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सोमवार, 22 अगस्त 2011

मेरे ह्रदय मे जनम तुम लो ना




आओ मोहना मनमोहना
मेरे ह्रदय मे जनम तुम लो ना-2-

श्याम सोहना बाँका मोहना
बाँकी छवि इक बार दिखलाओ ना-2-


मुरली बजाओ ना रास रचाओ ना
अपनी राधा मुझे भी बनाओ ना-2-


श्याम आओ ना प्रीत बढाओ ना
मेरा मनरूपी माखन चुराओ ना-2-


हाथ बढाओ ना गले लगाओ ना
प्यारे मुझको भी अपना बनाओ ना-2-


प्यास बुझाओ ना तृष्णा मिटाओ ना
मेरी प्रीत को सफ़ल बनाओ ना-2-

शनिवार, 20 अगस्त 2011

शायद रिश्ते बोने की आदत पड़ चुकी है

मुसाफिर मिलते रहे
कारवां बनता रहा
हर मोड़ पर
एक नया मुसाफिर मिला
जिसने एक नया
रिश्ते का पौधा लगाया
उसे मैंने दिल की
धडकनों से सींचा
दिल के साथ साथ
रिश्ता पनपता रहा


जो कहता था
जी नहीं सकूँगा तुम बिन
वो रिश्ता मुँह मोड़ कर
कब चला जाता
पता भी ना चलता
और मैं पगली
उस रिश्ते को तब भी
अपनी धड़कन समझती
उसे दिल से लगाकर रखती
ये सोच शायद कभी तो
रिश्ता लौटेगा अपने दरख़्त पर
और खुद को भरमा देती

 हर बार दिल को यही
तसल्ली देती -------नहीं
इस बार ऐसा नहीं होगा
इस बार ऐसा नहीं होगा


हर बार ठोकर खाती
खुद को संभालती
और चलने लगती
एक नए पौधे को रोंपने के लिए
फिर एक ज़ख्म खाने के लिए
एक बार फिर किस्मत से लड़ने के लिए
खुद को परखने के लिए
खुद को जानने के लिए
आखिर किस चीज का बना है ये दिल
जो कभी टूटता ही नहीं
किसी को बद्दुआ देता ही नहीं
शायद रिश्ते बोने की आदत पड़ चुकी है



मंगलवार, 16 अगस्त 2011

कांग्रेस सत्ता छोडो लोकतंत्र का गला ना घोंटो

कहाँ है लोकतंत्र?
क्या ऐसा होता है लोकतंत्र?
क्यों खुद को भरमा रहे हो
अब आगे आना होगा
सरकार को दिखाना होगा
अपने वर्चस्व के लिये लडना होगा
देखते जाओ अब ये चिंगारी क्रांति बन भडकेगी
सरकार के हर भ्रष्टाचारी को जकडेगी
अब मशाल जला लेना
मगर ना इसे बुझने देना
एक अन्ना पकडा जाये चाहे
तुम 121 करोड अन्ना पैदा कर देना
मगर अब ना इसे बुझने देना
सरकार को बता देना
लोकतंत्र की परिभाषा सिखा देना
मगर इस बार ना तुम चुप होना
इंकलाब लाकर रहना
ये देश तुम्हारा है
सरकार को बता देना
उसे भी आईना दिखा देना
अब ना लूट खसोट चलेगी
पाप का घडा फ़ूट कर रहेगा
जनता का ही राज रहेगा
ये हमे दिखलाना है
मुट्ठी की ताकत बतलाना है
जो चिंगारी जलाई आज
मगर अब ना इसे बुझने देना
अब सिर्फ़ यही कहना

भ्रष्ट सरकार से नाता तोडो
देश को एकसूत्र मे जोडो
कांग्रेस सत्ता छोडो
लोकतंत्र का गला ना घोंटो

शनिवार, 13 अगस्त 2011

सुना है आज रक्षाबंधन है

सुना है आज
रक्षाबंधन है
एक धागे में सिमटा
भाई बहन के प्यार का बँधन
जो धागे का मोहताज नहीं होता
सिर्फ स्नेह की तार में लिपटा
एक अनोखा बँधन
मगर पता नहीं
यहाँ तो कोई ख्याल उपजता ही नहीं
कभी किसी ने मरुभूमि को सींचा ही नहीं
जाना ही नहीं बदलियाँ कैसे बरसती हैं
मेह में मरुभूमि कैसे भीगती है
कभी कोई बदली छाई ही नहीं
कभी सावन की रुत यहाँ आई ही नहीं
नहीं जाना कभी कैसे मन पंछी
दिनों पहले उड़ने लगता है
नहीं जाना कैसे द्रौपदी के चीर का ऋण
कृष्ण उतारा करते हैं
 शायद कुछ कलाईयों को
धागे नहीं मिला करते
या कुछ धागों को कलाइयाँ
कुछ अहसास हमेशा बंजर ही रहते हैं
कुछ आंगनो से बादल भी कतरा के निकल जाते है
या शायद मरुभूमि में कैक्टस ही उगा करते हैं

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

अब ऐसा देश है मेरा



'मैंने उसे देखा
...लैपटाप लिए
चैट करते .......''
अब भिखारी भी
चैट करते हैं
पेट की आग से
नही जलते हैं
बस चैटिंग को
तरसते हैं
आम इंसान से ज्यादा
ये कमाई करते हैं
गये वो ज़माने जब
कोई तोडती पत्थर थी
खून को पसीने मे
बहाती थी
आज एयर कंडीशन
गलियारों मे
भिखारी भी बसते हैं
देखो कैसा बदला
देश है मेरा
जिसने बदला
वेश है सारा
भिखारी भी
हाइ-टैक हो गये हैं
टैक्नोलोजी की कीमत
समझ गये हैं
अब ऐसा देश है मेरा
आगे बढता देश है मेरा




दोस्तों
मुझे ये फ़ोटो फ़ेसबुक पर मेरे दोस्त आशुतोष ने भेजी और कहा कुछ 
लिखो इस पर तो जो भाव इसे देखकर आये आपके सम्मुख हैं।

सोमवार, 8 अगस्त 2011

जो रह गया था अधूरा

जो रह गया था अधूरा 
आज हो गया पूरा
साफ़ आवाज़ मे 
एक बार फिर सुनिये
सार्थक बातचीत
इस लिंक पर 


 

गुरुवार, 4 अगस्त 2011

आसान नही होता

कभी देखा है
कहीं भी
भोर को ठिठकते हुये
या सांझ को रुकते हुये
अनवरत चलते रहना
बिना विश्राम किये
सफ़र तय करना
आसान नही होता
एक तय समय सीमा मे बंधना
जीवन चक्र को
निरन्तरता प्रदान करना
आसान नही होता
हर चाहत को
निशा की स्याह चादर मे
दफ़न करना
और फिर भोर मे
अपने अश्रु कणों को
ओस मे परिवर्तित देखना
आसान नही होता
यूं ही दिनो को महीनो मे
महीनो को सालो मे
और सालो को युगो मे
बदलते देखना
मगर अंतहीन सफ़र
तय करते जाना
आसान नही होता
नही पता क्या
एक लक्ष्यहीन सफ़र के
नसीब मे मंज़िलें नही होतीं
सिर्फ़ मरुस्थल की
मृगमरिचिका होती है

रविवार, 31 जुलाई 2011

बहारें यूँ ही नहीं आती हैं ...................

ये हरी - भरी धरा और
ये  नीला - नीला आकाश
उल्लसित प्रफुल्लित कर गया
जीने की एक हसरत दे गया
आस का एक बीज बो गया
बादल आयेंगे और बरसेंगे भी
यूँ ही धरा ने नहीं ओढ़ी धानी चादर
यूँ ही नहीं मयूर ने पंख फैलाये हैं
यूँ नहीं हर आँगन चहचहाये हैं
कोई तो कारण होगा
शायद प्रिया का पिया से मिलन होगा
शायद कहीं कोई कली चटकी होगी
शायद कहीं कोई ड़ाल झुकी होगी
शायद कहीं कोई रस बरसा होगा
शायद कहीं कोई प्रेम धुन बजी होगी
शायद कहीं कोई प्रेमराग गाया होगा
शायद कहीं कोई नव निर्माण हुआ होगा
यूँ ही धरा नहीं बदलती श्रृंगार अपना
यूँ ही धरा पर नहीं आता यौवन पूरा
यूँ ही धरा नहीं बनती दुल्हन फिर से
यूँ ही धरा नहीं करती आत्मसमर्पण अपना
जरूर कहीं सावन बरसा है
जरूर कहीं कोई मन तडपा है
जरूर कहीं कोई बिछड़ा
फिर से मिला है
मेघ यूँ ही नहीं छाते हैं
बहारें यूँ  ही नहीं आती हैं
बहारें यूँ ही नहीं आती हैं ...................

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

मेरी मासूमियत को यूं ही कायम रख सकोगे


मै तो हूँ इक बच्चा
भोला भाला
आया हूँ तुम्हारी दुनिया मे
अब तुम पर है ये
मुझे क्या बनाओगे
...मेरी मासूमियत को
यूं ही कायम रख सकोगे
या मुझमे से मुझे खो दोगे
अब तुम पर है ये
इंसान बनाओगे या शैतान
फ़ूल बनाओगे या कांटा
दिन बनाओगे या रात
अंधेरा बनाओगे या उजाला
देखो जो भी बनाना
मगर फिर ना शिकायत करना
क्योंकि मै तो वो माटी हूँ
जिसे जिस सांचे मे ढालोगे
उसी मे ढल जाऊँगा
और वैसा ही आकार पा जाऊँगा
तो सोचना इस बार
किसे बरकरार रखना चाहोगे
किसी शैतानी साये को
मुझमे रहते एक इंसान को
एक गुदगुदाते ख्वाब को
या खुदा सी मासूम निश्छल मुस्कान को

सोमवार, 25 जुलाई 2011

"ये मेरे साथ ही क्यों होता है ?"

ओबीओ पर "चित्र से काव्य तक" प्रतियोगिता मे दूसरा स्थान प्राप्त कविता
इस चित्र के माध्यम से किसान के 
जीवन पर लिखना था
इस लिंक पर जाकर देखा जा सकता है 

http://www.openbooksonline.com/group/pop/forum/topic/show?id=5170231%3ATopic%3A111893&xgs=1&xg_source=msg_share_topic






बोये थे मैंने कुछ पंख उड़ानों के
कुछ आशाओं के पानी से
सींचा था हर बीज को
शायद खुशियों की फसल लहलहाए इस बार
पता नहीं कैसे किस्मत को खबर लग गयी
ओलों की मार ने चौपट कर दिया
सपनो की ख्वाहिशों का आशियाना
फिर किस्मत से लड़ने लगा
उसे मनाने के प्रयत्न करने लगा
झाड़ फूंक भी करवा लिया
टोने टोटके भी कर लिए
कुछ क़र्ज़ का सिन्दूर भी माथे पर लगा लिया
और अगली बार फिर नए
उत्साह के साथ एक नया सपना बुना
इस बार खेत में मुन्नू के जूते बोये
मुनिया की किताबें बो दिन
और रामवती के लिए एक साड़ी बो दी
एक बैल खरीदने का सपना बो दिया
और क़र्ज़ को चुकाने की कीमत बो दी
और लहू से अपने फिर सींच दिया
मगर ये क्या ...........इस बार भी
जाने कैसे किस्मत को खबर लग गयी
बाढ़ की भयावह त्रासदी में
सारी उम्मीदों की फसल बह गयी
मैं फिर खाली हाथ रह गया
कभी आसमाँ को देखता
तो कभी ज़मीन को निहारता
और खुद से इक सवाल करता
"ये मेरे साथ ही क्यों होता है ?"

इक दिन सुना
रामखिलावन ने परिवार सहित कूच कर लिया
क्या करता बेचारा
कहाँ से और कैसे
परिवार का पेट भरता
जब फाकों पर दिन गुजरते हों
फिर भी ना दिल बदलते हों
और कहीं ना कोई सुनवाई हो
उम्मीद की लौ भी ना जगमगाई हो
कैसे दिल पर पत्थर रखा होगा
जिन्हें खुद पैदा किया
पाला पोसा बड़ा किया
आज अपने हाथों ही उन्हें मुक्ति दी होगी
वो तो मरने से पहले ही
ना जाने कितनी मौत मरा होगा
उसका वो दर्द देख
आसमाँ भी ना डर गया होगा
पर कुछ लोगों पर ना कोई असर हुआ होगा
बेचारा शायद मर के ज़िन्दगी से मिला होगा
मेहनत तो किसान कर सकता है
मगर कब तक कोई भाग्य से लड सकता है


रामखिलावन का हश्र देख
अब ना शिकायत करता हूँ
और रोज तिल तिल कर मरा करता हूँ
जाने कब मुझे भी.................?
हाँ , शायद एक दिन हश्र यही होना है

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

सबकी विदाई के मंज़र हसीन नही होते

सुनो
कहाँ हो?
ये कैसे पल है?
ये कैसी उदासी है
देखो ना
जी नही पा रही
कभी कभी
चाह होती है ना
आम का बौर
मेरे आँगन मे भी खिले
कभी कभी
चाह होती है ना
कोई अहसास
सांस बनकर
मेरी रूह मे भी उतरे
कभी कभी
चाह होती है ना
कोई अपने
होठों की हंसी
मेरे लबों पर भी सजा दे
कभी कभी
चाह होती है ना
कोई मेरी दबी
ढकी इच्छाओं को
आसमान पर लगा दे
और मुझे भी
जीने की वजह दे दे
देखो ना
कितनी टूट रही हूँ
किरच किरच होने से पहले
एक बार आ जाओ
और मेरी तड्पती
तरसती बेचैन रूह को
करार दे जाओ
एक आखिरी अहसान ही कर जाओ
मगर तुम एक बार
आ जाओ ना

देख ना
आँख से आंसू भी
नही ढलक रहे
और हम रो भी रहे हैं
आ जा ना एक बार
इन आंसुओं को पोंछने
जो बहकर भी नही बह रहे

देखो
इतनी शिद्दत से तो कभी
आवाज़ नही दी थी ना
तुम जानते हो
कोई तो कारण होगा ना
शायद रूह आखिरी
सांस ले रही हो
शायद उम्र की आखिरी
जुम्बिश हो और
सांस की डोर
छूट रही हो
वो वक्त आने से पहले
रूह के साज़ पर
एक तराना गुनगुना जाओ
और मुझे कुछ पल के लिये ही सही
एक ज़िन्दगी दे जाओ
जानते हो ना
सबकी विदाई के मंज़र हसीन नही होते

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

शुक्रगुज़ार

ब्लोगजगत के सभी दोस्तों की हार्दिक शुक्रगुज़ार हूँ जिन्होने मुझे अपने स्नेह से अभिभूत किया और सही मार्गदर्शन दिया। आप सबकी बातों को स्वीकार करती हूँ और कोशिश करूँगी कि मेरी तरफ़ से आप सबको कोई तकलीफ़ ना हो।
हार्दिक आभार्।

बुधवार, 20 जुलाई 2011

चलिए आपसे मिली आखिरी सौगात उम्र भर याद रहेगी .

दोस्तों
समझ नहीं आता दुनिया कैसी है ? क्या सही बात का जवाब देना हंगामा कहलाता है ? कोई हमसे कुछ पूछे और हम यदि उसकी बात का जवाब दे दें तो क्या वो गलत बात है ? और खास कर जब आपको सब जानते हों और सब आपसे कुछ कह रहे हों तो क्या उनकी बात का जवाब ना देकर चुप रहना गलत नहीं होगा? क्या ये उन सबके प्रति अन्याय नहीं जिन्होंने आपको इतना चाहा हो, इतना मान दिया हो इतना स्नेह दिया हो ...........क्या उन सबके किसी प्रश्न का जवाब देना गुनाह है ..........उसे हंगामा कह देना कहाँ तक उचित है ? उसी में यदि कोई किसी बात का इशु बना रहा हो तो उसे भी सही ढंग से बात कह देना क्या गलत है क्योंकि इसी तरह गलतफहमियां पैदा होती हैं कुछ लोग दो लोगों के बीच इसी तरह गलतफहमियां पैदा कर देते हैं और यदि उस बात का जवाब दे दिया तो क्या गुनाह किया?
आप सब जानते हैं काफी वक्त से मैं चर्चामंच से जुडी रही . अब पिछले कुछ वक्त से मुझे लग रहा था कि मैं अब ढंग से चर्चा नहीं कर पाऊँगी तो इस बात का संकेत कई महीनों पहले से शास्त्री जी को देने लगी थी तो उनका कहना था कोई नहीं जब तक कर सकती हो करती रहो.............अब पिछली चर्चा सोमवार १८ जुलाई को लगायी जिसमे मैंने अपने जाने के संकेत सभी पाठकों को दे दिया ताकि कल को सब ये ना कहें कि आपने मेरी पोस्ट नहीं ली चर्चा मंच पर क्योंकि काफी पाठक कहते हैं इसलिए सूचित करने में क्या बुराई है ये सोच सबको लिख दिया जो शास्त्री जी को पसंद नहीं आया जब मैंने उन्हें चैट पर सूचित किया तो कहने लगे वहाँ क्यूँ लिखा तो मैंने यही बात कही तो कहने लगे इसलिए मैंने आपकी पोस्ट का शीर्षक नहीं बदला.........चलो कोई बात नहीं उसके बाद मैंने जब सभी पाठकों के कमेंट्स पढ़े तो उनमे से कुछ पाठकों ने तो मेरे पास भी अलग से भेजे और कुछ वहीँ देखे कि आप मत जाइये या आप पुनर्विचार करिए तब मैंने सोचा कि मुझे अपने जाने के कारणों को सबको बता देना चाहिए उन्हीं में एक कमेन्ट रविकर जी नए चर्चाकर हैं उनका था जिन्होंने मेरी एक पोस्ट निर्मल हास्य का जिक्र करके मेरे जाने को उससे जोड़ना चाहा अब तो जवाब देना बहुत जरूरी बन गया था कि कहीं इस वजह से गलतफहमियां ना हो जायें क्यूँकि मेरे और शास्त्री जी के बीच ऐसी कोई बात थी ही नहीं और इस तरह की बात तो विवाद को जन्म दे सकती थी या ग़लतफ़हमी कर सकती थी जिसका जवाब मैंने  सिर्फ उन्ही लोगों को दिया जिन्होंने मुझे रुकने के लिए कहा था ना कि हर टिप्पणीकर्ता को जो इस प्रकार था...........
दोस्तों

सबसे पहले तो मै सबको ये बताना चाहती हूँ कि आजकल मेरी व्यस्तता कुछ ज्यादा बढ गयी है जिस वजह से मै कोई काम सही ढंग से नही कर पा रही हूं जिस वजह से मैने ये निर्णय लिया है इसमे कोई ऐसी वैसी बात नही है क्योंकि मैने एक नयी श्रंखला शुरु की है एक प्रयास पर जिसके लिये मुझे काफ़ी वक्त चाहिये होता है उसे ऐसे ही तो नही लिखा जा सकता और इसका संकेत तो मै शास्त्री जी को काफ़ी वक्त से दे रही थी कि मै अब ज्यादा वक्त नही दे पाऊँगी ये सब कोई अचानक नही हुआ है और दूसरी बात अगले छह महीनो तक मेरा कथाओ मे जाना लगातार होना हैजिस वजह से भी मुझे बहुत मुश्किल होगी इसी कारण मैने ये निर्णय लिया है………जहाँ तक रविकर जी आप उस हास्य कविता की बात कर रहे हैं तो वो सिर्फ़ एक निर्मल हास्य ही है उसका इससे कोई लेना देना नही है क्योंकि शास्त्री जी तो खुद सक्रिय रहे हैं हमेशा तो उनके लिये क्यों कहा जायेगा…………हास्य को आप इस दृष्टि से देखकर सबके दिलो मे गलत संदेश दे रहे है जो गलत बात है………सब यही सोचेंगे कि मेरे और शास्त्री जी के बीच कोई अनबन हो गयी है जबकि हमारे बीच ऐसी कोई बात नही है सबकी अपनी मजबूरीयां होती हैं अगर शास्त्री जी चाहेंगे तो जब मै इन सबसे फ़्री हो जाऊँगी तो दोबारा भी सक्रिय होने का प्रयत्न करूँगी।
ये जानकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई कि मुझे मेरे पाठक दोस्त कितना चाहते हैं उन सबकी मै तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ।
 
अब बताइए इसमें मैंने ऐसी कौन सी बात कह दी जिससे हंगामा होने की वजह बन सकती थी?
क्या रविकर जी को इस बात को इस तरह कहना चाहिए था.........यूँ तो शास्त्री जी ने मेरी १८ जुलाई वाली पोस्ट अपने चर्चामंच से हटा दी है मगर मैंने अपने trash बॉक्स में से रविकर जी की वो टिप्पणी  निकाली है ताकि सच सबको पता चल सके जो इस प्रकार थी -----------

रविकर has left a new comment on your post "हो सकता है विदाई का वक्त आ रहा हो ……चर्चा मंच":

हो सकता है विदाई का वक्त आ रहा हो ||

शीर्षक कुछ समझ नहीं आया बन्दना जी |
क्या कोई संकेत दिख रहा है ??
हो सकता है ----
इस हो सकता है को कौन सुनिश्चित करता है ?
कृपया हमें भी संकेत समझने का संकेत देकर उपकृत करें || सादर ||


हाँ याद आया--
शुक्रवार ८ जुलाई को आप ने निर्मल हास्य प्रस्तुत किया था |
क्या यह संकेत तभी प्राप्त हो गया था |

मुझे इसलिए याद है --
क्योंकि मैंने भी टिप्पणी लिखी थी ||
नया हूँ कृपया मार्ग-दर्शन करें ||

ब्लॉगर ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने कहा…

आद. वंदना जी,
चर्चाकार की व्यथा बयान करती निर्मल हास्य की कविता बहुत अच्छी लगी ,शायद इसलिए भी कि इसमें सच्चाई की खुशबू भी समाहित है !
आभार !

८ जुलाई २०११ १०:०० पूर्वाह्न
ब्लॉगर रविकर ने कहा…

आपका हार्दिक अभिनन्दन ||

आभार ||

८ जुलाई २०११ १०:२७ पूर्वाह्न
हटाएं
ब्लॉगर Dr Varsha Singh ने कहा…

हर कोई तुझे सिर्फ
चर्चाकार ही बुलाएगा
और तू अपना असली नाम भूल जायेगा
पर व्यवस्थापक तो मौज उडाएगा
सबसे बढ़िया जुगाड़ है ये
सबको काम पर लगा देना
और खुद नाम कमा लेना


बहुत खूब...
करारा कटाक्ष....

८ जुलाई २०११ १०:४६ पूर्वाह्न
ब्लॉगर यशवन्त माथुर (Yashwant Mathur) ने कहा…

आपकी एक पोस्ट की हलचल आज यहाँ भी है

८ जुलाई २०११ १०:४९ पूर्वाह्न
ब्लॉगर संतोष कुमार ने कहा…

vandana ji bilkul sahi kaha hai.

Aabhaar !!

८ जुलाई २०११ ११:३२ पूर्वाह्न
ब्लॉगर यादें ने कहा…

मिठाई में लपेटी,कड़वी सच्चाई .
वन्दना जी ,बधाई हो बधाई ||
शुभकामनायें !



Posted by रविकर to चर्चा मंच at July 18, 2011 4:39 PM

अब निर्मल हास्य को कोई इस तरह घसिटेगा ये तो मैं सोच भी नहीं सकती थी और उन्होंने आज हमारे बीच ग़लतफ़हमी कर दी मगर
मेरे दिल में ऐसी कोई बात नहीं थी तो मैंने सिर्फ सही बात कहकर बात ख़तम कर दी मगर मुझे अब लगता है कि शायद ग़लतफ़हमी तो पैदा कर दी गयी है शास्त्री जी के मन में ...........क्यूँकि उनका एक मेल मुझे मिला जिसमे उन्होंने मुझे इस तरह धमकाया है जैसे मैंने कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो सच कहकर...........जो उन्होंने मुझे भेजा है वो इस प्रकार है.............


वन्दना जी!
जाने वाले ढंढोरा पीट कर नहीं जाते!
आप इस तरह से मेल क्यों भेज रहीं हैं?
इससे आपका अभिप्राय क्या है?
आप चर्चा मंच पर चर्चाकार के रूप में आयी आपका आभार!
मगर चली गईं हैं तो इतने हंगामें की क्या जरूरत है?
आखिर आप इस तरह से क्या साबित करना चाहती है ?
क्या आपके बिना चर्चा मंच बन्द हो जाएगा या आप जब यहाँ नहीं थी तो क्या चर्चा मंच पर पोस्ट नहीं लगती थी?
शुभकामनाएँ!

--
डॉ. रूपचंद्र शास्त्री "मयंक"
टनकपुर रोड, खटीमा,
ऊधमसिंहनगर, उत्तराखंड, भारत - 262308.
Phone/Fax: 05943-250207, Mobiles: 09368499921, 09997996437
Website - http://uchcharan.blogspot.com/

आज ये पढ़कर इतना दुःख हुआ कि पूछिये मत ..........आँख में आँसू आ गए कि सही बात को लोग किस दृष्टि से देखते हैं ..........मुझे भी पता है कि ना मेरे आने से या जाने से कहीं कोई फर्क नहीं पड़ने वाला..........ये तो शास्त्री जी एक छोटी सी जगह है मगर ये दुनिया इतनी बड़ी है जब इसे मेरे रहने ना रहने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला तो चर्चामंच के बारे में मैं ऐसा क्यूँ सोचूंगी? आपको इतना बुरा लगा कि आपने ऐसा सोच लिया और मेरी वो पोस्ट भी अपने मंच से हटा दी इसका क्या मतलब निकलता है? आप ही बता दें ? हाँ , आपके इस व्यवहार से मेरा दिल जरूर टूटा है क्यूँकि मैंने जब तक चर्चामंच लगाया दिलोजान से लगाया चाहे कितनी भी मजबूरी रही मगर काम किया ये सोच कर कि एक जिम्मेदारी है हमारी और आज भी ये जिम्मेदारी सही ढंग से नहीं निभा पाऊँगी यही सोचकर मना किया मगर रविकर जी ने जिस तरह बात बनाई और उसका आपने क्या अर्थ निकाला ये आप जाने मगर आपने उन्हें कुछ नहीं कहा बल्कि मुझमे ही दोष दिखा दिया............चलिए ये भी सीख लिया कि कैसे यहाँ की दुनिया में जीना है...............

आपने तो आज के चर्चामंच पर भी हमें ही कसूरवार ठहरा दिया ये कहकर की 

मुझे गर्व है कि आज हमारे पास ऐसा एक भी चर्चाकार नहीं है जो आपसे यह कहे कि आप चर्चा मंच पर आयें और ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ!
हाँ इतना जरूर है कि यदि किसी के ब्लॉग की चर्चा इस चर्चा पत्रिका में की जाती है तो यदि चर्चाकार चाहे तो वह सूचित कर सकता है कि आपके ब्लॉग की पोस्ट का लिंक हमने चर्चा मंच पर लगाया है। मगर यह बाध्यता नहीं होनी चाहिए कि लोग आयें और अपने सुझावों से हमें अवगत कराएँ या हमारा हौसला बढ़ाएँ!



अगर सबको सूचित करना बुरा था तो आप हमें पहले ही हटा देते तो ज्यादा अच्छा था मगर आज तो आपने बता दिया कि आपके दिल में हमारे लिए कितनी जगह रह गयी है मुझे तो काफी लोग कहा करते थे कि चर्चा में ऐसा नया करो वैसा करो मगर मैं कह देती थी कि शास्त्री जी का ब्लॉग है उनसे कहिये यदि वो कहेंगे तो कर दूंगी मगर आपको तो हमारा इस तरह सबसे कहना भी बुरा लगा जानकर आज दिल हद से ज्यादा दुखा है
चलिए आपसे मिली आखिरी सौगात उम्र भर याद रहेगी .

आज बस दिल इस ब्लॉगजगत से इतना दुखा है जितना पहले कभी नहीं दुखा कम से कम शास्त्री जी जैसे इन्सान से मुझे ये उम्मीद नहीं थी कि वो मुझसे ही इस तरह का व्यवहार करेंगे जिनके लिए मेरे दिल में इतना मान सम्मान है ........अगर सरल मन से सच कह देना गुनाह है तो हाँ मैंने गुनाह किया है ...............और अब यहाँ के किसी भी ब्लॉग से जुड़ने का मन ख़त्म हो गया है इसलिए यशवंत जी से अनुरोध है कम से कम वो तो मुझे अपनी हलचल से विदा दें क्यूँकि मैं इससे ज्यादा गम नहीं झेल सकती ...........दिल दुखता है ऐसी बातों से ...........जितने भी ब्लोग्स के साथ जुडी हूँ उन सबसे अनुरोध है मुझे अपने ब्लॉग के admin अधिकारों से अलग कर दें अब सिर्फ मैं अपने ब्लोग्स पर ही लिखूंगी.............

रविवार, 17 जुलाई 2011

देखना है अब नज़ारा

कर दिये बंद सारे दरवाज़े
खिडकियाँ झरोखे
समेट लिया खुद को
अन्तस मे
घुटने के लिये
देखना है अब नज़ारा
बिलबिलाते अन्तस के
टुकडे होते अस्तित्व का
और शोधन से उपजे
नये द्रव्य का परिमाण क्या होगा

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

ना जाने कब हम भारतवासी ईंट का जवाब पहाड से देना सीखेंगे?

वो तो रोज दीवाली मनायेंगे
कसाब के जन्मदिन मनायेंगे
सिर्फ़ देशवासी ही बेमौत मारे जायेंगे
आखिर दामाद बनाया है
तो कीमत तो चुकानी होगी
क्या हुआ जो ओबामा ने
दूसरे के घर जाकर वार किया
हम उनका अनुसरण तो करते हैं
मगर उनकी नीतियो पर नही चलते है
फिर उसकी कीमत तो चुकानी होगी
बेबसों को जान गंवानी होगी
निरीह जनता तो है ही मरने के लिये
कसाइयों के हाथ से कैसे बच पायेगी
अपनो के हाथों ही लुटती जायेगी
हम सिर्फ़ बातें करना जानते है
पर किसी पर ना वार करना जानते है
क्या हुआ भाई है ना हमारा
कैसे उन पर वार करें
क्या हुआ जो उसने हम पर वार किया
हम तो अपना सिर कटायेंगे
मगर उनको ना सरेआम
गोली लगवायेंगे
ना उनके हश्र का लाइव
टैलीकास्ट करवायेंगे
गर इतनी हिम्मत होती
तो देश की ना ये गत होती
बस कभी किसी के तो
कभी किसी के पीछे दुम हिलायेंगे
मगर कसाब हो या अफ़ज़ल गुरु
उन्हे ना फ़ांसी पर चढायेंगे
तो बताइये जब ईंट का जवाब
पत्थर से नही दे पाते
तो पहाड से कैसे दे पायेंगे
हम तो बस अपनो को मरवायेंगे………

सोमवार, 11 जुलाई 2011

देखा है तुमने कहीं जलता आशियाँ?

मेरे मन की वसुधा पर
अब घास उगती ही नही
फिर किस नेह जल से
सिंचित करोगे और किसे
देखो ना…………
हरियाली भी दम तोड चुकी है
और जमीन इतनी बंजर हो चुकी है
भावों की खेती भी नही होती
देखा है तुमने कहीं जलता आशियाँ?

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

निर्मल हास्य का आनंद लीजिये

निर्मल हास्य का आनंद लीजिये
चर्चाकारों की भी कुछ खबर लीजिये
व्यवस्थापक तो मौज उडाता है
बस बेचारा चर्चाकार फँस जाता है
व्यवस्थापक अपनी जिम्मेवारी
दूसरे के कन्धों पर ड़ाल
चैन की नींद सो जाता है
और बेचारा चर्चाकार
बेगारी में लग जाता है
ये कैसे सुनहरे जाल में फँस जाता है
ना निकल पाता है ना रह पाता है
बेबस जुबान ना खोल पाता है
अपने हाल पर रोता जाता है
पर मुफ्त के नाम पर कुर्बान हुआ जाता है
चर्चाकार को इतनी कीमत
तो चुकानी पड़ती है
अपनी नींद भी उड़ानी पड़ती है
सारा दिन भटकता फिरता है
हर ब्लॉग को पढता है
और उनमे से कुछ को
सेलेक्ट तो कुछ को रिजेक्ट करता है
किसी को हितैषी तो किसी को दुश्मन
दिखता है
जिसकी पोस्ट लेता है उसकी
बांछें खिल जाती हैं
जिसकी रह जाती हैं वो
आँखें तरेर लेता है
बेचारा चर्चाकार बुरा फँस जाता है
बेकार में नाम बदनाम  हो जाता है
मगर व्यवस्थापक मौज उडाता है
और चर्चाकार अपने ब्लॉग भी भूल जाता है
बस चर्चा में ही लगा रह जाता है
किसी को नाराज नहीं करना चाहता है
इसलिए दिन रात खटता रहता है
पर सबको संतुष्ट नहीं कर पाता है
पर व्यवस्थापक मौज उडाता है
हाय रे चर्चाकार तेरी यही कहानी
तेरी पीड़ा किसी ने ना जानी
सब करते हैं अपनी मनमानी
फिर क्यूँ करता है नादानी
मान जा प्यारे छोड़ नाम का मोह
अपने नीड में वापस आ जा
कर अपने ब्लॉग को इतना बुलंद
कि सभी व्यवस्थापक कहें
तेरा ब्लॉग तो हम खुद ले लेंगे
और तुझे सैल्यूट भी करेंगे
छोड़ माया मोह का फंदा
चर्चा की माया से निकल जा प्यारे
नहीं तो बहुत पछतायेगा
कहीं का नहीं रह जाएगा
हर कोई तुझे सिर्फ
चर्चाकार ही बुलाएगा
और तू अपना असली नाम भूल जायेगा
पर व्यवस्थापक तो मौज उडाएगा
सबसे बढ़िया जुगाड़ है ये
सबको काम पर लगा देना
और खुद नाम कमा लेना
एक को देख दूसरा भी
उसी राह पर चल निकलता है
व्यवस्थापक का धंधा
खूब फलता है
और चर्चा का मंच
जोर शोर से चलता है
पर बेचारा चर्चाकार
मुफ्त में फंसता है
ना कहे तो छवि बिगडती है
हाँ कहे तो कहीं का नहीं रहता है
साँप छछूंदर वाली हालात होती है
ना उगलता है ना निगलता है
पर व्यवस्थापक तो मौज उडाता है
और चर्चाकार बुरा फँस जाता है ...............



दोस्तों
ये निर्मल हास्य है इसे कोई भी गंभीरता से ना ले………बस कल कुछ देखकर ये ख्याल आया………तो आज इसी पर लिख दिया……कोई भी व्यवस्थापक या चर्चाकार इसे निजी तौर पर ना ले………कभी कभी ऐसी दिल्लगी भी होती रहनी चाहिये इससे आनन्द बना रहता है और सबको एक नयी ऊर्जा प्राप्त होती रहती है तो आपकी सेहत के मद्देनज़र है आज की ये दिल्लगी…………:)

बुधवार, 6 जुलाई 2011

घर साउंड प्रूफ बनवा लिया है

इक युग बीता
आवाजें देते देते
मगर लगता है
तुम तक पहुँचती
ही नहीं
कभी देखना
घर से बाहर
निकलकर
हर खिड़की.
हर दरवाज़े
की कुण्डियों पर
मेरी सदायें
लटकी मिलेंगी
इस आस पर
कभी तो तुम
उन कुण्डियों
को खोलोगे
मगर शायद
तुमने बाहर
आना ही छोड़
दिया है तभी
डाक कभी लौटकर
आई ही नहीं और
सदायें चौखट पर ही
दम तोड़ जाती हैं
लगता है तुमने
घर साउंड प्रूफ
बनवा लिया है

शनिवार, 2 जुलाई 2011

कैलेण्डर ज़िन्दगी का



दोस्तों 
ये कविता जुलाई माह के गर्भनाल अंक मे छपी है और अभी तक आपने इसे पढा भी नही है तो आज ये आपके समक्ष है। 


बुधवार, 29 जून 2011

ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है

ये आस्तीन के साँपों की दुनिया
ये झूठे चालबाजों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है

कभी झूठी बातें कभी झूठे चेहरे

कभी इन्सान को मिटाने के
करते हैं बखेड़े
हर एक शख्स झूठा
हर इक शय है धोखा
अपनों की भीड़ में छुपा है वो चेहरा
गर इसे पहचान भी जायें तो क्या है
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है

कभी पीठ में खंजर भोंकती है दुनिया

कभी सच्चाइयों को रौंदती है दुनिया
हर तरफ फैली है नफ़रत की आँधी
हर ओर जैसे बिखरी हो तबाही
बंजर चेहरों में अक्स छुपाती ये दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है





अब चाहे मिटाओ या फूंक डालो ये दुनिया
मेरे किसी काम की नहीं है ये दुनिया 
बारूद के ढेर पर बैठी ये दुनिया  
किसी की कभी न होती ये दुनिया
कितना बचके चलना यहाँ पर
 किसी को कभी न बख्शती ये दुनिया 
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है

रविवार, 26 जून 2011

क्या ऐसा होगा

ये सुबह ठहरती क्यों नही……
कब तक आस के मोती सम्हालूँ
जानते हो ना
तुम्हारी आस ही
ज़िन्दा रखे है
और तुम मेरी ज़िन्दगी की सुबह
जब तुम वापस आओगे
जानते हो ना
उसी दिन सुबह ठहरेगी मेरे आँगन में
कभी ना जाने के लिए ......तुम्हारी तरह
क्या ऐसा होगा ..........
मेरी आस का सूरज उगेगा........

और आसमां धरती पर उतरेगा
बताओ ना ...........
क्या ऐसा होगा
जब कुमुदिनी दिन में खिलेगी

गुरुवार, 23 जून 2011

पता नही क्यूँ

पता नही क्यूँ किनारा कर जाते हैं लोग
कुछ ऐसे मुझे आजमाते है लोग

जब भी मुझे अपना बनाते है लोग
फिर एक नया दगा दे जाते है लोग

अभी खुशफ़हमियों मे जी भी नही पाती
कि एक नयी हकीकत दिखा जाते है लोग

जिसे भी अपना समझ कदम बढाया मैने
उसी कदम पर ठोकर लगा जाते है लोग

दिल को मेरे खिलौना समझने वाले
रोज वो ही खिलौना तोड जाते है लोग

मै भी सिर्फ़ पत्थर नही एक इंसान हूँ
बस इतना सा ना समझ पाते है लोग

सोमवार, 20 जून 2011

आस्माँ रोज़ नही बदलता लिबास

तुम चाहते थे ना जीयूँ तुम्हारी तरह
लो आज तोड दीं सारी श्लाघायें
ढाल लो जिस सांचे मे चाहे
दे दो मनचाहा आकार
मगर फिर बाद मे ना कहना
नही चाहिये अपनी ही लिखी तहरीर
बदल दो फिर से कम्बल पुराना
जमीन रोज़ नही बदलती रूप
और तुम कहो कहीं फिर से
दे दो अपना पुराना सा
 रूप फिर से मुझे वापस
बताओ तो …………
एक बार टूटे साँचे कब जुडते हैं
कहाँ से लाउँगी मिट्टी को वापस
जानते हो ना……………
आस्माँ रोज़ नही बदलता लिबास

गुरुवार, 16 जून 2011

गर तूने ख्वाहिश की होती

तू खुश रहा वीरानों में
जगलों में पहाड़ों में
कभी ज़िन्दगी के
तो कभी
महफ़िलों के
हाँ महफ़िलों के भी
वीराने होते हैं
जब महफ़िल बाहर होती है
और दिल वीरान होते हैं
तू क्या समझता है
तेरे दिल की वीरान पगडंडियाँ
और वहाँ खड़े शुष्क पेड़ अरमानों के
तेरे अकेलेपन के गवाह
मुझे नहीं दीखते
अरे मेरी आँख की वीरानियों से
ही तो तेरी राहें गुजरती हैं
और छोड़ जाती हैं
अंतहीन निशाँ तेरी
हसरतों के
जिन्हें मैं अपनी पलकों
की कोरों पर सजा लेती हूँ
और करती हूँ इंतज़ार
उस पल का जिस दिन
तू खुद मुझसे मांगे
अपने सपनों को
अपनी ख्वाहिशों को
सच कहती हूँ………
तोड़ लाती चाँद आसमाँ से
गर तूने ख्वाहिश की होती

सोमवार, 13 जून 2011

वो जो शख्स रहता है मुझमे

वो जो शख्स रहता है मुझमे 
गर्मी की धूप सा जलता है मुझमे 
लावा जब कोई फूटता है उसमे
सुकूँ का इक दरिया बहता है मुझमे 
निकलती जब आह है उसमे 
डरता तब आसमान भी है उससे 
रेत भी समंदर नज़र आता है उसमे
दर्द से जब वो खिलखिलाता है मुझमे 
रौशनियों से जब लड़ता है मुझमे
अंधेरों को तब जीता है मुझमे 
वो जो शख्स रहता है मुझमे 
धूल भरी आँधियों सा चलता है मुझमे 

शुक्रवार, 10 जून 2011

आखिर कतरनें भी कभी सीं जाती हैं

इंतज़ार के पलों को
सींते सींते
बरसों बीते
मगर इंतज़ार है
कि बार बार
उधड जाता है
सीवन पूरी ही नही होती
 

कभी धागा कम पड़ जाता है
तो कभी सुईं खो जाती है
और अब तो
वो नाता भी नहीं बचा
जिसे सीने के लिए
उम्र तमाम की थी
आखिर कतरनें  भी
कभी सीं जाती हैं

मंगलवार, 7 जून 2011

इस देश का यारों क्या कहना……… ये देश है कसाबों का गहना

ये देश है भ्रष्टाचारियों का
सत्ता के लोलुपों का
इस देश का यारों क्या कहना
ये देश है कसाबों का गहना
यहाँ ए के 47 चलाने वाले
सर आँखों पर बैठाये जाते हैं
घर जँवाई बनाये जाते हैं
और घरवालो को घर से
निकाला जाता है
कार्यवाहियाँ की जाती हैं
बेमौत मरवाया जाता है
कानून का डर दिखाया जाता है
इस देश का यारों क्या कहना
ये देश है कसाबों का गहना

यहाँ पीठ मे छुरियाँ भोंकी जाती हैं
जनता की कमाई खायी जाती है
और जनता ही पिटवायी जाती है
इसी दिन के लिये तो जनता मे
चुनावो मे मिठाइयाँ बँटवाई जाती हैं
अब भुगतने का वक्त आया तो
जनता की गर्दने फ़ँसायी जाती हैं
जोर आजमाइशे अपनाई जाती हैं
और अपनी कुर्सियाँ बचाई जाती हैं
इस देश का यारों क्या कहना
ये देश है कसाबों का गहना

यहाँ झूठी शक्लें सरकारों की
यहाँ जय जयकार होती है कसाबो की
नित नित नये घोटाले होते हैं
स्विस बैंके मे पैसे जमा होते हैं
जाँच आयोग बैठाये जाते हैं
अपने कर्मी बचाये जाते हैं
सिर्फ़ ईमानदार मरवाये जाते हैं
देश हित की आवाज़ उठाने वाले ही
आन्दोलन चलाने वाले ही
जेल मे डलवाये जाते हैं
इस देश का यारो क्या कहना
ये देश है कसाबों का गहना

शनिवार, 4 जून 2011

देह की देहरी लांघी तो होती

सिर्फ देह की देहरी को ही
न पूजा होता
कभी इससे भी ऊपर
उठा होता
कभी देह की देहरी को
लाँघ पाया होता 
तो शायद इन्सान 
बन पाया होता
इस देहरी के पार
इक बार झाँका होता
तो मन का हर 
पता पा गया होता
वो जो इसी दहलीज पर
टूटता बिखरता रहा 
उस रिश्ते को कुछ तो
संभाल पाया होता
इसकी चौखटों पर टंगे
ख्वाबों की जलन को
जान पाया होता
कुछ पल उस ऊष्मा 
में खुद को झुलसाया होता
तो शायद  दर्द सहने का 
सलीका जान पाया होता
बेजुबान अश्रुकणों को 
कभी ऊँगली लगायी होती
तेज़ाब के कहर से
तेरी आँख भर आई होती
तू इक पल कभी 
वहां रुका होता तो 
मन के कोने में पड़ी
अपनी खंडित प्रतिमा
देख पाया होता
और जो सैलाब बरसों से
रुका पड़ा था
हर तटबंध को तोड़ता
तेरे आगोश में 
सिमट आया होता
बस सिर्फ एक बार तूने
देह की देहरी लांघी तो होती       

गुरुवार, 2 जून 2011

अब बुकमार्क जरूरी हो गया है

मैंने चाहा था
चाहतों पर
इक निशाँ
लगा दूं
तुम्हारे लिए
वैसे मोहब्बत को
निशानों की
जरूरत नहीं होती
मगर तुम ही
रास्ता भूलने लगे हो
शायद इसलिए
अब बुकमार्क
जरूरी हो गया है