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रविवार, 8 फ़रवरी 2015

इश्क की कुदालें

मैंने तह करके रख दिए सारे सपने 
और अब धूप दिखा रही हूँ खाली मर्तबान को 

पीने को पानी होना जरूरी तो नहीं 
प्यास के समन्दरों में खेलती हूँ पिट्ठुओं से 

रूह खामोश रहे  या शोर करे 
कतरे सहेजने को नहीं बची मदिरा पैमानों में 

ए री मैं गिरधर की दासी कह 
अब कोई मीरा न रिझाती मोहन को 

इश्क की कुदालें छीलती हैं सीनों को 
तब मुकम्मल हो जाती है ज़िन्दगी मेरी 

आ महबूब मेरे चल जी ले कुछ पल मेरी तरह .......मेरे साथ ...... फिर इस रात की सुबह हो के न हो 

बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

साहित्यिक गर्भ ज्ञान

गुरु जी साहित्यिक गर्भ ज्ञान बतला दीजिये 
कुछ दिव्य ज्ञान दे जिज्ञासा शांत कीजिये 

बच्चा ये क्या आज तुझे सूझी 
क्यों आज तुमने ये पहेली पूछी 
गुरु जी साहित्य में आना चाहता हूँ 
मैं भी नाम कमाना चाहता हूँ 

बच्चा ये डगर उनके लिए नहीं आसां बस इतना समझ लीजै 
जो उसूलों आदर्शों पर जीवित रहते हैं और उन्ही में जीते हैं 
यहाँ तो हर ऐरे गैरे को महान बनाया जाता है 
सिर्फ उसूलपसंद को  ही हाशिये पर लुढकाया जाता है 

गुरु जी आपका मार्गदर्शन चाहिए 
आपकी कृपा रुपी कर कमल सिर पर चाहिए 

बच्चा यहाँ गुट निरपेक्ष राज्य नहीं चलता है 
बस गुट बनाने वालों का ही धंधा फलता फूलता है 
तब अंधे के हाथो ही बटेर लगती है 
वर्ना तो अन्यों की न यहाँ दाल गलती है 

गुरु जी मेरे मन में उथल पुथल मची है 
कृपया पूर्ण ज्ञान दीजिये 
मुझे भी साहित्यिक बिरादरी में शामिल कीजिये 

शिष्य की अधीरता देख गुरु बोल उठे 
बच्चा फिर तो तुझे कमर कसनी होगी 
सबसे पहले एक किताब छपवानी होगी 
फिर सारे दांव पेंच खुद ही सीख जाएगा 

गुरूजी आपके बिना मेरा साहित्यिक कैरियर लडखडायेगा 
आपके बिना ये शिष्य कैसे साहित्यिक सागर पार कर पायेगा 

बच्चा मेरी ऊंगली पकड़ गर चलेगा 
तो जुगाड़ का दांव पेंच भी सीखना होगा 
क्योंकि किताब छपते ही स्वतः विरोधी खर पतवार से उग आयेंगे 
तेरे अपने बन तेरी जड़ में ही सेंध लगायेंगे 
उनसे पहले तुझे चाल चलनी होगी 
वो पटखनी दें उससे पहले ही जुगत करनी होगी 
दो चार पुरस्कार जेब में करने होंगे  
फिर खुद को सर्वेसर्वा सिद्ध करना होगा 
हर अपने दुश्मन को पहचान उस पर हमला करवाना होगा 

गुरूजी आप ये क्या बता रहे हो 
हमला करवा मुझे जेहादी बना रहे हो 

बच्चा कोई तुम्हें मारे उससे पहले वार करो 
यही युद्ध का नियम होता है 
गर नहीं मानेगा तो ओंधे मुंह गिरेगा 
मैं कौन सा सच की हिंसा करवा रहा हूँ 
बस शब्द बाण चलाने का हुनर बता रहा हूँ 

फिर ठीक है गुरु जी 
मैं तो डर गया था 

बच्चा जो डरा सो मरा जानो 
यहाँ तो चोरी और सीनाजोरी करने वाला ही मुकाम पाता है 
दूसरा प्रतिभावान तो अपने दडबे में छुपा रह जाता है 

अब सुन ध्यान लगाकर 
सबसे पहले एक गुट का सदस्य बनना होगा 
फिर कुछ साहित्यिक गोष्ठियां अपने गुट की करनी होंगी 
खुद चुप रह साहित्यिक मित्रों के माध्यम से 
प्रतिभावानों और समकालीनों की फजीहत करनी होगी 
अपने गुट के लोगों से जुबानी वार करवाने होंगे 
साथ ही खुद के स्तुतिगान भी उन्ही के माध्यम से करवाने होंगे 
बच्चा तुम न कभी मुख से गलत बोलना 
बस दूसरों के कंधे ही हमेशा प्रयोग करना 
यूँ तुम्हारा सिक्का जम जाएगा 
तब सच्चा ईमानदार भी तुमसे घबराएगा 
और वो भी हाशिये पर चला जाएगा 

बस जिस दिन ऐसी तिकड़में सीख जाओगे 
जाति बिरादरी को अपनी तरफ कर लोगे 
पुरस्कार तुम्हारी तरफ आकर्षित होंगे 
और तुम साहित्यिक जगत में घुसपैठ कर लोगे 

यहाँ पचास पुस्तक लिखने वाले हाशिये पर ही रह जाते हैं 
बस जुगाडू और दूसरे के कंधे इस्तेमाल करने वाले ही आगे बढ़ जाते हैं 
एक ही पुस्तक से खुद को चर्चित कर पुरस्कारों की लाइन लगा जाते हैं 

गुरूजी तो क्या सच्चाई ईमानदारी का यहाँ कोई मोल नहीं 

बच्चा मोल तो वास्तव में उसी का होता है 
मगर यहाँ का धंधा तो जुगाड़ से ही चलता है 
गर कोई नहीं जुगाड़ की राजनीति अपनाता है 
फिर चाहे लेखन कितना उन्नत हो पिछड़े दलितों में गिना जाता है 
या साहित्यिक बिरादरी से स्वमेव बाहर हो जाता है 
इतना उसे उपेक्षित कर कुंठित किया जाता है 
कोई इक्का दुक्का जीवट ही अंगद के समान पाँव जमा पता है 
तो उससे न इनपर ख़ास असर पड़ता है 
क्योंकि उनका धंधा तो भली भांति फूलता फलता है 
बस इसी तरह साहित्य का बाज़ार चलता है 

गुरूजी फिर कौन सा मार्ग अपनाऊँ सोच में पड़ गया हूँ 

बच्चा ये तो तुझे ही तय करना होगा 
साहित्यिक गर्भ ज्ञान जो तुझे मैंने दिया है 
किसी से न जिक्र करना वर्ना 
मेरा ही बहिष्कार हो जाएगा 
मेरा डिब्बा ही साहित्य जगत से गोल हो जायेगा 
सबके तीर तलवारों का मैं ही निशाना बन जाऊंगा 
और असमय मौत का भोजन बन जाऊँगा 

बस तू जो भी राह चुने मेरा न उपकृत होना 
मुझे तो परदे के पीछे ही रखना 
जब जब कोई समस्या आये इसी तरह उपाय पूछ लेना 

अथ श्री साहित्यिक गर्भ ज्ञान कथा नमो नमः 

निर्मल हास्य का आनंद लीजिये :)

शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

और नींद है कि टूटती ही नहीं

गाँव खो रहे हैं 
शहर सो रहे हैं 
और नींद है कि टूटती ही नहीं 

विकास के पहिये ने 
रेत दी हैं गर्दनें 
मगर लहू है कि कहीं दिखता ही नहीं 

उम्मीदों के आकाश 
चकनाचूर हो रहे हैं 
और अच्छे दिन की आस है कि टूटती ही नहीं 

शस्त्रागार में शस्त्र हैं बहुत 
मगर चलाने के हुनर से नावाकिफ हैं जो 
नहीं जानते चक्रव्यूह भेदने की विधा 

अब और नहीं 
अब और नहीं 
अब और नहीं 
कहते कहते गुजर गयीं सदियाँ 
मगर तख्तापलट है कि होता ही नहीं 

शायद यही है  वजह 
कि अब गुंजाईश को जगह बची ही नहीं 
अभिमन्यु भेदना है इस बार चक्रव्यूह तुम्हें ही .........मरना हासिल नहीं ज़िन्दगी का 

रविवार, 25 जनवरी 2015

ये कैसा बसंत आया ...........

ये कैसा बसंत आया सखी री 
न आम के नए बौर आये 
न कोयल ही कुहुकी 
न सरसों ही खिली 
न पी कहाँ पी कहाँ कह 
पपीहे ने शोर मचाया 
ये कैसा बसंत आया सखी री 

शीत लहर ही अपने रंग दिखाए 
अबके न अपने देस जाए 
जाने कौन पिया इसके मन भाये 
जो ये खेतिहरों को रही डराय 
ये कैसा बसंत आया सखी री 

न मन में उमंग उठी 
न गोरी कोई पिया मिलन को चली 
न कंगना कोई खनकाय 
न पायल कोई छनकाय 
जो मतवाली हो ऋतु बसंत 
प्रेमियों को देती थी भरमाय 
ये कैसा बसंत आया सखी री 
ये कैसा बसंत आया ...........


शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

कभी कभी लगता है बहुत खडूस हूँ मैं .........

कोई बेचारा अपना हाल -ए-दिल बयां करना चाहता है 
और मैं हूँ कि सिरे से ही नकार देती हूँ 
वो दिल की लगी कहना चाहता है 
मैं दुत्कार देती हूँ 
आधी रात फ़ोन घनघनाता है 
मैं ब्लाक कर देती हूँ 
अपनी आवारगी में दिल्लगी कर जाने क्या बताना चाहता है 

मैं शादीशुदा दो बच्चों की अम्मा 
वो अकेला चना बाजे घना 
कैसे समझ सकता है ये बात 
चाहत के लिए अमां यार मौसम तो दोनों तरफ का यकसां होना जरूरी है
 
वो इतना न समझ पाता है और गलती कर बैठता है 
जल्दबाजी में हाथ के साथ दिल भी जला लेता है  

अजब सिरफिरापन काबिज है मेरी फितरत में 
कभी कभी लगता है बहुत खडूस हूँ मैं .........

मंगलवार, 20 जनवरी 2015

हिंदी चेतना में

इस बार हिंदी चेतना के जनवरी - मार्च अंक में मेरे कविता संग्रह ' 

बदलती सोच के नए अर्थ ' की संगीता स्वरुप जी द्वारा लिखी समीक्षा पढ़िए






सोमवार, 5 जनवरी 2015

दानव का जड़ से अंत

काट कर शरीर का सडा गला अंग 
संभव है जिंदा रह पाना 
मगर 
उस अंग की उपयोगिता का अहसास 
खुरचता रहता है उम्र भर 
ज़ेहन की दीवारों को 

अपंगता स्थायी होती है 
और विकल्पों के माध्यम से गुजरती ज़िन्दगी 
मोहताजगी का इल्म जब जब कराती है 
बेबसी के कांटे हलक में उग आते हैं 
तब असह्य रक्तरंजित पीड़ा शब्दबद्ध नही की जा सकती 

मगर मजबूर हैं हम 
जीना जरूरी जो है 
और जीने के लिए स्वस्थ रहना भी जरूरी है 
नासूर हों या विषाक्त अंग 
काटना ही है अंतिम विकल्प 
फिर शरीर हो , रिश्ते हों ,जाति हो , समाज हो या धर्म 

धर्म मज़हब सीमा और इंसानियत के नाम पर होती हैवानियत 
बुजदिली और कायरता का प्रमाण हैं 
ये जानते हुए भी 
आखिर कब तक नासूर को जिंदा रखोगी  .........ओ विश्व की महाशक्तियों 

दानव का जड़ से अंत ही कहानी की सार्थकता का अंतिम विकल्प है ........जानते हो न !!!

रविवार, 28 दिसंबर 2014

गिरहकट

कितने धीमे से काटते हो गिरह 
मालूम चलने का सवाल कहाँ 
चतुराई यही है 
और बेहोशी का दंड तो भोगना ही होता है 

होश आने तक 
ढल चुकी साँझ को 
कौन ओढ़ाए अब घूंघट ?

एक मुश्किल सवाल बन सामने खड़े हो जाना 
यही है तुम्हारा अंतिम वार 
जिससे बचने को पूरी शक्ति भी लगा लो अब चाहे 
काटना  नियति है तुम्हारी 

धीरे धीरे इस तरह  रिता देना 
कि बूँद भी न शेष बचे 
जानते हो न 
खाली कुओं से प्रतिध्वनियाँ नहीं आया करतीं 

कितने बड़े गिरहकट हो तुम ............ ओ समय !!!

रविवार, 21 दिसंबर 2014

ये समय की मौत नहीं तो क्या है ?

घुटन चुप्पी विवशता 
और पथरायी आँखें 
बिना किसी हल के शून्य में ताक रही हैं 

कैसे शेर के कसे हुए जबड़ों में 
दबी चीख 
घायल हिरण सी 
फड़फड़ा रही है 

ताको सिर्फ ताको 
घूँट भरने को नहीं बची संवेदना 
जंगल और जंगली जानवरों का 
भीषण हाहाकारी शोर 
नहीं फोड़ेगा तुम्हारे कान के परदे 

इस समय के असमय होने के साक्षी हो 
विकल्प की तलाश में भटकते हुए 
अब क्या नाम दोगे इसे तुम ?

सोचना जरा 
ये समय की मौत नहीं तो क्या है ?

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

वो मेरा कोई नहीं था

हैवानियत के  अट्टहास पर इंसानियत किसी बेवा के  लिबास सी लग रही है 


वो मेरा कोई नहीं था
वो पडोसी मुल्क का था
मैं उसे नहीं जानती
मैंने उसे कभी नहीं देखा
फिर भी मेरा उसका कोई रिश्ता था 
हाँ जरूर था कोई तो रिश्ता
वर्ना कलेजा यूँ फटा न होता
आँख से आंसू झरा न होता 


हाँ था मेरा और उसका रिश्ता
शायद इंसानियत का
शायद ममत्व का

वो मेरा कोई नहीं था ........फिर भी इक रिश्ता तो था , फिर भी इक रिश्ता तो था

(कल जब उन मासूमों के चेहरे दिखाए जो हैवानियत की भेंट चढ़ गए तो आंसू रोके नहीं रुके )

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

अब किसकी करें इबादत

अब किसकी करें इबादत कौन सुनता है 
यहाँ दूर दूर तक फैला अँधेरा ही अँधेरा है 

मासूमियत संगसार हुई ज़िन्दगी दुश्वार हुई 
तेरे जहान में इंसानियत की ये कैसी हार हुई 

ओ खुदा ईश्वर अल्लाह जीसस  वाहे गुरु 
बता तो मासूमियत के क़त्ल में कहाँ है तू 

खुश्क आँखों से वहां रोती है इक माई 
क्या मासूमों पर इतनी दया भी न आई 

ये कैसा आतंक है ये कैसा समय है 
करुणा दया ममता को न मिली जगह है 

बुधवार, 10 दिसंबर 2014

दर्द के बाज़ार में

प्रेम की चिरपरिचित आवाज़
जिसे सुन सुन तिड़क उठती है अन्दर की लड़की

देव तुम हो ,,,,,,,हाँ यहीं हो
मेरी निगाहों में देखो 
तुम्हारी ही तस्वीर नज़र आएगी
और आकाश सुनहरी ...........
बस जरूरत है तो सिर्फ मेरी आँख से देखने की ..........

हे देव ! क्या सुन पाए मेरा अनकहा ?
क्या अब लिख पाओगे फिर कभी कोई कविता ?

दर्द के बाज़ार में मायूसियों की अकेली खरीदार हूँ मैं !!!

रविवार, 30 नवंबर 2014

सोच को पछीटते हुए

सोच को पछीटते हुए कहाँ ले जाऊँ 
मैं कहाँ हूँ और कहाँ नहीं 
आखिर कब तक खुद से मुखातिब रहूँ 
उम्र तो गुजरी चाकरी में 
मगर इक सोच हो जाती है काबिज कभी कभी

सबकी ज़िन्दगी में अवकाश होते हैं 
और एक मैं हूँ 
बिना अवकाशप्राप्त सर्वसुलभ कामगार 

उठाने लगी है सिर एक चाहत
चाहिए मुझे भी एक अवकाश 
हर जिम्मेदारी और कर्तव्य से 
हर अधिकार और व्यवहार से 
हर चाहत और नफ़रत से 
ताकि जी सकूँ एक बार कुछ वक्त अपने अनुसार 
जहाँ न कोई फ़िक्र हो
एक उन्मुक्त पंछी से पंख पसारे उड़ती जाऊँ ,बस उड़ती जाऊँ

क्या संभव होगा कभी ये मेरे लिए 
या चिता पर लेटने पर ही होता है एक स्त्री को नसीब पूर्ण अवकाश …… सोच में हूँ !!!


(चित्र साभार : आरती वर्मा इस चित्र ने लिखने को प्रेरित किया )

सोमवार, 17 नवंबर 2014

क्योंकि अपराधी हो तुम..........

जो स्त्रियाँ हो जाती हैं ॠतुस्त्राव से मुक्त 
पहुंच जाती हैं मीनोपॉज की श्रेणी में 
फ़तवों से नवाज़े जाने की हो जाती हैं हकदार 

एक स्त्री में स्त्रीत्व होता है सिर्फ 
ॠतुस्त्राव से मीनोपॉज तक 
यही है उसके स्त्रीत्व की कसौटी 
जान लो आज की परिभाषा 

नहीं रहता जिनमे स्त्रीत्व जरूरी हो जाता है 
उन्हें स्त्री की श्रेणी से बाहर निकालना 
अब तुम नहीं हो हकदार समाजिक सुरक्षा की 
नहीं है तुम्हारा कोई औचित्य
इच्छा अनिच्छा या इज्जत  
नहीं रहता कोई मोल 
बन जाती हो बाकायदा महज संभोग की वो वस्तु 
जिसे नहीं चीत्कार का अधिकार 
फिर कैसे कहती हो 
ओ मीनोपॉज से मुक्त स्त्री 
हो गया तुम्हारा बलात्कार ?

आज के प्रगतिवादी युग में 
तुम्हें भी बदलना होगा 
नए मापदंडों पर खरा उतारना होगा 
स्वीकारनी होगी अपनी स्थिति 
स्वयंभू हैं हम 
हमारी तालिबानी पाठशाला के 
जहाँ फतवों पर चला करती हैं 
अब न्याय की भी देवियाँ 


क्योंकि 
अपराधी हो तुम ....... स्त्री होने की 
उससे इतर 
न तुम पहले थीं 
न हो 
न आगे होंगी 
फिर चाहे बदल जाएं 
कितने ही युग 
नहीं बदला करतीं मानसिकताएं 


स्त्रीत्व की कसौटी 
फतवों की मोहताजग़ी 
बस यही है 
आज की दानवता का आखिरी परिशिष्ट 


गुरुवार, 6 नवंबर 2014

खामोशियों के पाँव में घुँघरू नहीं होते

खामोशी का बीज वक्तव्य सिर्फ़ इतना था 
कोई मुझसे इतर मुझमें पैठा था 
जब भी झाँका ख्याले अंजुमन में 
सिर्फ़ चुप्पियों का कोलाहल था  

दरकने को न जमीं थी न सुराख़ को आस्माँ 
मेरी ख़ामोशियों का कोई राज़-ए -खुदा न था 

जब दिन की हँसी रातों के गुलाब खिलने का आसार था 
तब अश्कों के पलकों पर ठहरने के मौसम खुशगवार था 
ये जानकर खामोशियों के पाँव में घुँघरू नहीं होते 
यूँ इक रूह के भटकने का तमाम इंतजाम था 

शायद तभी ज़िद पर अडी खामोशियाँ किसी रुत की मोहताज़ नहीं होतीं ……



शनिवार, 25 अक्टूबर 2014

अम्बर तो श्वेताम्बर ही है

रंगों को नाज़ था अपने होने पर
मगर पता ना था
हर रंग तभी खिलता है
जब महबूब की आँखों में
मोहब्बत का दीया जलता है
वरना तो हर रंग 
सिर्फ एक ही रंग में समाहित होता है
शांति दूत बनकर .........
अम्बर तो श्वेताम्बर ही है 
बस महबूब के रंगों से ही
इन्द्रधनुष खिलता है
और आकाश नीलवर्ण दिखता है ...........मेरी मोहब्बत सा ...है ना !!

गुरुवार, 16 अक्टूबर 2014

तन के उत्तरी छोरों पर

तन के उत्तरी छोरों पर 
पछीटती माथे की रेखा को 
वो गुनगुना रही है लोकगीत 

जी हाँ ....... लोकगीत 
दर्द और शोक के कमलों से भरा 

सुन रहा है ज़माना …… सिर्फ गुनगुनाना 
अंदर ही अंदर घुलती नदी का 

बशर्ते कोई पढ़ना जानता हो तो 
भौहों के सिमटने और फैलने के अंतराल में भी बची होती हैं वक्र रेखाएं 

आदि काल से 
परम्परागत रूप से 
मन के स्यापों पर रोने को नहीं है चलन रुदालियों को बुलाने का ………

शनिवार, 11 अक्टूबर 2014

आज होगी हर नार नवेली



लीजिये हाजिर है करवाचौथ 
अपने साम दाम दंड भेद के साथ 
आज होगी हर नार नवेली 
नर की होगी जेब भी ढीली 

फिर भी गरियायेंगे 
इक दूजे पर व्यंग्य बाण चलाएंगे 
ये है इक ऐसी पहेली 
सुलझ सुलझ कर हर बार उलझी 

कोई सोलह श्रृंगारा अपनी तस्वीर लगाएगी 
कोई करवाचौथ को ढकोसला बताएगी 
कोई रिश्ते में पड़ी दरार पर लिख जाएगी 
कोई मेहँदी लगे हाथों को चिपका जाएगी 
कोई नववधू  प्रीत के गीत सुना जायेगी 
यूँ फेसबुक पर भी करवाचौथ मना जाएंगी 

वहीँ कोई नर आज खुद को 
एक दिन का खुदा समझेगा 
तो कोई आज के दिन को कोसेगा 
किसी के ज़ख्म हरे हो जाएंगे 
तो कोई बिन पंखों के उड़ रहा होगा 
कोई उपदेश देता नज़र आएगा 
तो कोई खिल्ली उडाता दिख जायेगा 
कोई सिर्फ अपनी छोड़ दूजी नार की तस्वीर पर 
खूबसूरती के कसीदे पढ़ रहा होगा 
फिर चाहे करवाचौथ का रंग एक दिन में उत्तर जाएगा 
मगर अजब गज़ब करवाचौथ को केंद्र बना 
हर कोई अपने - अपने  दिल की लगी कह जायेगा  

जी हाँ , ये है फेसबुक की दुनिया 
यहाँ है सबको मौका मिलता 
अपने सभी हथियारों के साथ 
हर कोई निकालता अपनी भड़ास 


हमने भी निकाली अपनी भड़ास 
लेकिन क्यों हुआ आपका मुखकमल उदास 
सोचा ---मौका भी है और दस्तूर भी 
तो क्यों न बहती गंगा में हाथ धो लिए जाएँ 
कुछ चटपटी  लोकलुभावन बातें की जाएँ 
सबके मुख पर इक मुस्कान खिलाई जाए 
इस बार व्यंग्य पुष्प की वर्षा कर करवाचौथ मनाई जाए :p

देखिये नाराज़ मत होना 
हँसी ठिठोली का है मौका 
यूँ ही मस्ती में दिन गुजर जाएगा 
चाँद का इंतज़ार न बोझिल होगा


गुरुवार, 9 अक्टूबर 2014

कथा - आलोचना




मित्रों 
इस बार के 'हिंदी चेतना' का अक्टूबर से दिसम्बर 'कथा - आलोचना विशेषांक' में मेरे द्वारा लिखी गयी हिंदी चेतना पत्रिका की समीक्षा (पेज ७ )  और एक आलोचनात्मक पाठकीय दृष्टिकोण ( ८९-९० पेज ) छपा है।  

सुशील सिद्धार्थ जी के संपादन में निकला ये विशेषांक उम्मीद से बढ़कर हैं  . सुशील जी की मेहनत साफ़ परिलक्षित हो रही है। सभी जाने माने प्रतिष्ठित साहित्यकारों की उपस्थिति और उनकी कथा कहानी पर आलोचनात्मक प्रतिक्रिया पाठक और लेखक के साथ आलोचक के दृष्टिकोण को तो एक पहचान दिलाएगी ही साथ ही लेखक और आलोचक के बीच की खायी को भी  पाटने की कोशिश करेगी मुझे ऐसी उम्मीद है।  

सुशील सिद्धार्थ जी द्वारा लिखा सम्पादकीय भी इसी दृष्टि को रेखांकित करता है।  क्योंकि अभी इसका इ - वर्जन ही उपलब्ध हुआ है इसलिए पूरा एकदम पढ़ना संभव नहीं मगर जो एक दृष्टि डाली तो लगा ये पत्रिका तो सबके पास होनी चाहिए।  एक ही जगह सभी  विचारों से रु-ब-रु होने का शायद इससे अच्छा मौका जल्दी न मिले।  सुशील सिद्धार्थ जी , पंकज सुबीर जी और सुधा ओम ढींगरा जी की पूरी टीम बधाई की पात्र है। 

जो मित्र पढ़ना चाहें इस लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं :

http://www.vibhom.com/pdf/oct_dec_2014.pdf

बुधवार, 1 अक्टूबर 2014

यादों की गुरमुखी

तेरी याद की सडक 
कभी खुरदुरी तो कभी सपाट 
और मैं 
कभी चलती हूँ 
कभी दौडती हूँ 
तो कभी ठहर जाती हूँ 
किसी सडक किनारे बने बैंच की तरह 
जो सदियों से वहीं है 
कितने ही मुसाफ़िर आयें जायें 
कितने ही मौसम बदलें 
मगर उसका ठहराव अटल है 

ये सदियों से सदियों के सफ़र पर 
चलने वाले मुसाफ़िरों की 
न दिशा होती है न दशा और न मंज़िल 
सिर्फ़ भटकाव के घने काले सायों में 
जीना ही उनका उत्तरार्ध होता है 
जाने क्यों फिर भी चलते चले जाने को अभिशप्त होते हैं 
और सडक है कि जिसका न ओर मिलता है और न छोर 

अब तुम नही हो 
लेकिन तुम्हारे नहीं होने से मेरे होने तक 
बस है तो बीच में ........ एक यादों की सडक 
क्या कभी मिलेगा इसे कोई अनुवादक जो बाँच सके यादों की गुरमुखी ?

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

ज़िन्दगी के पहले जश्न की तरह

जब शब्दों और विचारों का 
तालमेल टूटने लगे 
भावों पर ग्रहण लगने लगे
और अन्दर तू्फ़ान उठने लगे
भयंकर चक्रवात चल रहा हो
अंधड में खुद का वजूद भी
ना मिल रहा हो 
सिर्फ़ हवाओं का शोर मच रहा हो
सन्नाटे चीख रहे हों
 ज़ुबान पर ताले लगे हों
और रूह का कतरा कतरा खामोश हो 
तब कोई कैसे जीये ……बताना ज़रा 

क्योंकि
एक अरसा हुआ 
जारी है मौन का रुदन………मुझमें मेरे गलते , आखिरी साँस लेते वजूद तक 

कोई तो बताये 
अब तडप के भुने चनों पर 
कौन सी चटनी डालूँ 
जो चटकारा लगा सकूँ ………ज़िन्दगी का आखिरी जश्न मना सकूँ?

क्योंकि सुना है 
मौन का रुदन जब होता है 
बस वहीं सफ़र का अंत होता है 
और मैं मनाना चाहती हूँ आखिरी जश्न को 
ज़िन्दगी के पहले जश्न की तरह 
ज़िन्दगी की पहली सुगबुगाहट की तरह
ज़िन्दगी की पहली उजास की तरह 

क्या दे पाऊँगी मौन के रुदन को उसका मूर्त रूप
क्या लगा पाऊँगी कहकहे अपनी किलकारियों के 
क्या लिख पाऊँगी एक नया ग्रंथ मौन के रुदन पर 
उसका प्रथम और अन्तिम प्रयास बन कर
मौन के रुदन का एक शाहकार बनाकर

भविष्य के गर्त में हैं अभी परछाइयाँ
और मैं खेल रही हूँ गीटियाँ वक्त से 
शायद पकड सकूँ कोई गीटी 
और आकार पा जाये रुदन मौन होने से पहले........

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

क्या कहूँ तुम्हें

चाशनी से चिपका कर होठों को 
परिचित और अपरिचित के मध्य 
खींची रेखा से लगे तुम 

अजनबियत का यूँ तारी होना 
खिसका गया एक ईंट और 
हिल गयी नींव 
विश्वास की 
अपनत्व की 

ये कैसी दुरुहता मध्य पसरी थी 
जहाँ न दोस्ती थी न दुश्मनी 
न जमीन थी न आस्मां 

बस इक हवा बीच में पसरी कर रही थी ध्वस्त दोनों ध्रुवों को 
मानो खुश्क समुन्दर पर बाँध बनाना चाहता हो कोई 

ज़ुबाँ की तल्खी से बेहतर था मौन का संवाद ....... है न 
क्या कहूँ तुम्हें ……… दोस्त , हमदम या अजनबी ?

कुछ रिश्तों का कोई गणित नहीं होता 
और हर गणित का कोई रिश्ता हो ही .......  जरूरी तो नहीं 

रविवार, 7 सितंबर 2014

कोई महबूब होता तो


कोई महबूब होता 
तो झटकती जुल्फों से 
गिरती बूंदों को सहेज लेता 

कोई महबूब होता 
तो आँखों में ठहरे 
सागर को घूँट भर पी लेता 

कोई महबूब होता 
तो होठों पर रुकी बातों की 
मुकम्मल इबादत कर लेता 

कोई महबूब होता 
तो अदाओं की शोखियों से 
एक नगमा बुन लेता 

कोई महबूब होता 
तो दर्द की जकड़नों से 
मोहब्बत की रूह आज़ाद कर देता 

कोई महबूब होता 
तो रेशम के पायदानों पर 
गुलाब बिछा सिज़दे किया करता 

कोई महबूब होता 
तो चौखट पर खड़ा हो 
मोहब्बत के मुकम्मल होने तक आमीन किया करता

कोई महबूब होता 
तो चेनाब के पानी से 
मोहब्बत के घड़े भरा करता 

दर्द के गुबार हों 
ज़ख्मों के मेले 
ग़मों के शहरों में 
नहीं लगा करते मह्बूबों के मेले 
ये जानते हुए भी 
जाने क्यों रूह बावस्ता हुए जाती है 
इक अदद महबूब की ख्वाहिश में सुलगे जाती है 
उफ़ ………… मोहब्बत 
क्यों ठहर जाती है तेरी चाहत 
अधूरी प्यास के अधूरे तर्पण सी  
कोई महबूब होता तक ही …… 
 

रविवार, 31 अगस्त 2014

बेबसी के कांटे

बेबसी के कांटे जब आँचल से उलझते हैं 
हम और उन पर पाँव रख रख के चलते हैं 
जुबाँ पर रख के तल्खियों के स्वाद 
अजनबियत का ओढ लिबास संग संग चलते हैं 

जाने किसे दगा देते हैं जाने किससे दगा खाते हैं 
हम बन के इक नकाब जब चेहरों पे पडते हैं 
खानाबदोशी के इकट्ठे करके सब सामान 
उनकी अजनबियत को झुक झुक सलाम करते हैं 

कैफियत दिल की न पूछ अब जालिम
रोज सिज़दे में सिर झुका जहाँ इबादत करते हैं
 खुदा न बनाया न बुत ही कोई सजाया 
यूँ उनकी याद के ताजमहल को गले लगाया करते हैं 

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

मुस्कुराहटों पर से दर्द के लिबास ही उतार दे

कहकहों के सफ़र की जमीन ना पूछ 
दलदली मिट्टी मे धंसे पाँव कब आगे बढे हैं 
मै ना बढा ना सही मगर 
उदासियों के कम्बल तू भी ना ओढ 
हो सके तो इतना कर 
मेरे पाँव के नीचे से ये दलदल निकाल दे 
दे दे मुझे जमीन का एक टुकडा ही 
जिस पर खडे हो आसमाँ निहार सकूँ
कुछ देर मुस्कुरा सकूँ 
कर्ज़ उतारने के लिये 
एक करम इतना ही कर दे .....ओ खुदा 
मुस्कुराहटों पर से दर्द के लिबास ही उतार दे 

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

क्या दिखी तुम्हें ?

नेपाल से निकलने वाली पत्रिका ' शब्द संयोजन ' के अक्टूबर २०१५ अंक में प्रकाशित मेरी कविता :






सूख गए हैं स्रोत गोमुख के 
तक्षशिलाओं  मुहानों पर बैठे  हैं दल्ले 
भोगवादी प्रवृत्ति ने उपजाई हैं कंटकाकीर्ण फसलें 
फिर कैसे संभव है 
अंगूर के मौसम में आम उगाना 
विपरीतार्थक शब्दों को समुच्चय में बाँधना 
रक्ताभ मार्गों में नीलाभ आभा बिखेरना 

जब समय के तंतु बिखर चुके हों 
पहाड़ों के दुःख पहाड़ से हो गए हों 
ग्रह नक्षत्रों की युति 
कालसर्प दोष को  इंगित कर रही हो 
ऐसे समय में 
कैसे संभव है 
पहाड़ का सीना चीर 
दूध की नदिया बहाना 
या मौसमों के बदलने से 
मनः स्थिति का बदलना 
जब चूल्हों की जगह 
कहीं पेट की तो 
कहीं शरीर की भूख की 
लपटें पसरी हों 
और सिंक  रही हो 
मानवता की रोटियां जली फुँकी 

हृदय विहीन समय के 
नपुंसक समाज में 
जीने के शाप से शापित 
समाज का कोढ़ है 
 इंसानियत की बेवा का करुण विलाप 

नैराश्य के घनघोर 
अंधियारे में घिरे 
पुकारते पूर्वजों की चीखें 
बंद कानों पर नहीं गिरा करतीं 
सिर्फ टंकारें 
जो तोड़ती हैं 
वो ही सुनाई देती हैं 
एक ऐसे समय में 
जीने को अभिशप्त मानव 
कहाँ से लाये पारसमणि 
जो जिला दे 
मृत आत्माओं की 
संवेदनाओं को 

व्यग्र माँ पुनरुत्थान को 
कातर निगाहों से 
भविष्य की ओर 
ताक रही है .......... क्या दिखी तुम्हें ?

सोमवार, 11 अगस्त 2014

कुछ सूखे ठूंठ किसी भी सावन में हरे नहीं होते ............

लगता है
सूख चुके सारे स्पंदन
हर स्रोत
हर दरिया
जो कभी बहता था
शिराओं में मोहब्बत बनकर
क्योंकि
अब बांसुरी कोई बजती ही नहीं
जिस की धुन सुन राधा मतवाली हो जाये
मन की मिटटी कभी भीजती ही नहीं
जो कोई अंकुर फूट जाए
शब्दों की वेदियों पर
अब मोहब्बत की दस्तानों का
फलसफा कोई लिखता ही नहीं
जो  एक आहुति दे
हवन पूरा कर लूं
अग्नि प्रज्वलित ही नहीं होती
क्योंकि
सीली लकड़ियाँ आँच पकडती ही नहीं
फिर समिधा हो या अग्नि की उपस्थिति
देवताओं का आह्वान या नवग्रह की पूजा
सब निरर्थक ही लगता है
क्योंकि
दरिया सूख जाये कोई बात नहीं
मगर स्रोत ही विलुप्त हो जायें
स्पंदन ज़मींदोज़ हो गए हों
तो कोई कैसे पहाड़ियों का सीना चीर दरिया बहाए
कुछ सूखे ठूंठ किसी भी सावन में हरे नहीं होते ............

बुधवार, 6 अगस्त 2014

क्योंकि आवाज़ की पगडंडियों के पाँव नहीं होते …………

पगडंडी के
इस  छोर पर मैं
उस छोर पर तुम
बीच में माध्यम
सिर्फ आवाजें
ध्वनि विध्वंस हो
उससे पहले
तुम पुकार लो .............

किसी भी राह से चलो
किसी पगडण्डी तक पहुँचो
माध्यम तो तुम्हें चुनना ही होगा

पुकारने के लिए ..............

इंतज़ार को मुकम्मलता प्रदान करने के लिए ..............
एक अमिट  इतिहास रचने के लिए ................

आओ करें सार्थक अपना होना
आवाज़ की पगडण्डी पर ..............


क्योंकि आवाज़ की पगडंडियों के पाँव नहीं होते …………