठा
बस यही तो मैंने खुद से वादा किया
अब खुद लडूंगी अपनी लडाई
अपने वजूद का अहसास कराऊंगी
सबको ये बतलाऊंगी
हाँ , मैंने खुद को बदल लिया है
एक क्रांति का बीज खुद में बो दिया है
जहाँ न कोई नर मादा हुआ है
बस एक इंसानियत का तरु विकसित हुआ है
जिसकी शाखों पर विश्वास के फूल खिले हैं
जो इस वर्ष कैसे चहक उठे हैं
जिसका दिग्दर्शन उस पल हुआ है
जब बच्चे से लेकर हर बड़ा
मेरे संग खड़ा है और उसने माना है
हाँ .........मैं नारी हूँ बेशक
पर भोग्या नहीं ...............
बस इस वर्ष मैंने मुझे ये तोहफा दिया है
आज मैं फिर जी उठी हूँ
नारी हूँ, भोग्या नहीं ...........इस अद्भुत अहसास के साथ
ये रचना उस जज्बे को सलाम है जो आज नारी की अस्मिता के लिए लड़ रहे हैं
ये रचना उस जज्बे को सलाम है जो आज नारी की अस्मिता के लिए लड़ रहे हैं
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