पेज

मेरी अनुमति के बिना मेरे ब्लॉग से कोई भी पोस्ट कहीं न लगाई जाये और न ही मेरे नाम और चित्र का प्रयोग किया जाये

my free copyright

MyFreeCopyright.com Registered & Protected

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

क्या दिखी तुम्हें ?

नेपाल से निकलने वाली पत्रिका ' शब्द संयोजन ' के अक्टूबर २०१५ अंक में प्रकाशित मेरी कविता :






सूख गए हैं स्रोत गोमुख के 
तक्षशिलाओं  मुहानों पर बैठे  हैं दल्ले 
भोगवादी प्रवृत्ति ने उपजाई हैं कंटकाकीर्ण फसलें 
फिर कैसे संभव है 
अंगूर के मौसम में आम उगाना 
विपरीतार्थक शब्दों को समुच्चय में बाँधना 
रक्ताभ मार्गों में नीलाभ आभा बिखेरना 

जब समय के तंतु बिखर चुके हों 
पहाड़ों के दुःख पहाड़ से हो गए हों 
ग्रह नक्षत्रों की युति 
कालसर्प दोष को  इंगित कर रही हो 
ऐसे समय में 
कैसे संभव है 
पहाड़ का सीना चीर 
दूध की नदिया बहाना 
या मौसमों के बदलने से 
मनः स्थिति का बदलना 
जब चूल्हों की जगह 
कहीं पेट की तो 
कहीं शरीर की भूख की 
लपटें पसरी हों 
और सिंक  रही हो 
मानवता की रोटियां जली फुँकी 

हृदय विहीन समय के 
नपुंसक समाज में 
जीने के शाप से शापित 
समाज का कोढ़ है 
 इंसानियत की बेवा का करुण विलाप 

नैराश्य के घनघोर 
अंधियारे में घिरे 
पुकारते पूर्वजों की चीखें 
बंद कानों पर नहीं गिरा करतीं 
सिर्फ टंकारें 
जो तोड़ती हैं 
वो ही सुनाई देती हैं 
एक ऐसे समय में 
जीने को अभिशप्त मानव 
कहाँ से लाये पारसमणि 
जो जिला दे 
मृत आत्माओं की 
संवेदनाओं को 

व्यग्र माँ पुनरुत्थान को 
कातर निगाहों से 
भविष्य की ओर 
ताक रही है .......... क्या दिखी तुम्हें ?

सोमवार, 11 अगस्त 2014

कुछ सूखे ठूंठ किसी भी सावन में हरे नहीं होते ............

लगता है
सूख चुके सारे स्पंदन
हर स्रोत
हर दरिया
जो कभी बहता था
शिराओं में मोहब्बत बनकर
क्योंकि
अब बांसुरी कोई बजती ही नहीं
जिस की धुन सुन राधा मतवाली हो जाये
मन की मिटटी कभी भीजती ही नहीं
जो कोई अंकुर फूट जाए
शब्दों की वेदियों पर
अब मोहब्बत की दस्तानों का
फलसफा कोई लिखता ही नहीं
जो  एक आहुति दे
हवन पूरा कर लूं
अग्नि प्रज्वलित ही नहीं होती
क्योंकि
सीली लकड़ियाँ आँच पकडती ही नहीं
फिर समिधा हो या अग्नि की उपस्थिति
देवताओं का आह्वान या नवग्रह की पूजा
सब निरर्थक ही लगता है
क्योंकि
दरिया सूख जाये कोई बात नहीं
मगर स्रोत ही विलुप्त हो जायें
स्पंदन ज़मींदोज़ हो गए हों
तो कोई कैसे पहाड़ियों का सीना चीर दरिया बहाए
कुछ सूखे ठूंठ किसी भी सावन में हरे नहीं होते ............

बुधवार, 6 अगस्त 2014

क्योंकि आवाज़ की पगडंडियों के पाँव नहीं होते …………

पगडंडी के
इस  छोर पर मैं
उस छोर पर तुम
बीच में माध्यम
सिर्फ आवाजें
ध्वनि विध्वंस हो
उससे पहले
तुम पुकार लो .............

किसी भी राह से चलो
किसी पगडण्डी तक पहुँचो
माध्यम तो तुम्हें चुनना ही होगा

पुकारने के लिए ..............

इंतज़ार को मुकम्मलता प्रदान करने के लिए ..............
एक अमिट  इतिहास रचने के लिए ................

आओ करें सार्थक अपना होना
आवाज़ की पगडण्डी पर ..............


क्योंकि आवाज़ की पगडंडियों के पाँव नहीं होते …………

बुधवार, 30 जुलाई 2014

पड़ावों के शहरों में आशियाने नहीं बना करते …

इतनी कसक 
इतनी कशिश 
और इतनी खलिश 
कि  नाम जुबान पर आ जाए 
तो 
कभी इबादत 
कभी गुनाह 
तो कभी तौबा बन जाए 
और एक जिरह का पंछी 
पाँव पसारे 
बीच में पसर जाए 

जहाँ न था कभी 
हया का भी पर्दा 
वहां अभेद्य दीवारों के 
दुर्ग बन जाएं 
तो क्या जरूरी है 
शब्दों को गुनहगार बनाया जाए 
कुछ गुनाह मौत की नज़र कर दो 
अजनबियत से शुरू सफर को 
अजनबियत पर ही ख़त्म कर दो 
जीने को इतना सामाँ काफी है 
कि  सांस ले रहे हो तुम 
हर प्रश्नचिन्ह के बाद भी 

वैसे भी पड़ावों के शहरों में आशियाने नहीं बना करते ……… 

रविवार, 27 जुलाई 2014

जैसे कोई स्वप्न साकार हुआ हो

डायलॉग में सदी के शीर्ष कवि केदार नाथ सिंह को ज्ञानपीठ मिलने पर नागरिक अभिनंदन और बधाई और उनका एकल कविता-पाठ के सुअवसर पर उनसे रु-ब-रु होने का छोटा सा मौका हमने भी सहेज लिया ……एक अनमोल पलों का साक्षी बन खुद को गौरान्वित महसूसा ……जैसे कोई स्वप्न साकार हुआ हो 

















गुरुवार, 24 जुलाई 2014

जाने कितनी बार तलाक लिया



जाने कितनी बार तलाक लिया 
और फिर 
जाने कितनी बार समझौते की बैसाखी पकड़ी 
अपने अहम को खाद पानी न देकर 
बस निर्झर नीर सी बही 
युद्ध के सिपाही सी 
मुस्तैद हो बस 
खुद से ही एक युद्ध करती रही 
ये जानते हुए 
हारे हुए युद्ध की धराशायी योद्धा है वो 
आखिर किसलिए ?
किसलिए हर बार 
हर दांव को 
आखिरी दांव कह खुद को ठगती रही 
कौन जानना चाहता है 
किसे फुर्सत है 
बस एक बंधी बंधाई दिनचर्या 
और बिस्तर एक नित्यकर्म की सलीब 
इससे इतर कौन करे आकलन ?
आखिर क्या अलग करती हो तुम 

वो भी तो जाने 
कितनी परेशानियों से लड़ता झगड़ता है 
आखिर किसलिए 
कभी सोचना इस पर भी 
वो भी तो एक सपना संजोता है 
अपने सुखमय घर का 
आखिर किसलिए 
सबके लिए 
फिर एकतरफा युद्ध क्यों ?
क्या वो किसी योद्धा से कम होता है 
जो सारी गोलियां दाग दी जाती हैं उसके सीने में 

आम ज़िन्दगी का आम आदमी तो कभी 
जान ही नहीं पाता 
रोटी पानी की चिंता से इतर भी होती है कोई ज़िन्दगी 
जैसे तुम एक दिन में लेती हो ३६ बार तलाक 
और डाल देती हो सारे हथियार समर्पण के 
सिर्फ परिवार  के लिए 
तो बताओ भला 
दोनों में से कौन है जो 
ज़िंदगी की जदोजहद से हो परे 
मन के तलाक रेत के महल से जाने कब धराशायी हो जाते हैं 
जब भी दोनों अपने अहम के कोटरों से बाहर निकलते हैं 

आम आदमी हैं , आम ज़िन्दगी है , आम ही रिश्तों की धनक है 
यहाँ टूटता कुछ नहीं है ज़िन्दगी के टूटने तक 
बस बाहरी आवरण कुछ पलों को 
ढांप लेते हैं हकीकतों के लिबास 
तलाक लेने की परम्परा नहीं होती अपने यहाँ 
ये तो वक्ती फितूर कहो या उबलता लावा या निकलती भड़ास 
तारी कर देती है मदिरा का नशा 
दिल दिमाग और आँखों से बहते अश्कों पर 
वरना 
न तुम न वो कभी छाँट पाओगे एक - दूजे में से खुद को 
अहसासों के चश्मों में बहुत पानी बचा होता है 
फिर चाहे कितना ही सूरज का ताप बढ़ता रहे 
शुष्क करने की कूवत उसमे भी कहाँ होती है रिसते नेह के पानी को   



गुरुवार, 17 जुलाई 2014

वहाँ दहशत के आसमानों में सुराख नहीं हुआ करते



अपने समय की विडंबनाओं को लिखते हुए 
कवि खुद से हुआ निर्वासित 
आखिर कैसे करे व्यक्त 
दिल दहलाते खौफनाक मंजरों को 
बच्चों की चीखों को 
अबलाओं की करुण पुकारों को 
अधजली लाशों की शिनाख्त करते 
बच्चों बड़ों के दहशतजर्द 
पीले पड़े पत्तों से चेहरों को 
रक्तपात और तबाही की दस्तानों को 
किस शब्दकोष से ढूँढे 
शब्दों की शहतीरों को 
जो कर दे व्यक्त 
अपने समय की नोक पर रखी 
मानसिकता को 

एक भयावह समय में जीते 
खुद से ही डरते मानव के भयों को 
आखिर कैसे किया जा सकता है व्यक्त 
जहाँ सत्ता और शासन का बोलबाला हो 
मानवता और इंसानियत से 
न कोई सरोकार हो 
मानवता और इंसानियत के 
जिस्मों को तार तार कर 
स्वार्थ की रोटियाँ सेंकी जा रही हों 
वहाँ खोज और खनन को 
न बचते हथियार हैं 
फिर कैसे संभव है 
कर दे कोई व्यक्त अपने समय को 

मुल्ला की बांग सा आह्वान है 
जलती चिताओं से उठाते 
जो मांस का टुकड़ा 
गिद्धों के छद्मवेश में 
करते व्यापार हों 
कहो उनके लिए कैसे संभव है 
हाथ में माला पकड़ राम राम जपना 
स्वार्थ की वेदी पर 
मचा हर ओर हाहाकार है 
बच्चों का बचपन से विस्थापन 
बड़ों का शहर नगर देश से विस्थापन 
बुजुर्गों का हर शोर की आहट से विस्थापन 
मगर फिर भी चल रहा है समय 
फिर भी चल रहा है संसार 
फिर भी चल रही है धड़कन 
जाने बिना ये सत्य 
वो जो ज़िंदा दिखती इमारतें हैं 
वहां शमशानी ख़ामोशी हुंकार भरा करती है 
मरघट के प्रेतों का वास हुआ हो जहाँ 
सुकूँ ,अपनेपन , प्यार मोहब्बत की 
जड़ों में नफरत के मट्ठे ठूंस दिए गए हो जहाँ 
कहो कैसे व्यक्त कर सकता है 
कोई कवि अपने समय की वीभत्सता को महज शब्दों के मकड़जाल में  

कैसे संभव है मासूमों के दिल पर पड़ी 
दहशत की छाप को अक्षरक्षः लिखना 
जाने कल उसमे क्या तब्दीली ले आये 
काली छाया से वो मुक्त हो भी न पाये 
जाने किसका जन्म हो जाए 
एक और आतंक के पर्याय का 
या दफ़न हो जाए एक पूरी सभ्यता डर के वजूद में 
फिर कैसे संभव है 
कवि कर सके व्यक्त 
अपने समय के चीरहरण को 
जहाँ निर्वसना धरा व्याकुल है 
रक्त की कीच में सनी उसकी देह है 

ओह ! मत माँगो कवि से प्रमाण 
मत करो कवि का आह्वान 
नहीं नहीं नहीं 
नहीं कर सकता वो शिनाख्त 
वक्त की जुम्बिश पर 
थरथरायी आहों की 
जहाँ स्त्रियों की अस्मत महज खिलवाड़ बन रह गयी हो 
नहीं मिला सकता निगाह खुद से भी 
फिर भला कैसे कर सकता है 
व्यक्त अपने समय की कलुषता को 
खिलखिलाती किलकारियों का स्वप्न 
धराशायी हुआ हो जहाँ 
सिर्फ मौत का तांडव 
अबलाओं बच्चों का रुदन 
छलनी हृदय और शमशानी खामोशी 
अट्टहास करती हो जहाँ 
वहां कैसे संभव है 
व्यक्त कर सके कवि 
अपने समय को कलम की नोक पर 


रुक जाती है कवि की कलम 
समय की नोक पर 
जहाँ रक्त की नदियाँ 
तोड़कर सारे बाँध बहा ले जा रही हैं 
एक पूरी सभ्यता को 
जहाँ नही दिख रहा मार्ग 
सिर्फ क्षत विक्षत लाशों के अम्बार से पटी 
सड़कों के कराहने का स्वर भी 
डूब चुका है स्वार्थपरता की दुन्दुभियों में 
स्त्री पुरुष बाल बच्चे बुजुर्ग 
नहीं होती गिनती जिनकी इंसान होने में 
मवेशियों से दड़बों में कैद हों जैसे 
वहाँ कैसे संभव है 
बन्दूक की नोक पर संवेदना का जन्म 
जहाँ सिर्फ लोहा ही लोहा पिघले सीसे सा सीने में दफ़न हो 
फिर बोको हरम  हो , ईराक हो , फिलिस्तीन , गाज़ा या नाइजीरिया 
दहशत के आसमानों में सुराख नहीं हुआ करते 
फिर कैसे संभव है 
व्यक्त कर सके कवि अपने समय को अक्षरक्षः 

वीभत्स सत्यों को 
उजागर करने का हुनर 
अभी सीख नहीं पायी है कवि की कलम 
आखिर कैसे 
इंसानियत के लहू में डूबकर कलम 
लिखे दहशतगर्दी की काली दास्ताँ 

एक ऐसे समय में जीते तुम 
नहीं हो सकते मनचाहे मुखरित ....   ओ कवि !!!


बुधवार, 9 जुलाई 2014

सुबह की पलकों पर



हिंदी अकादमी दिल्ली के सहयोग से प्रकशित '  सुबह की पलकों पर ' शोभना मित्तल जी का काव्य संग्रह सजग प्रकाशन से आया है।  अभी कुछ समय पहले उन्होंने मुझे अपना काव्य संग्रह भेंट किया।  शोभना जी की कविताओं में मानवीय संवेदनाएं उभर कर आई हैं तो स्त्री स्वर भी प्रमुखता से उभरा है।  जीवन की हर विसंगति पर दृष्टिपात करते हुए शोभना जी सीधे सरल सहज शब्दों में अपनी बात कहने का गुर रखती हैं।  
कुंठाओं की ईंट ढोता 
इंसान खुद भी 
बन गया है ईंट जैसा 
क्या यह आरम्भ है 
एक और पाषाण युग का 
' पाषाण युग ' कविता के माध्यम से आज की जमीनी हकीकत को बयां करती गहरा प्रहार करती हैं आखिर कैसे सूख गए संवेदनाओं के स्रोत तो वहीँ ' मुक्ति ' के माध्यम से अहिल्या नहीं बनने की प्रतिबद्धता को दर्शाती हैं।  ' इंसानियत की चीख ' आतंक से दहली मानवता की बेचारगी को दर्शाती कविता है।  वहीँ ' राम - राज्य ' के माध्यम से समाज में उपजे  नारी के प्रति अन्याय को दर्शाया है जिसे आज तक नारी भोग रही है।  राम को कठघरे में खड़ा करते हुए :

राम . 
जानकर या अनजाने 
सूत्रपात कर गए तुम 
निरपराध नारी निष्कासन की 
निष्कृष्ट रीत से 

ये कवि मन ही ऐसा होता है जो नयी नयी संभावनाएं खोज लेता है तभी तो कवयित्री ने सच्चाई , ईमानदारी , धैर्य , सौहार्द , सहिष्णुता , उदारता , सद्भावना आदि का ' गैट - टुगैदर ' कर लिया और कोशिश की आज के वक्त पर प्रहार करने की यदि आज इन्हें ढूंढने जाओ तो कहीं नहीं मिलेंगे 

संयम के मकान की 
लोभ ने करादी है कुर्की 
द्वेष ने स्नेह की 
कर दी है छुट्टी 

सुन्दर बिम्ब प्रयोग करते हुए गहरा कटाक्ष करती है रचना। 

व्यर्थ है 
उससे अब 
अपेक्षा करना 
रिश्तों में 
गर्मजोशी की 
ऊंचे पहाड़ों पर 
तो हमेशा 
बर्फ जमी रहती है 
' ऊँचाई ' कविता छोटी मगर सटीक अर्थ प्रस्तुत करती हुयी।  

'कविता से साक्षात्कार' में कविता की उपयोगिता और उसके दर्द को बयां किया है साथ ही आज कविता के बाज़ार में कविता के चीरहरण पर प्रहार करते हुए सच्चाई बयां की है:

 किया है , कर सकती हूँ बहुत कुछ 
गर न मिले 'खेमों' अभिशाप 
 कविता ही रहूँ तो अच्छी 
मत बनाओ अनर्गल प्रलाप 

' वैश्वीकरण ' के माध्यम से करारा प्रहार किया है आज की संस्कृति पर कि कैसे वैश्वीकरण के नाम पर घर टूट रहे हैं। 

' लक्ष्मीबाई ' के माध्यम से आज की नारी  की जीवटता को तो दर्शाया ही है कि कैसे एक नौकरीपेशा स्त्री किन किन हालत से गुजरते हुए जीवनयापन करती है वहीँ उन हालात में एक गर्भवती स्त्री की मनोदशा का भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है:

यह भी मुमकिन है कि 
चक्र्व्यून को भेदना सीखता यह अभिमन्यु 
सीख ले व्यूह निर्माण भी 
और बहुत संभव है 
की इसके व्यूह में  फँसी हो 
कल कोई और लक्ष्मीबाई 

स्त्री के दुःख दर्द , पीड़ा से लेकर मानवता के दंश तक हर विषय पर कवयित्री की कलम चली है।  प्रकृति हो या पशु कोई अछूता नहीं रहा , हर विषय को बखूबी उकेरा है।  छोटी छोटी रचनायें सहज सम्प्रेक्ष्णीय हैं।अपनी शुभकामनाओं के साथ उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करती हूँ । 


 

शनिवार, 5 जुलाई 2014

" लो जी बच्चा बड़ा हो गया "


 " लो जी बच्चा बड़ा हो गया " .२० वर्ष पूरे होते ही टीन एज ख़त्म .......... :)


नव प्रभात ने घूंघट खोला 
नव रश्मियों से स्वागत कर 
उन्नति का मार्ग प्रशस्त करे 
मनोकामना पूर्ण हो तुम्हारी 
मगर हृदय में भान रहे 
शोषित उपेक्षित वर्ग के प्रति 
मन में सदा सम्मान रहे 
जीवन के नए अर्थ ग्रहण कर 
आगे बढ़ते जाना 
पर मूल्यों और संस्कृति का भी 
ह्रास न होने पाये 
इतना ध्यान भी देते रहना 
उम्र के नाजुक दौर से निकल चुके हो 
हर नारी का सम्मान करना और 
माँ का सिर न कभी झुकने देना 
बस अब यही दुआ और सीख दे सकती हूँ 
माँ हूँ न सिर्फ दुआएं देकर ही  
न कर्त्तव्य की इतिश्री कर सकती हूँ 
दुआओं के साथ उचित मार्गदर्शन करना ही 
एक माँ का कर्तव्य  होता है 
या शायद यही माँ होने का वास्तविक अर्थ होता है 


सफल सार्थक खुशहाल जीवन की शुभकामनाओं के साथ नए विचारों , नयी खुशियों से ओत  -प्रोत नव जीवन में स्वागत है तुम्हारा 

चाहती तो थी आज ग्रैंड सैलीब्रेशन हो मगर बेटे ने ही मना कर दिया ये कहकर कि इतना पैसा जो आप लगाओगे वो कहीं दान कर देना किसी जरूरतमंद को दे देना तो उसके बाद कुछ कहने को बचा ही नहीं ईश्वर उसे इसी तरह सदबुद्धि प्रदान करता रहे ………इसके बाद एक माँ को और क्या चाहिये भला :)

शुक्रवार, 27 जून 2014

मेरा हिस्सा

क्योंकि 
उम्र भर सिर्फ 
बँटती ही रही 
कटती ही रही 
छँटती ही रही 
पर कभी ना पाया पूरा हिस्सा 


हर बार जरूरी नहीं होता भावनाओं में कविता का होना 
क्योंकि 
आखिर हूँ तो स्त्री ही ना 
इसलिए 
आखिर कब तक ना चाहूँ अपना हिस्सा 

मुकम्मलता का अहसास सभी के लिए जरूरी होता है 
फिर ज़िन्दगी एक बार ही मिला करती है 
और जीना चाहती हूँ मैं भी उसे सम्पूर्णता के साथ 
इसलिए आज कहती हूँ 
मेरे हिस्से में से 
ले लो सब अपना हिस्सा 
ताकि जब समेटूँ खुद को 
तो सुकूँ रहे
बचा रहा कुछ मेरा हिस्सा 

शुक्रवार, 20 जून 2014

कविता में शून्यकाल

इस बार मै पुस्तक मेले से शुक्रवार साहित्य वार्षिकी 2014 लायी तो देखकर आश्चर्य हुआ कि जो हिंदी प्रदेशों की सांस्कृतिक स्थिति पर केन्द्रित है उसमें चाहे परिचर्चा हो, स्मरण , यात्रा वृतांत , आत्मकथ्य , कहानी , डायरी , उपन्यास अंश या कवितायें पूरी किताब में महज 11 महिलाओं के लेखन को जगह दी गयी जिनमे से 7 महिलाओं की कविता थीं और बाकि की 4 अन्य स्थानों पर तो सोचिये कैसे नहीं ह्रास होगा कविता और कवि कर्म का जहाँ 70 लोगों की कवितायें छपी हों वहाँ सिर्फ़ 7 महिलायें शामिल की गयी हों ……आज जरूरत है हर तरफ़ ध्यान देने की तभी समग्रता से कविता को उसका उचित दर्जा मिलेगा हो सकता है कुछ महिलायें दे रही हों कुछ नयापन कविता को अपने लेखन के माध्यम से जो सबकी दृष्टि से ओझल हो अगर इस तरफ़ भी ध्यान दें बडे बडे लोग तो कविता जरूर अपना स्थान बना लेगी …………आज चारों तरफ़ चिंता की पोटली लिए घूमते तो सभी हैं कि कविता को उसका उचित स्थान नहीं मिल रहा या कहाँ खो रही है मगर कोई ध्यान नहीं देना चाहता इस बात पर सब बस दिग्गजों को छापने पर ही जोर दिया करते हैं और नयों को आजमाने का जोखिम कम उठाते हैं  । कविता बेशक अपना मुकाम पा ही लेती है देर सवेर मगर जो हालात बनाए जाते हैं या पैदा किए जाते हैं उन्ही की वजह से कविता में शून्यकाल उपजता है और फिर हम ढूँढने लगते हैं कारण बस उन्हें मिटाने की वजह नहीं ढूँढा करते। और यही हाल पूरे साहित्य का है फिर वो कहानी हो उपन्यास या अन्य विधायें ।

1) क्या साहित्य में महिलाओं पर सिर्फ़ लिखा जा सकता है मगर उन्हें अग्रिम पंक्ति में लाने का उपक्रम नहीं किया जा सकता ? 

2) क्या वो ही दोयम दर्जा देने की मानसिकता यहाँ भी व्याप्त नहीं है ? 

जब तक इन प्रश्नों के हल साहित्य जगत नहीं ढूँढता एक पक्षीय वार्ताओं का कोई महत्त्व नहीं होता , व्यर्थ चिन्ताओं का लबादा ओढ खुद को साहित्य का हितैषी सिद्ध करने भर से नहीं बदला करती हैं तस्वीरें ।

सोमवार, 16 जून 2014

कवि कैसे कह गया हमारे दिल की बात

पाठकनामा पर मेरे द्वारा लिखी विमलेश त्रिपाठी के काव्य संग्रह ' एक देश और मरे हुए लोग ' की समीक्षा इस लिंक पर पढ सकते हैं

http://pathhaknama.blogspot.in/2014/06/blog-post.html
 

शनिवार, 14 जून 2014

' सरहद से ' ..........एक धीमी सरगोशी

कुछ सच्चाइयों से हम रु-ब-रु हो ही नहीं पाते क्योंकि आँखों पर अपनी ज़िन्दगी का ही चश्मा लगा होता है उससे इतर कुछ दिखता ही नहीं ……मगर कुछ सत्य कितने दुरूह होते हैं जिन्हें कोई कैसे शब्दों में बाँध देता है और चुप हो जाता है मगर उसकी चुप्पी उस क्षण बहुत खलती है जो बिना कहे भी बहुत कुछ कहती है ………ऐसे ही एक शख्स हैं मनोहर बाथम जी बी एस एफ़ में इंस्पैक्टर जनरल के पद पर कार्यरत हैं जिन्होने अपना काव्य संग्रह ' सरहद से ' मुझे बडे प्रेम से भेजा है और जिसे जितना पढ रही हूँ बस भीगे जा रही हूँ और मौन हुए जा रही हूँ एक एक कविता दिल पर प्रहार करती है बिल्कुल सहज सरल भाषा मगर कितनी मारक इसका नमूना देखिये :

जुर्म
(कामरेड हमीद के लिए )

ईद के दिन हमारी चौकी पर
पीछे के दरवाज़े से
उसने सेवईयाँ भेजीं चुपचाप
किसी को न बताने की शर्त थी

मेरी दीपावली की मिठाई भी शायद
इसी तरह से जाती
वो हो गया रुखसत दुनिया से

मेरे साथ ईद मनाने के जुर्म में

न जाने किन हालात से गुजरते हैं सीमा पर रहने वाले जहाँ कोई अपना नहीं होता और दुश्मन में भी मिल जाते हैं कभी कभी अपने से या कहो युद्ध तक ही बेगानापन होता है बाकि वक्त तो जैसे हमनिवाला बन जीते हैं ऐसी न जाने कितनी कवितायें हैं जो उस जीवन को तो जीवन्त करती ही हैं बल्कि उन दिलों में उपजी संवेदना और एकाकीपन की तस्वीर को भी उजागर करती हैं क्योंकि जो नहीं कहा गया वो कहीं ज्यादा कचोटता है , ज्यादा तकलीफ़ देता है , ऐसी कवितायें जो आपको मूक कर दें और सोचने पर मजबूर जहाँ आप न रो सकें न हँस सकें सिर्फ़ मौन हो सोचने पर विवश हो जाएं एक ज़िन्दगी ऐसी भी हुआ करती है जिसके बल पर हम हँसी खुशी घरों में रहा करते हैं ………


 वैसे ये कवितायें कहाँ ये तो वो दुरूह हकीकतें हैं जिनसे रु-ब-रु होना हर भारतीय के लिए जरूरी है क्योंकि आखिर हैं तो वो भी हमारी ही तरह इंसान , उनके दिल में भी दया , करुणा और संवेदना बसती है बस देश की खातिर देश में रहने वालों की खातिर खुद अपने सीने पर पत्थर रख कैसे मौत और ज़िन्दगी से आँख मिचौनी खेलते हुए जीने के बहाने ढूँढते हैं उन्ही लम्हात का चित्रण इस बारीकी से किया गया है कि पाठक चौंक उठता है तो कहीँ स्तब्ध रह जाता है तो कहीं निशब्द हो जाता है जहाँ एक ओर हम जरा जरा सी बात पर लड मरते हैं एक दूसरे का कत्ल तक कर देते हैं यहाँ तक कि रिश्तों को भी ताक पर रख देते हैं वहाँ एक सैनिक किन किन के साथ न केवल रहता है बल्कि उन्हें अपने परिवार का हिस्सा बना लेता है देखिए उसकी एक बानगी :


मैं और मेरे साथी 
****************
इस दो सौ गज के टुकड़े पर 
मैं और मेरे साथी 
मेरे घोड़े ऊँट 
मेरा कुत्ता कालू  
और कुछ घुसपैठिये चूहे 
सभी रहते हैं 

एक  मंदिर है इसी दो सौ गज में 
नमाज भी  पढ़ी  जाती है 
क्रिसमत पर केक भी कटता है 
वाहे गुरु की आवाज़ें 
रोज  सुन लेना 

 रहने का सलीका 
सीखना हो अगर 
बी ओ पी में  चले आना (  सीमा चौकी )

एक सैनिक के भी दिल होता है भारत माँ के बाद होती है कहीं उसकी भी माँ तो समझ सकता है वो माँ के दिल को मगर अपने कर्तव्य से कैसे विमुख हो सकता है , उसे तो देश हित में अपनी ड्यूटी पूरी करनी ही है फिर चाहे वो कोई हो कुछ ऐसे ही जज़्बातों से जब कवि ह्रदय व्याकुल होता है तो फ़ूट पडती है वेदना अक्षरक्ष : उसकी कलम में जो वो वहाँ न दिखा सकता है न कह सकता है किसी से वो व्यक्त तो होनी होती है तो हो जाती है कलम के माध्यम से कुछ इस तरह :

माँ 
***
आतंकी का मकान 
देख लें -- मैने कहा 
चप्पा चप्पा छान लो 
ऊपर नीचे छान लो 
कुछ मत छोडना 
कहीं भी हो सकता है वो 

सब  अस्त व्यस्त करने के बावजूद 
न मिला कुछ 

सफ़ेद बाल मोटा चश्मा 
पेट में कांगडी फ़िरन के अन्दर 
साठ साल में ऐसी विनम्रता '
बेटा अब बँद कर लूँ दरवाज़ा' ' 

माँ माफ़ करना ' मैने कहा 
' हमने सब सामान बिखेर दिया है ' 
'माफ़ी किस बात की बेटा ' 
' वो अपना काम कर रहा है ' 
गलत या सही मैं नहीं जानती -- 
तुम अपना काम कर रहे हो 
गलत या सही मैं नहीं जानती 

मैं तो तुम दोनो को ही 
नहीं कोस सकती 

मैं माँ हूँ 

वहीं दूसरी तरफ़ एक दूसरी माँ की वेदना और आतंकवादी हमलों के कहर का जीवन्त दृश्य उकेरना यूँ ही संभव नहीं होता जो गुजरा होता है उन परिस्थितियों से वो ही व्यक्त कर सकता है त्रासदी की भयावहता :

गूँगा 
*****
हर चौथे रोज़ ही दीखती थी 
दो - तीन बरस के बच्चे के साथ 
डॉक्टर से गिडगिडाती 
बच्चे के बोलने के इलाज के लिए
 ' गूँगा' लग्ज़ उसे अच्छा नहीं लगता 

माँ की तरह डॉक्टर भी 
उम्मीदों के साथ 
कि कभी तोतली आवाज़ से सही 
निकलेगा ' अम्मी ' 

कल की ही तो बात है 
उस जालिम के बम से 
चीखों से सारी बस्ती गूँजी
कहते हैं पहली और आखिरी बार 
गूँग़ा भी ' अम्मी' पुकारते 
चीखा 

आखिर सैनिक होता तो एक इंसान ही है तो मरने के बाद कहाँ रह जाती है कोई दुश्मनी बचता है तो एक इंसान वहीं दूसरी तरफ़ इस तरह मरने और मारने से आतंक कम नहीं होता बल्कि और बढ जाता है उस वेदना को बिना शब्दों की बर्बादी के कवि ने इस तरह उकेरा है कि आँख के आगे चलचित्र सा चलने लगता है : 

क्षणिक खुशी 
**************
मेरे हाथ से जब 
पहला आतंकी मरा 
वो खुशी का पल 
क्षणिक था 

उसके मरने का बिल्कुल नहीं 
मारने पे ज्यादा दुख 
पता नहीं क्यों? 

इस मर जाने से 
मरा नहीं आतंक 
नहीं मिला चैन 
गरीबों और बेसहारों को 

कुछ और बढ गए 
इस फ़ेहरिस्त में नाम 


ऐसी जाने कितनी कवितायें हैं जो कम शब्दों में मारक वार करती हैं , हर कविता एक सच्चाई को बयाँ करती है फिर वो कच्छ में रन का रेगिस्तान हो या वहाँ के जीवन और उसकी कठिनाइयाँ , या फिर फ़्लेमिंगो के प्रवास से जुडे कवि के सैन्य जीवन के अनुभव या फिर कश्मीर की वादियों में पडे लहू के छीँटे हर घटना को सलीके से कवि ने न केवल उकेरा है बल्कि कहीं कोई शोर शराबा नहीं एक वीभत्स सन्नाटा जो शनै: शनै: दस्तक देता हो और अन्तस मे चिकोटी भरता हो इस तरह आत्मा में उतरती कवितायें किसी भी ह्रदय में उथल पुथल मचाने में कामयाब होती हैं । सरल सहज और सुलझी भाषा में कम शब्दों मे गहरी बात कह देना कवि के लेखन की विशेषता है । यूँ तो दो संग्रह आ चुके हैं कवि के और 5 हजार प्रतियाँ बिक चुकी हैं मगर देखिए विशेषता वो ही सैन्य जीवन का अनुशासन काबिज़ है कहीं कोई शोर नहीं , कहीं आत्म प्रचार नहीं शायद सब जानते भी नहीं कि कोई सरहद पर रहने वाले ने ऐसा कुछ लिखा है जबकि आज यदि किसी की 500 प्रतियाँ भी बिक जाएं तो खुद को जाने क्या समझने लगता है , प्रचार के लिए व्याकुल हो उठता है वहीं मनोहर बाथम जी में वो ही अनुशासन कायम है जो एक सैनिक के जीवन में हमेशा होता है जो कभी अपने नाम के प्रचार प्रसार के लिए काम नहीं करता बल्कि देश हित में अपने प्राणों का बलिदान दे देता है । जल्द ही हमारे हाथों में उनका तीसरा काव्य संकलन होगा जिसकी मुझे बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी ………शुभकामनाओं के साथ उस सैनिक  को नमन करती हूँ जिसने हमें अपने कवि रूप से अवगत तो कराया ही बल्कि उन परिस्थितियों से भी रु-ब-रु करवाया । कोई यदि पढना चाहता हो तो संकलन शिल्पायन प्रकाशन से मंगवा सकता है । 

शिल्पायन फोन : 011-22821174

गुरुवार, 12 जून 2014

यूँ ही कभी कभी

हैलो 
बिजी हो क्या ?

( कोई जवाब नहीं )

आज बहुत जरूरत थी किसी  की 
और आज ही वक्त का सितम देखो 
खुद से भागने को जी चाहता है 

( कोई जवाब नहीं )

उफ़ ! मेरी बेअक्ली तो देखो 
तुम्हारे जवाब नहीं आ रहे 
और मैं लिखे जा रही हूँ 

( कोई जवाब नहीं )

आह ! ये दीवानगी नहीं 
ये है बेबसी , बेजारी 
इतने बड़े जहान में 
अकेलेपन को झेलने की त्रासदी 
जो शब्दों में व्यक्त हो नहीं पा रही 
कोई अविभक्त सी रेखा 
मानो विभक्ति के कगार पर खड़ी हो 
मगर विभक्त भी ना हो पा रही हो 
जुनून की हदें नहीं होतीं 
शायद इसीलिए 
बेसबबी के पायदान पर खड़े होकर 
तुम्हें पुकारा है 
मगर 
अंजुली में कब वक्त सिमटा है 
जो आज समेट पाती 
अच्छा , चलती हूँ 
कहाँ ? नहीं पता 
बिना मकसद की ज़िन्दगी के भी क्या कभी कोई मायने होते हैं 
डोर से टूटी पतंगों को भी क्या कभी आशियाँ मिलते हैं 
अलविदा ! 

अलविदा ! कितना मुश्किल होता है खुद को कहना 
और एक कहानी अधूरेपन के साथ ही ख़त्म हो गयी 

सोमवार, 9 जून 2014

दोस्त

जन्मदिन की असीम शुभकामनायें ………खुशियों से लबरेज़ हो तेरा जहान 



हाँ दोस्त
ना जाने कितनी 
किस्मे होती हैं दोस्तों की
अजी क्या सोचने लगे
दोस्तों की किस्मे
तो इसमें क्या अलग है
जब इस दुनिया में
दो शक्ल एक जैसी नहीं होतीं
दो लोगों के विचार एक जैसे नहीं होते
तो दोस्त और उनका व्यवहार कैसे
एक जैसा हो सकता है
उनमे भी तो वो ही 
दुनियावी रंग उतरा होता है
और सबसे बड़ी बात
दोस्ती एक होती है बचपन की
जिसमे बचपन से एक 
निश्छल प्रेम जुड़ा होता है
वहाँ दोस्ती की नींव
कच्ची मिटटी की बनी होती है ना
तो इतनी मजबूत होती है
कितने आँधी तूफ़ान आयें
सब झेल जाती है 
मगर दोस्त पर ना 
तोहमत लगाती है
यूँ ही थोड़े कृष्ण सुदामा की 
दोस्ती को दुनिया याद करती है 
मगर उसके बाद की 
जो भी दोस्ती होती है
स्वार्थ की जड़ों पर ही
उसकी नींव टिकी होती है
जब तक काम निकले तब तक दोस्ती
उसके बाद ना दोस्त ना दोस्ती
कैसे हो गए हैं ना
दोस्ती के रिश्ते
तो फिर दोस्त तो होंगे ही आर्टिफिशल 
ऊपर अपनेपन का मुखौटा लगाये
सबसे ज्यादा हमदर्द बनते
मगर वो ही हैं सबसे पहले
पीठ में छुरा हैं घोंपते
एक तो आज का माहौल ऐसा
उस पर आज की टैक्नोलोजी 
क्या से क्या बना दिया
दोस्त को और दोस्ती को
दोनों को सिर्फ एक खेल का 
मैदान बना दिया
अब देखो तो
फेसबुक हो या ट्विटर या ऑरकुट 
या फिर हो कोई भी चैट पर
बस हाय किया हेलो किया 
और हो गयी दोस्ती
कुछ उसकी सुनी
कुछ अपनी कही
और बन गए दोस्त
जो सिर्फ एक छलावा होते हैं
यहाँ नकाबों में छुपे ना जाने कितने
अन्जान चेहरे होते हैं
मुश्किल से ही यहाँ 
सच्चे दोस्त मिलते हैं
एक अन्जान चेहरा
एक अन्जाना नाम
एक अनजानी पहचान
पता नहीं क्यों 
फिर भी लोग यहाँ 
कुछ पलों के लिए ही सही
खुद को भुला देते हैं
ये दोस्त और दोस्ती का
नया रूप यहाँ दिखता है
जहाँ कुछ देर के लिए ही सही
झूठ भी सही दिखता है
क्योंकि 
मिल जाते हैं कभी कभी 
कुछ ऐसे चेहरे
जो सच में दोस्ती को 
एक मुकाम देते हैं
बिना देखे जाने पहचाने भी
दोस्त की उदासी में
उसे हँसाने का हुनर रखते हैं
फिर चाहे उसके लिए उससे 
झूठा लड़ना ही क्यों ना पड़े
उसे चिड़ाना ही क्यों ना पड़े
मगर दोस्ती को कई बार
नए अर्थ दे जाते हैं
शायद वो ही 
सच्चे और अपने दोस्त कहलाते हैं
जो चाहे आभासी हों या मूर्त 
मगर दोस्त की उदासी को भी 
मुस्कराहट में बदल जाते हैं 
चुपके से ही सही
दोस्ती को अर्थ दे जाते हैं 

और वो अर्थ हो तुम ……प्रिय मित्र राकेश 
तुम सा निस्वार्थ मित्र पा मैं धन्य हुयी 

ये कविता काफ़ी साल पहले लिखी थी आज तुम्हारे जन्मदिन पर तुम्हें समर्पित 
ये भी अजब इत्तफ़ाक ही है कि एक दिन के अन्तर पर ही हमारे जन्मदिन आते हैं :) :) 

मंगलवार, 3 जून 2014

खुश हो लो ओ माताओं बहनों और स्त्रियों !!!

क्योंकि अभी नहीं हुई हमारे जुल्मों की इंतेहा
इसलिए 
अभी और होना है तुम्हें तिरस्कृत 
अभी और होना है तुम्हें बलात्कृत 
क्योंकि 
क़ानून हो या सत्ता 
संग हैं हमारे 
और तुम्हारे औजार हैं सब पुराने 
बस रोना गिड़गिड़ाना जानती हो 
ज्यादा से ज्यादा क्या 
जाओगी कानून के पास गुहार लगाने 
मगर वहां भी हम जैसों को ही पाओगी 
तो करती रहो शोर 
और दबती रहेंगी तुम्हारी आवाज़ें इसी तरह 
क्योंकि जानते हैं हम 
यहाँ नहीं बदला करते क़ानून 
ज़रा ज़रा सी बातों पर
 ( लड़के हैं गलती हो जाया करती है तो क्या उसके लिए फांसी दे दें )
इस सोच के नुमाइंदे जब तक 
हमारे साथ हैं तब तक 
ढूँढने हैं हमें अभी और नए नए तरीके 
सरिये औजार पत्थर बोतल 
तो हम भर चुके 
आंतें भी बाहर निकाल चुके 
पेड़ पर भी लटका चुके 
एसिड भी पिला चुके 
मगर नहीं भरा अभी हमारी अमानवीयता का घड़ा 
अभी बाकी है और जद्दोजहद 
हमारी मानसिकता की 
क्योंकि हम वो कालसर्प हैं जो मौत से भी नहीं डरा करते 
हा हा हा के दंश से ही उपजती हैं हम में क्रूर ऋचाएं 
इसलिए 
जब तक नहीं कर लें हम ईजाद 
नयी संभावनाएं तुम्हारे शोषण की 
तब तक बची हो तुम …… खुश हो लो ओ माताओं बहनों और स्त्रियों !!!