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मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

जो बचता है शून्यता के बाद भी

शून्य शून्य और सिर्फ़ शून्य
पता नही फिर भी लगता है
कुछ बचता है कहीं शून्य से परे
स्वंय का बोध
या कोई कडी
अगली सृष्टि की
अलग रचना की
अलग सरंचना की
कुछ तो ऐसा है जो
बचता है शून्य के बाद भी
शून्य से शून्य मे समाना
बदलना होगा इस विचार को
खोजना होगा उस एक तारे को
उस नव ब्रह्मांड को
उस नव निर्माण को

जो बचता है शून्यता के बाद भी

जो मिट्कर भी नही मिटता

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

एक नया इतिहास रचने

मौन की भाषा
अश्रुओं की वेदना
और मिलन ?
कैसे विपरीत ध्रुव
कौन से क्षितिज
पर मिलेंगे
ध्रुव हमेशा
अलग ही रहे हैं
अपने अपने
व्योम और पाताल में
सिमटे सकुचाये
मगर मिलन की आस
ये तो मिलन का
ध्रुवीकरण हो जायेगा ना
बस तुम भी खामोश रहो
मैं भी खामोश चलूँ
संग संग नि:संग होकर
एक नया इतिहास रचने
चलो हम चलें
शायद तब कोई
नयी कविता जन्मे
और हमें
नए आयाम दे

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

दरिया वापस नही मुडा करते

मै तो आज भी
वहीं उसी मोड पर
खडी हूँ
जहाँ समय ने
तुम्हे मुझसे
...छीना था
मगर तुम ही
ना जाने कब
और कैसे
समय के साथ
बह गये
दरिया वापस
नही मुडा करते

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

हाँ ..........बचपन याद आ गया

एक बेफ़िक्री का आलम होता था
वो छत पर सोना तारों को निहारते हुये……
वो बारिश मे भीगना सखियों संग
वो नीले आकाश मे
पंछियों को उडते चहचहाते देखना
रात को हवा ना चलने पर
 पुरो के नाम लेना
वो सावन मे झूलों पर झूलना
कभी धूप मे खेलना
तो कभी शाम होते ही
छत पर धमाचौकडी मचाना 
कभी पतंगो को उडते देखना
तो कभी उसमे शामिल होना ,
कभी डूबते सूरज के संग
उसके रंगो की आभा मे खो जाना ,
कभी गोल गोल छत पर घूमना
और अपने साथ - साथ
पृथ्वी को घूमते देखना और खुश होना
आह! बचपन तेरे रंग निराले
सुन्दर सुन्दर प्यारे प्यारे
मगर अब ना दिखते ये नज़ारे
मेरे बच्चे ना जान पायेंगे
ये मासूम लम्हे ना जी पायेंगे
यादो मे ना संजो पायेंगे
आज न वो खेल रहे
न वो वक्त रहा   
पढाई  के बोझ तले
बचपन इनका दब गया  
उम्र का एक हिस्सा 
जो मैंने जी लिया
कैसे बच्चे जान पाएंगे  
सिर्फ यादों में बसर रह पाएंगे
एक सुखद अहसास का दामन
जिनका यादो मे बसेरा है
आज एक बार फिर
मुझे मुझसे मिला गया
मुझे भी बचपन याद आ गया
हाँ ..........बचपन याद आ गया 


सोमवार, 11 अप्रैल 2011

स्वादहीन फ़ीका बासी खाना लगती है ज़िन्दगी


स्वादहीन फ़ीका बासी खाना लगती है ज़िन्दगी
जब तक कि रूह के चौबारे पर ना उतरती है ज़िन्दगी

ये सब्ज़ियों के पल पल बदलते स्वाद मे उतरती है ज़िन्दगी
जब तक कि आत्मिक स्वाद को ना चखती है ज़िन्दगी

ये देवताओं सा अच्छा बुरा फ़ल देती है ज़िन्दगी
जब तक कि देवाधिदेव से ना मिलती है ज़िन्दगी

ये दिवास्वप्न सा भ्रमित करती है ज़िन्दगी
जब तक कि समाधिस्थित ना होती है ज़िन्दगी

ये अवसान मे भी बहुत उलझती है ज़िन्दगी
जब तक कि गरल को भी न अमृत समझती है ज़िन्दगी

ये भोर को भी अवसान समझती है ज़िन्दगी
जब तक कि जीने का मर्म ना समझती है ज़िन्दगी

ये संसार के झूठे मायाजाल मे उलझती है ज़िन्दगी
जब तक कि नीम के औषधीय गुण ना समझती है ज़िन्दगी

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

गरीबी के सिर्फ़ आंकडे होते हैं

गरीबी के सिर्फ़ आंकडे होते हैं………आकलन नही
नसीब का सिर्फ़ एकाउंट होता है………बंटवारा नहीं
हुस्न के सिर्फ़ नखरे होते हैं………हकीकत नही
मोहब्बत के सिर्फ़ सपने होते हैं………पैमाने नही
 
 
शब्दों का आलिंगन रोज करती हूँ
तब कुछ देर के लिये जी लेती हूँ
ये शब्द ही हैं जो हमे
जीने की कला सिखाते हैं
कभी शब्द रूह बन जाते हैं
कभी रूह शब्दो मे उतर आती है
 
 
अपनो के हाथ का मारा है हर शख्स
ज़िन्दा है मगर ज़िन्दगी का मारा है हर शख्स
मौसम सी बदल जाती हैं शख्सियतें 
मिज़ाज़पुरसी की चाहत का मारा है हर शख्स
 




कमबख्त कौन से युग मे पैदा हो गया 
जहाँ साया भी अपना होता नहीं
फिर गैर तो गैर ही होते हैं 
उम्र भर ये ही नही जान पाया 
बदनामी ओढ कर 
इंसानियत के चोले मे 
वजूद को ढांप कर सो गया
कमबख्त कौन से युग मे पैदा हो गया

 

 

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

कहीं देखा है ऐसा आशियाना ?

ए मेरे ख्वाब
डरती हूँ
तुझे साकार करने से
कहीं ज़माने की
नज़र ना पड़ जाये
कहीं कोई दूजा
तुझे ना नैनों से
चुरा ले जाये
कहीं कोई
और आँख
ना तुझे भा जाए
और मेरा वजूद
जो मैं
तुझमे देखती हूँ
किसी और की
आँख का खवाब
ना बन जाए
और मेरी नज़र
रीती ही रह जाये
कभी कभी
चाह होती है
तुझे पाने की
तुझे देखने की
तुझे आकार देने की
मगर डरती हूँ
इसलिए ना
नैन बंद करती हूँ
सिर्फ तुझे
अपने अहसास में ही
जी लेती हूँ
दिल का हर हाल
कह लेती हूँ
कुछ इस तरह
गुफ्तगू कर लेती हूँ
क्या देखा है
तूने मुझे कभी
ए  ख्वाब
हवाओं में उड़ाते हुए
बादलों पर तैरते हुए
आसमानों को छूते हुए
किसी फूल की खुशबू
सहेजते हुए
किसी से दिल लगाते हुए
किसी को अपना बनाते हुए
किसी से दिल की कहते हुए
किसी के अश्कों में बहते हुए
किसी के दिल की धड़कन
बनते हुए
नहीं ना ............
डरती हूँ ना
ख्वाब सजाने से
तुझे आकार देने से
इसीलिए तुझे सिर्फ
अहसासों में पिरो लिया है
अब हर पल
हर सांस के साथ
हर धड़कन के साथ
आँख की पुतली
 बन रहता है
नज़र ना किसी को
आता है
मगर मेरे संग संग
रहता है
कहीं देखा है
ऐसा आशियाना ?

शनिवार, 2 अप्रैल 2011

छलावा

तू और तेरी याद
इक छलावा ही सही
छले जाने का भी
अपना ही मज़ा होता है
ज़िन्दगी रोज़ मुझे
छलती है----सोचा
इक रोज़ ज़िन्दगी को
छल कर देखूँ
और कौन ……तुम ही तो हो
मेरी ज़िन्दगी
मेरी याद
मेरी रूह
मेरा चैन
मेरे आरोह
मेरे अवरोह
तो क्या हुआ
जो इक बार
खुद से खुद को
छल लिया
जीने के लिये
कुछ तो वजह
होनी चाहिये

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

आज मूर्खोत्सव कुछ ऐसे मनाया

आज मूर्खोत्सव कुछ ऐसे मनाया
उनको बिना तेल पानी के झाड़ पर चढ़ाया
बिना बात ही उन्हें सरताज कह दिया
मानो आज तो उन्हें कोहिनूर मिल गया
ख़ुशी के मारे ऐसे उछल रहे हैं
जैसे उल्लू दिन में देख रहे हैं
आज उन्हें अपना lifeguard बताया
फिर तो जैसे आसमाँ जमीन पर उतर आया
बिना संगीत के आगे पीछे नाच रहे हैं
पाँव ना जमीन पर पड़ रहे हैं
अब उन्हें लिस्ट पकड़ा दी है
शौपिंग , outing , खाने पीने का
सारा प्लान समझा दिया है
बिना मेहनत के रंग जमा दिया है
आज के दिन का फायदा उठा लिया है
उनको महामूर्ख का ख़िताब दिला दिया है
तो तुम भी गुरु हो जाओ शुरू
बना लो दिन को दिवाली
एक पांसा फेंको और तमाशा देखो
महामूर्ख दिवस का कमाल देखो
अपने अजीजों को बेहाल देखो

गुरुवार, 24 मार्च 2011

ए .........एक बार पुकार लो ना

आज मोहब्बत चरम पर है शायद
तभी तुम , तुम्हारी याद , तुम्हारी परछाईं
सभी जान लेने पर तुली हैं
ए .........एक बार पुकार लो ना

मेरे मन के रेगिस्तान में
जब से तुम्हारे प्रेम का
फूल खिला है सनम
अब कैक्टस भी
गुलाब नज़र आता है

आज दिल काबू में नहीं
ये कैसा जादू कर दिया
मुझे मुझसे ही जुदा कर दिया
हाय ये क्या सितम कर दिया

आह! आज ये क्या हो गया है
क्या मौसम जवाँ हो गया है
या दिल बेकाबू हो गया है
जो तुम इतना याद आ रहे हो
ए .........एक बार पुकार लो ना 

शायद दिल कुछ सम्हल जाये
शायद अरमान कुछ निकल जायें
शायद इक हसरत ही निकल जाये
दिल की जुस्तजू परवान चढ जाये
बस ………एक बार पुकार लो ना

सोमवार, 21 मार्च 2011

उदास हूँ मैं………

अब न तुम्हारी याद
तुम्हारा ख्याल
और ना ही तुम
कोई नही होता
आस पास मगर
फिर भी
उदास हूँ मैं………


ना कोई काँटा
ना कोई टीस
ना कोई चाहत
अब पांव पसारती है
फिर भी
उदास हूँ मैं………


न कोई सपना
आंखो मे सजता है
ना कोई अरमान
दिल मे जगता है
ना कोई प्रीत
सहलाती है
मगर
फिर भी
उदास हूँ मैं………

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

सजन से मिलन का एक रंग

होली के रंग… मन में उमंग… दिल में तरंग……
सजन से मिलन का एक रंग



घूंघट की ओट में
सकुचाई लजाई
सजनिया
पी का रास्ता
निहार रही
आँखों में भर के
प्रीत के बादल
सजन का रास्ता
निहार रही
नैनों में छाये
रंग हजार
तन मन में
उठती प्रीत की
बयार
सब से है
छुपाय रही
कब आवेंगे
मोरे सांवरिया
प्रेम के रंगों की
लेके फुहरिया
नैन मूंदे
सोच रही थी
सपनो में उनके
खो रही थी
सुध बुध अपनी
भूल गयी थी
तभी आये
चुपके से सांवरिया
ले के हाथ में
रंगों की पुडिया
सजनिया पर
रंग बरसा गए
प्रेम रंग में
नहला गए
प्रीत का रंग
चढ़ा गए
हर्षित हो गयी
अब तो सजनिया
रंगों में खुद भी
डूब गई बावरिया
साजन ने पकड़ी
नाजुक कलइयाँ
रंग में भिगो दी
सारी चुनरिया
बाहो मे भर लीन्ही
सजनिया
कपोल पर अंकित
कर दीन्ही निशानियां
लाज को ताक पर
रख गये सांवरिया
होरी के बहाने
कर गए
छेड़छाड़ सांवरिया
ऐसी कर गये
ठिठोली सजनवा
प्रीत को कर गये
लाल सांवरिया


सोमवार, 14 मार्च 2011

सोन चिरैया

मैं और मेरा आकाश
कितना विस्तृत
कितनी उन्मुक्त उड़ान
पवन के पंखों पर
उडान भरती
मेरी आकांक्षाएं
बादलों पर तैरती
किलोल करती
मेरी छोटी छोटी
कनक समान
इच्छाएं
विचर रही थीं
आसमां छू रही थीं
पुष्पित
पल्लवित
उल्लसित
हो रही थीं
खुश थी मैं
अपने जीवन से
आहा ! अद्भुत है
मेरा जीवन
गुमान करने लगी थी
ना जाने कब
कैसे , कहाँ से
एक काला साया
गहराया
और मुझे
मेरी स्वतंत्रता को
मेरे वजूद को
पिंजरबद्ध कर गया
चलो स्वतंत्रता पर
पहरे लगे होते
मगर मेरी चाहतों
मेरी सोच
मेरी आत्मा
को तो
लहूलुहान ना
किया होता
उस पर तो
ना वार किया होता
आज ना मैं
उड़ पाती हूँ
ना सोच पाती हूँ
हर जगह
सोने  की सलाखों में
जंजीरों से जकड़ी
मेरी भावनाएं हैं
मेरी आकांक्षाएं हैं
हाँ , मैं वो
सोन चिरैया हूँ
जो सोने के पिंजरे
में रहती हूँ
मगर बंधनमुक्त
ना हो पाती हूँ

गुरुवार, 10 मार्च 2011

इक प्यास कायम रखता है

अरे क्या करेंगे जानकर
कितना जानेगे किसी को
क्या पूरा जान सकते हैं ?
कभी नहीं ..........
तो अच्छा है
confuse ही रहें
कुछ तो बचा रहेगा
अन्जाना सा
और अनजानेपन की
सौंधी मिटटी में  भी
बहुत से ख्वाब
छुपे होते हैं
और उन ख्वाबों की
धरती बहुत नम होती है
ऊंगली से छुयो तो भी
निशाँ पड़ जाते हैं
तो ऐसे में कहो
क्या करेंगे किसी को
पूरा जानकर
फिर इस अनजानेपन की
महक कैसे ले पाएंगे
रहने दो कुछ तो
अधूरा सा
अधूरापन भी
इक प्यास कायम रखता है

मंगलवार, 8 मार्च 2011

आज तो बेटी कहती है……

आज तो बेटी कहती है…………
बाबा वर तुम मत ढूँढना
मै जिसे लाऊँ बस
उसे स्वीकार कर लेना
पैसे ,स्टेट्स ,रूप बिना
क्या कोई स्थान मिलता है
जैसे कन्या के पिता की
जायदाद देखकर उसे
स्वीकारा जाता है
ऐसे ही
अब तो वर का सिर्फ़
बैंक बैलेंस से चयन होता है
गर खुद ढूँढ कर लाओ तो
याद ये कर लेना
बेटी हूँ कोई ढोर डंगर नही
किसी के गले भी मढ दोगे
अब तो जो मेरे मन को भायेगा
वो ही जीवनसाथी बन पायेगा
जरूरत नही किसी से कहने की
किसी की सुनने की
बेटी हूँ तो क्या हुआ
किसी से कम नही
जो जो शर्त वो बतलाये
वो ही तुम भी दोहरा देना
गर तुम ना कह पाओ तो
मुझको बतला देना
जरूरत नही किसी के आगे
सिर झुकाने की
कोई बोझ नही हूं तुम पर
गर्व से सिर ऊँचा कर लेना
जब भी बेटी का कोई नाम ले
कह देना --हाँ बेटी का बाप हूँ
अब दान नही देता हूँ
बराबर का रिश्ता करता हूँ
जो भी आकाँक्षाये तुम्हारी है
उनसे कम मेरी बेटी की भी नही
गर बराबर का मिले कोई
तभी बात तुम कर लेना
वरना बाबा तुम ही
रिश्ता तोड देना
मानसिकता को अब
बदलना होगा
नयी पहल करनी होगी
गर तुम ना कर पाओ तो
मुझे बतला देना
मै स्वंय कदम उठा लूँगी
मगर अब ना किसी के आगे
किसी बात पर सर तुम्हारा
न झुकने दूँगी
मै भी वो सब देखूँगी
वो सब चाहूँगी
जो हर बेटे वाला चाहता है
जो गुण अवगुण
रोक टोक लडकी पर
लगाये जाते हैं
मै भी वैसा ही कर दूँगी
मगर अब न तुम्हारी पगडी
किसी के पैरो मे रखने दूँगी
बाबा वर तुम मत ढूँढना
मानसिकता को अब बदलना होगा
नया इतिहास रचना होगा
वक्त के सीने पर
स्वर्णाक्षरो से लिखना होगा
बेटी किसी से कम नही
ये तुम्हे भी समझना होगा

दुनिया को भी समझाना होगा
दस्तूरों को बदलना होगा
रूढियों को तोडना होगा
तभी सैलाब आयेगा
तभी इंकलाब आयेगा
फिर ना कोई बेटी 
दहेज की बलि चढ पायेगी
ना ही परम्पराओं के नाम पर
कुर्बान की जायेगी
शायद भ्रूण हत्यायें 
भी रुक जायेंगी
और फिर
नयी आशायें झिलमिलायेंगी
इक नये युग का अवतार होगा
और बेटियाँ माथे का 
तिलक बन जायेंगी

गुरुवार, 3 मार्च 2011

पता नहीं क्यों…………

पता नहीं क्यों
बसते हो तुम मुझमे
कितनी बार चाहा
तोड़ दूँ चाहत का भरम
हर बार तुम्हारी चाहत
मुझे कमजोर कर गयी

पता नहीं क्यों

इतना चाहते हो मुझे
कितनी बार चाहा
भूल जाओ तुम मुझे
हर बार तुम्हारा प्यार
मंजिल से मिला गया

पता नहीं क्यों

याद करते हो मुझे
कितनी बार चाहा
लगा दूँ ताला 

दिल के दरवाज़े पर
हर बार तुम्हारी

भीगी नज़रें
भिगो गयीं मुझे
और मैं 

तेरे प्रेम के आगे
खुद से हार गयी

सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

मैं दर्द में घुली इक नज़्म बनी होती

मैं 
दर्द में घुली इक नज़्म बनी होती
हर हर्फ़ में दर्द की ताबीर होती 
कुछ तो लहू- सा दर्द रिसा होता
हर्फों के पोर- पोर से तो
और हर पोर हरा बना होता 
असीम अनुभूत वेदना का 
साक्षात्कार किया होता 
तो शायद दर्द भी 
पनाह मांग बैठा होता
दर्द के आगोश में मैं क्या
दर्द ही मेरे आगोश में
सिमट गया होता
कुछ तो दर्द को भी
सुकून मिल गया होता
मेरे दर्द की जिंदा लाश पर
कुछ देर दर्द भी जी लिया होता    

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

हर चीज़ की कीमत होती है............

न जाने 
इतनी क़ुरबानी 
देनी पड़ी होगी
न जाने कितने 
अपनों का 
साथ छूटा होगा
न जाने कितनी 
हसरतों को 
दफ़न किया होगा
न जाने कितने 
मौसमों पर बसंत
आया  ही न होगा
न जाने कितनी
अरमानों की 
लाशों पर
पैर रख तू 
आगे बढ़ा होगा 
सिर्फ एक चाहत को
बुलंदी पर पहुँचाने के लिए 
आसमान को छूने की 
ऊंचाई पर पहुँचने की
चाहत की कुछ तो 
कीमत चुकानी पड़ती है
क्या हुआ गर 
"मैं" तुम से दूर हूँ तो 
क्या हुआ गर आज 
मेरी चाहत की कब्र 
पर पैर रख तुमने 
अपनी चाहतों को 
बुलंद किया 
मैं तो राह का 
वो पत्थर थी 
जो तुम्हारी
ऊंचाइयों में    
मील का पत्थर बनी 
शुक्र है पत्थर ही सही
तुम्हारी कामयाबी में 
कुछ तो बनी 
हर चीज़ की कीमत होती है
और ऊंचाई पर पहुँचने की
कीमत सभी को 
चुकानी पड़ती है
और तुम्हारी
ऊंचाई की
कीमत "मैं " हूँ

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

बदले अर्थ

रोने के भी क्या 
अर्थ होते हैं ?
हाँ , शायद 

एक रोना जब
दर्द हद से गुजरे तब
या कोई बच्चा रोये तब
या जब कोई अपना बिछुड़े तब

कभी विरह के
कभी ख़ुशी के
कभी गम के
अश्क उतरे जब भी
असर कर गए
मगर जब कोई 
स्वार्थ में रोये तब 
जब कोई दिखावटी रोये 
तब शायद अर्थ बदल जाते हैं 
न अश्क सच्चे होते हैं 
न रोना अर्थपूर्ण
मगर असर वो भी 
कर ही जाता है 
शायद हकीकत से भी ज्यादा

आज दुनिया 
दर्द की इन्तिहाँ 
शोर में सुनती है
बिन ढलके जो 
अश्क जज़्ब होते हैं 
उस रोने का भी 
क्या कोई अर्थ होता है?

ये दुनिया अपने 
अर्थ बनाती है
अपनी कसौटी पर
परखती है और 
जहाँ जितना दिखावा हो 
उसे उतना ही 
ग़मज़दा समझती है 

शायद तभी आज 
रोने के भी 
अर्थ बदल गए हैं  

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

उफ़ ! कब और कैसे

उसने नज़रों से छुआ
तो भी सिहर गयी
उफ़ ! कब और कैसे
दिल की ये हालत हो गयी


वो बेसाख्ता हँस पड़ा
और मैं खुद में सिमट गयी
उफ़ ! कब और कैसे
नज़र ये चार हो गयी


उसकी सांसो को छूकर
पुरवा जो उतरी मुझमे
उफ़ ! कब और कैसे
खुद से मै बेगानी हो गयी

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

हाट में बिकते दिल देखो

प्यार के निराले खेल देखो
हाट में बिकते दिल देखो

प्रेम प्रतीक की बेकदरी देखो
कोई तोड़ देती है
कोई फेंक देती है
होता है बुरा हाल तब
जब किसी और को दे देती है
गुलाब की आई शामत देखो
हाट में बिकते दिल देखो


वादों की बदहाली देखो
पब, रेस्तरां, नाईट क्लब में जाते हैं
जोड़े नाचते गाते हैं
कसमें वादे भी करते हैं मगर 
प्रेम इज़हार एक से करते हैं
जाते दूजे के साथ हैं
और तीसरे के साथ निकलते हैं
वैलेन्टाइन डे की चाल मतवाली देखो
ये एक हाथ से बजती ताली देखो
प्रेम की छटा निराली देखो




मोल भाव यहाँ भी होता है
गिफ्टों से प्रेम तोला जाता है
महंगे गिफ्ट वाला ही 
कन्या का सानिध्य पाता है 
प्रेम का अजब खेल है ये
एक ही दिन में सिमट जाता है
किसी का दिल टूट जाता है
किसी का दिन बन जाता है
कोई धोखा खाता है
तो कोई हँसता गाता है
मगर अमर प्रेम ना कोई पाता है
ये झूठे प्रेम की क्रांति देखो
मन में बैठी भ्रान्ति देखो
प्रेम की नयी परिभाषा देखो
झूठी इक अभिलाषा देखो


वैलेन्टाइन डे के नाम पर 
मिटती मर्यादा देखो
झूठ फरेब की नयी दुनिया देखो
जानते बूझते हाथ जलाते देखो
इक पल की चाह में
खुद को बहलाते देखो
ये आडम्बर के खोल में लिपटी
आधुनिक कहलाती दुनिया देखो
बाहरी संस्कृति से प्रेरित 
बहकती युवा पीढियां देखो
ये आधुनिकता का दंभ भरती
इधर उधर भटकती दुनिया देखो
प्यार के निराले खेल देखो
हाट में बिकते दिल देखो

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

सबका अपना दृष्टिकोण

क्या अच्छा क्या बुरा
सबका अपना दृष्टिकोण
किसी के लिए जो अच्छा
वो दूजे के लिए बुरा
फिर कैसे अच्छे बुरे की
परिभाषा बांचे हम

शायद होता तो सब
अच्छा ही है दुनिया में
सिर्फ दृष्टिकोण के फर्क से
इन्सान ही बुराई ढूँढ लेता है
और अपने मन मुताबिक
अपने पैमाने बना लेता है
और नयी परिभाषा गढ़ लेता है

फिर कैसे अच्छे बुरे को बांचे हम
कैसे किसी को कम आंके हम
क्यों न अपनी सोच बदलें हम
हर बात मे अच्छा देखें हम
नज़र बदलते ही नज़ारा बदल जायेगा
जो बुरा नज़र आता था अच्छा नज़र आयेगा
फिर जीवन सबका संवर जायेगा
एक स्वर्ग धरती पर भी उतर आयेगा

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

कैसे मन मे बसंत हो?

एक रात की नीरवता
एक मन की व्यथा
एक ओस की बूँद
जीवन क्षण भंगुर
फिर कैसे नव निर्माण
संभव हो
कैसे  कोई स्पंदन हो
कैसे मन में  बसंत हो

एक ख्वाब का आलिंगन
एक अंधेरे का सूनापन
एक दर्द की पराकाष्ठा
खुद ही अपना तर्पण
फिर कैसे ज्योति
प्रज्वलित हो
कैसे अन्तस रौशन हो
कैसे मन मे बसंत हो


अव्यक्त से व्यक्त
होने की आतुरता
साकार को पाने की
तुच्छ लालसा
क्लिष्ट मन की
भीषण आकुलता
और राह अगम्य
फिर कैसे दिव्य दर्शन हो
कैसे आत्मावलोकन हो
कैसे मन मे बसंत हो

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

वन्दे ब्लोगिस्तान............

आओ ब्लोगरों तुम्हें दिखाएं झांकी ब्लोगिस्तान की
इस ब्लोगिंग को नमन करो ये ब्लोगिंग है कमाल की 
वन्दे ब्लोगिस्तान , वन्दे ब्लोगिस्तान  


बड़े बड़े दिग्गज यहाँ पर मुँह की खाके जाते हैं 
ऐरे- गिरे नत्थू खैरों के भी दांव चल जाते हैं
हिंदी इंग्लिश भाषा -भाषी यहाँ मिलते हैं बड़े प्यार से 
जिनकी रग -रग में बहती हैं धाराएं ब्लॉगिंग नाम की
इक धारा में बहते सारे , बनते मोती ब्लोगिस्तान के
इस ब्लोगिंग को नमन करो ...................


छोटी मोटी बाधाएं ना ब्लोगरों को हिलाती हैं 
यहाँ लिखी रचनायें भी मील का पत्थर बन जाती हैं 
समीक्षाएं भी हो जाती हैं कालजयी भी बन जाती हैं
साहित्य की हर विधा यहाँ पर जानी जाती है 
नमन करो उस ब्लागस्पाट को जो ब्लोगिंग से जुड्वाता है
अन्दर बैठे कलाकार को बाहर लेकर आता है
 वन्दे ब्लोगिस्तान वन्दे ब्लोगिस्तान 




टिप्पणियां नाच नचाती हैं कभी अग्रीगेटर नाच नाचते हैं
मगर हम ब्लोगर हर बाधा को धता बताते हैं 
ब्लोगिंग की बहती धारा अपना इतिहास बनाएगी 
आने वाली पीढ़ियों को स्वच्छ सन्देश पहुंचाएगी
सलाम करो उस जज्बे को जो ब्लोगर मीट कराती है 
विश्व पटल पर हिंदी ब्लोगिंग अपना परचम फहराती है 
इस ब्लोगिंग को नमन करो ...............................

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

जीने के नए मानक गढ़ती हूँ…………

रोज नए चेहरे
छलने आते हैं
मुझे छल छल
जाते हैं और मैं
उस छल को जानकर भी
खुद को छलवाती हूँ
और कुछ देर के लिए
हकीकत से
पलायन कर जाती हूँ
मै ऐसा क्यूँ करती हूँ
ये एक प्रश्न है जिसका
उत्तर नहीं पाती हूँ
या
शायद जानती भी हूँ
मगर अन्जान रहना
चाहती हूँ
कुछ देर भ्रम में
जीने के लिए
या
 खुद से ही
भागना चाहती हूँ
इसलिए भ्रम में
जीकर हकीकत से
टकराने की कुछ
हिम्मत जुटाती हूँ
और बार बार
छली जाकर
एक नया अंकुर
उपजाती हूँ
खुद के पलायन से
नया तोहफा पाती हूँ
जीने के नए
मानक बना पाती हूँ
वो कहते हैं ना
गिर गिर कर ही इन्सान
संभालना सीखता है
और मैं खुद को छलवाकर
जीना सीखती हूँ
जीने के नए मानक
गढ़ती हूँ

शनिवार, 29 जनवरी 2011

अर्थ

इतना मुश्किल है क्या
हँसी का अर्थ ढूंढना
अभी तो सिर्फ एक ही
अर्थ कहा है ढूँढने को
गर रोने के अर्थ
ढूँढने पड़ते
तो शायद सदियाँ
गुजर जातीं
और तुम
रीते हाथ
वापस आ जाते
एक मुस्कान चस्पा
करके
और उस हँसी का
अर्थ तब शायद
मैं बता देती
मगर तुम
तुम तो शायद
किसी भी हँसी
का कोई अर्थ
नहीं जानते
या जान कर
अनजान बनते हो
कहीं अर्थ का
अनर्थ ना बन जाये
और कोई हँसी
तुम्हारा पर्याय
ना बन जाये

सोमवार, 24 जनवरी 2011

फिर कैसा गणतंत्र प्यारे

ये कैसा गणतंत्र है प्यारे
ये कैसा गणतंत्र ?

जो करते  घोटाले 
देश को देते  बेच
उसी को हार पहनाते हैं
देश की खातिर 
जान गंवाने वाले तो
रूखी सूखी खाते हैं
ये कैसा गणतंत्र है प्यारे
ये कैसा गणतंत्र ?


चोर- बाजारी, सीना -जोरी
कपट, छल छिद्र जो बढ़ाते हैं
ऐसे धोखेबाजों को ही 
सत्ता सिर पर बैठाती है
ईमानदार और मेहनतकश तो 
रोज़ ही मुँह की खाते हैं
ये कैसा गणतंत्र है प्यारे
ये कैसा गणतंत्र?


स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति भी
खरीदी बेची जाती है 
त्राहि- त्राहि करती जनता 
महंगाई से पिसती जाती है
हाहाकार मचा हो जहाँ
वहाँ राष्ट्रमंडल खेल कराते हैं
बची -खुची खुशियाँ भी  
खेलों की भेंट चढाते हैं 
सत्ता के लालच में जो 
भ्रष्टाचारियों से हाथ मिलाते हैं 
झूठे सच्चे वादों से 
जनता को लूटे जाते हैं 
भ्रष्टाचारी को ताज पहनाकर
अपनी शान बढ़ाते हैं 
मगर गणतंत्र देने वालों
को ही ह्रदय से भूल जाते हैं
फिर कैसा गणतंत्र प्यारे 
फिर कैसा गणतंत्र ?


सरहद पर जवान शहीद हुए जाते हैं 
मगर पडोसी को न मुंहतोड़ जवाब दे पाते हैं 
बस उसी को मुख्य अतिथि बनाते हैं 
जो पडोसी को शह देता है 
आतंकवाद के दंश से सुलगते 
देश को न बचा पाते हैं 
ईंट का जवाब पहाड़ से न दे पाते हैं 
फिर कैसा गणतंत्र प्यारे 
फिर कैसा गणतंत्र ?


शनिवार, 22 जनवरी 2011

एक जरूरी सूचना ...........

 एक जरूरी सूचना ...........

मिडिया के साथ ब्लॉगर मीट दिल्ली में 

आज दिल्ली के आदर्श नगर शिव मंदिर में ब्लॉगर मीट का आयोजन किया गया  जिसमे मुख्य अतिथि के रूप में  मदन विरक्त जी लक्ष्मी नगर से तथा डॉक्टर के . डी. कनोडिया आदर्श नगर से पधारे ...........इन सबके अलावा अविनाश वाचस्पति जी , राजीव  तनेजा जी , अजय कुमार झा जी , इंदु पूरी जी , वंदना गुप्ता जी , संगीता स्वरुप जी , पवन चन्दन चौखट जी , केवल राम जी , पदम् सिंह जी , उपदेश सक्सेना जी ,सुमित प्रताप जी और मेरे समेत काफी ब्लोगर्स  तथा मिडिया से जुड़े लोग एकत्रित हुए ............अभी सिर्फ इतना ही बाकी पूरा समाचार कल देखिएगा ............फ़िलहाल एक सूचना ….

आज के कार्यक्रम को 
आप इंडिया न्यूज़ चैनल पर
आज शाम ७:३० बजे देख सकते हैं .

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

अब सरसों खेतों में कहाँ उगती है

अब सरसों खेतों में कहाँ उगती है 
यादों के लकवे पहले ही उजाड़ देते हैं


अब भंवर नदिया में  कहाँ पड़ते हैं
अब तो पक्के घड़े भी डुबा देते हैं 


अब खुशबू मुट्ठी में कहाँ कैद होती है
इंसानी सीरत सी बाजारों में बिक जाती है 


अब रागों की बंदिशें कहाँ सजती हैं 
अब तो साज़ ही आवाज़ बदल देते हैं 


अब ख्वाब आँखों में कहाँ सजते हैं
ख्वाब से पहले इन्सान ही बदल जाते हैं  

अब वादियों में फूल कहाँ खिलते हैं
हर तरफ लहू के दरिया ही नज़र आते हैं  

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

दिशाबोध

दिग दिगन्त तक दिग्भ्रमित 
करतीं अनंत मृगतृष्णायें
दिशाभ्रम का बोध कराती हैं
जीवन दिशाहीन  बना जाती हैं
मगर दीप सा देदीप्यमान होता
आस का दीपक 
दिग्भ्रमित दिशाओं को भी
दिशाबोध करा जाता है 



जितना तुम्हें पोषित किया

उतना तुमने मुझे शोषित किया

ब्रह्मांड की तरह अनंत


विस्तृत इच्छाओं

लो आज मैने तुम्हारा

बहिष्कार किया

सोमवार, 10 जनवरी 2011

मुझे तो इंसान अभी अभी मिला

वो कहते हैं इंसान कहीं खो गया
मगर मुझे तो अभी अभी मिला


अलमस्त,बदमस्त ,बेफिक्र सा
सारे जहाँ को दामन में लपेटे हुए
दुनिया को मुट्ठी में कैद करता हुआ
जनहु ऋषि सा ओक में पीता हुआ
गंगा को अपवित्र करता हुआ
अपने हाथ में भगवान पकडे हुए
ऊँगली के इशारे पर नचाता हुआ सा
मुझे तो इंसान अभी अभी मिला


एटम बम बनाता हुआ

संसार को दाढ़ों में चबाता हुआ
मानवता को मसलता हुआ
शैतान को मात करता हुआ
आगे बढ़ने की चाह में
अपनों के सिर कुचलता हुआ
मुझे तो इंसान अभी अभी मिला


जीने के नए मानक गढ़ता हुआ
पीर पैगम्बर से ना डरता हुआ

अमनोचैन को नेस्तनाबूद करता हुआ 
खुद को खुदा समझता हुआ 
मरे हुए को और मारता हुआ 
मुझे तो इंसान अभी अभी मिला

शनिवार, 1 जनवरी 2011

शैशवावस्था में हूँ ...........

आज मै दस की हो ली
अब ग्यारहवें वर्ष में
प्रवेश किया है
चाहती हूँ आप सभी
इस  आने वाले
मेरे दशक में
मेरे साथी बनें
ये मेरे जीवन का
एक बहुत ही
उन्नत काल है
यहीं से तो मुझे
दिशा मिलेगी
और इसी में
मोहब्बत भी
परवान चढ़ेगी
देखो मुझे
संभाल लेना
बहकने मत देना
आप सबकी
छोटी सी प्यारी सी
नटखट सी
गुडिया हूँ
बचपन और यौवन
की संधि का वय: काल
हर नव - यौवना  के
जीवन का सबसे
नाज़ुक और अहम्
काल होता है
मुझे यौवन की
दहलीज पर
फिसलने मत देना
मुझ संग
सहयोग करना
फिर कल तुम्हारा
और मेरा
दोनों का
सँवर जायेगा
ज़िन्दगी को इक
दिशा दे जायेगा
आने वाल कल
रौशन  हो जायेगा
मेरा ख्याल रखना
फिर तुम्हारा भी
भविष्य खुशहाल
हो जायेगा
ज़िन्दगी को
फूलों सा महका जायेगा
देखो ना.............
मैं २१ वीं सदी हूँ
मगर अभी तो
बच्ची हूँ
शैशवावस्था में हूँ ..........



दोस्तों ,
नववर्ष की ये नयी सुबह आप सबके जीवन में खुशियाँ  , सुख और समृद्धि लेकर आये .......... आपके  और आपके परिवार के लिए नव वर्ष मंगलमय हो.आपका लेखन और उन्नत हो .

शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

मैंने खुद से खुद को जो जीत लिया ............

जीवन कब बदलता है
ये तो नज़रों का धोखा  है
खुद से खुद को छलता है
यूँ ही उत्साह में उछलता है

ना कल बदला था

ना आज बदलेगा
ये तो जोगी वाला फेरा है
आने वाला आएगा
जाने वाला जाएगा
पगले तेरे जीवन में
क्या कोई पल ठहर जायेगा
जो इतना भरमाता है
खुद से खुद को  छलता है

क्यूँ आस के बीज बोता है

क्यूँ उम्मीदों के वृक्ष लगाता है
क्या इतना नहीं समझ पाता है
हर बार खाता धोखा है
कभी ना कोई फल तुझे मिल पाता है
फिर भी हसरतों को परवान चढ़ाता है
आम जीवन कहाँ बदलता है
ये तो पैसे वालों का शौक मचलता है
तू क्यूँ इसमें भटकता है
क्यूँ खुद से खुद को छलता है


ना आने वाले का स्वागत कर

ना जाने वाले का गम कर
मत देखादेखी खुद को भ्रमित कर
तू ना पाँव पसार पायेगा
कल भी तेरा भाग्य ना बदल पायेगा
कर कर्म ऐसे कि
खुदा खुद तुझसे पूछे
कि बता कौन सा तुझे
भोग लगाऊं
कैसे अब तेरा क़र्ज़ चुकाऊँ
मगर तू ना हाथ फैला लेना
कर्म के बल को पहचान लेना
कर्मनिष्ठ हो कल को बदल देना
मगर कभी ना भाग्य  के पंछी को
दिल में जगह देना
फिर कह सकेगा तू भी
नव वर्ष नूतन हो गया
मैंने खुद से खुद को जो जीत लिया
मैंने खुद से खुद को जो जीत लिया ............

रविवार, 26 दिसंबर 2010

आहें सिलवटों की……………

ज़िन्दा हूं मैं...........


अब कहीं नही हो तुम
ना ख्वाब मे , ना सांसों मे
ना दिल मे , ना धडकन मे
मगर फिर भी देखो तो
ज़िन्दा हूं मैं 



ज़िन्दगी...........

ओढ कर ज़िन्दगी का कफ़न
दर्द मे भीगूँ  और नज़्म बनूँ
तेरी आहों मे भी सजूँ
मगर ज़िन्दगी सी ना मिलूँ



 

नींद .................

 
दर्द का बिस्तर है
आहों का तकिया है
नश्तरों के ख्वाब हैं
अब बच के कहाँ जायेगी
नींद अच्छी आयेगी ना





अंदाज़ ..............


प्रेम के बहुत अन्दाज़ होते हैं
सब कहाँ उनसे गुजरे होते हैं
कभी तल्ख कभी भीने होते हैं
सब मोहब्बत के सिले होते हैं









या मोहब्बत थी ही नहीं ...........  

बेशक तुम वापस आ गये
मगर वीराने मे तो
बहार आई ही नही
कोई नया गुल
खिला ही नही
प्रेम का दीप
जला ही नही
शायद मोहब्बत
का  तेल
खत्म हो चुका था
या मोहब्बत
थी ही नही
 


सोच मे हूं.........

क्या कहूं
सोच मे हूं
रिश्ता था
या रिश्ता है
या अहसास हैं
जिन्हे रिश्ते मे
बदल रहे थे
रिश्ते टूट सकते है
मगर अहसास
हमेशा ज़िन्दा
रहते हैं
फिर चाहे वो
प्यार बनकर रहें
या …………
बनकर

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

अछूत हूँ मैं

तुम्हारे दंभ को हवा नहीं देती हूँ
तुम्हारी चाहतों को मुकाम नहीं देती हूँ
अपने आप में मस्त रहती हूँ
संक्रमण से ग्रसित नहीं होती हूँ
तुम्हारी बातों में नहीं आती हूँ
बेवजह बात नहीं करती हूँ
तुम्हारे मानसिक शोषण को
पोषित नहीं करती हूँ
कतरा कर निकाल जाते हैं सभी
शायद इसीलिए अछूत हूँ मैं

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

बिखरे टुकडे

कौन कमबख्त बडा होना चाहता है
हर दिल मे यहाँ मासूम बच्चा पलता है



इज़हार कब शब्दो का मोहताज़ हुआ है

ये जज़्बा तो नज़रों से बयाँ हुआ है 


अब और कुछ कहने की जुबाँ ने इजाज़त नही दी
कुछ लफ़्ज़ पढे, लगा तुम्हें पढा और खामोश हो गयी




अदृश्य रेखाएं
कब दृश्य होती हैं
ये तो सिर्फ
चिंतन में रूप
संजोती हैं 

 



अलविदा कह कर 
चला गया कोई
और विदा भी ना

किया जनाजे को
आखिरी बार कब्र तक!
ये कैसी सज़ा दे गया कोई



यूँ दर्द को शब्दों में पिरो दिया
मगर मोहब्बत को ना रुसवा किया
ये कौन सा तूने मोहब्बत का घूँट पिया
जहाँ फरिश्तों ने भी तेरे सदके में सजदा किया

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

मुमकिन है तुम आ जाओ

जब चाँद से आग बरसती हो
 और रूह मेरी तडपती हो
मुमकिन है तुम आ जाओ

जब आस का दिया बुझता हो
और सांस मेरी अटकती हो
मुमकिन  है तुम आ जाओ

जब सफ़र का अंतिम पड़ाव हो
और आँखों मेरी पथरायी हों
मुमकिन है तुम आ जाओ 


अच्छा चलते हैं अब
सुबह हुयी तो
फिर मिलेंगे

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

क्या यही मोहब्बत होती है ?

वो आते हैं 
कुछ देर 
बतियाते हैं
अपनी सुनाते हैं
और चले जाते हैं


क्या यही मोहब्बत होती है ?


अपनी बेचैनियाँ 
बयां कर जाते हैं 
दर्द की सारी तहरीर
सुना जाते हैं 
मगर
हाल-ए-दिल ना 
जान पाते हैं 


क्या यही मोहब्बत होती है ?


सिर्फ कुछ पलों 
का तसव्वुर
वो भी ख्वाब सा
बिखर जाता है
जब जाते- जाते
एक नया ज़ख्म
दे जाते हैं


क्या यही मोहब्बत होती है ?

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

फिर कैसे कहते हो ज़िन्दा है आदमी?

कैसे कहते हो 
ज़िन्दा  है आदमी 
वो तो रोज़ 
थोडा -थोडा 
मरता है आदमी


एक बार तब मरता है
जब अपनों के  दंश
सहता है आदमी
कभी मान के
कभी अपमान  के
कभी  धोखे के
कभी भरोसे के
स्तंभों को रोज
तोड़ता है आदमी
फिर भी मर -मर कर
रोज़ जीता है आदमी 


कैसे कहते हो 
मर गया है आदमी
क्या मौत का आना ही
मरना कहलाता  है
जो इक -इक  पल में 
हज़ार मौत मरता है आदमी
वो क्या जीता कहलाता है आदमी?


जिनके लिए जीता था 
उन्ही के गले की फँस हो जाये 
जब अपनों की दुआओं में
मौत की दुआ शामिल हो जाये
उस पल मौत से पहले
कितनी ही मौत मरता है आदमी


फिर कैसे कहते हो
ज़िन्दा है आदमी
वो तो रोज़ 
थोडा- थोडा 
मरता है आदमी
मरता है आदमी ...............

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

अनुपम उपहार हो तुम

नव कोपल
से नर्म एहसास सी
तुम
प्रकृति की सबसे अनुपम
उपहार हो मेरे लिए


वो ऊषा की पहली किरण सा
मखमली अहसास हो तुम
 

जाने कौन देस से आयीं
मेरे जीवन प्राण हो तुम


ओस की
पारदर्शी बूंद सी
तुम श्रृंगार हो
प्रकृति की
मगर मेरे मन के
सूने
आंगन की
इकलौती आस हो तुम

गुनगुनी धूप के
रेशमी तागों की
फिसलती धुन पर
थिरकता
परवाज़ हो तुम
पर मेरे लिए
ज़िन्दगी का
सुरमई साज़  हो तुम
 


शनिवार, 4 दिसंबर 2010

हाँ , मैंने गुनाह किया

हाँ , 
मैंने गुनाह किया
जो चाहे सजा दे देना
जिस्म की बदिशों से
रूह को आज़ाद कर देना
हँसकर सह जाऊँगा
गिला ना कोई 
लब पर लाऊंगा
नहीं चाहता कोई छुडाये
उस हथकड़ी से 
नहीं कोई चाहत बाकी अब
सिवाय इस एक चाह के
बार- बार एक ही 
गुनाह करना चाहता हूँ
और हर बार एक ही
सजा पाना चाहता हूँ
हाँ , सच मैं 
आजाद नहीं होना चाहता
जकड़े रखना बँधन में 
अब बँधन युक्त  कैदी का 
जीवन जीना चाहता हूँ
बहुत आकाश नाप लिया 
परवाजों से
अब उड़ने की चाहत नहीं
अब मैं ठहरना चाहता हूँ
बहुत दौड़ लिया ज़िन्दगी के 
अंधे गलियारों में 
अब जी भरकर जीना चाहता हूँ
हाँ ,मैं एक बार फिर
'प्यार' करने का 
गुनाह करना चाहता हूँ
प्रेम की हथकड़ी  से
ना आज़ाद  होना चाहता हूँ
उसकी कशिश से ना
मुक्त होना चाहता हूँ
और ये गुनाह मैं
हर जन्म ,हर युग में
बार- बार करना चाहता हूँ

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

सिर्फ़ एक बार खुद से रोमांस करने की कोशिश करना……………………250वीं पोस्ट


जब दुनिया की हर शय सिमटने लगे
जब अपने ही तुझको झिड़कने लगें
तेरा मयखाना खाली होने लगे
हर रंग बदरंग होने लगे
तू खुद से बेपरवाह होने लगे
राहें सभी बंद होने लगें 
जब ज़िन्दगी भी दोज़ख लगने लगे
कायनात का आखिरी चिराग भी बुझने लगे 
तेरा नसीबा भी तुझपे हंसने लगे
जब उम्मीदों के चराग बुझने लगें 
तकदीर की स्याह रात वक्त से लम्बी होने लगे
अपने साये से भी डर लगने लगे
ज़िन्दगी से मौत सस्ती लगने लगे
उस वक्त तुम इतना करना
इक पल रुकना 
खुद को देखना
मन के आईने में 
आत्मावलोकन  करना 
 और सब कुछ भुलाकर 
सिर्फ एक बार 
खुद से रोमांस करने 
की कोशिश करना
देखना ज़िन्दगी तेरी 
सँवर जाएगी 
दुनिया ही तेरी बदल जाएगी
जो बेगाने नज़र आते थे 
अपनों से बढ़कर नज़र आयेंगे
तेरे दिल की बगिया के 
सुमन सारे खिल जायेंगे
जीने के सभी रंग 
तुझको मिल जायेंगे
बस तू एक बार खुद से
रोमांस करने की कोशिश तो करना ......................

रविवार, 28 नवंबर 2010

टिशु पेपर हूँ मैं………………

लोग आते हैं
अपनी कहते हैं
चले जाते हैं
हम सुनते हैं 

ध्यान से गुनते हैं
दिल से लगा लेते हैं
जब तक संभलते हैं
वो किसी और
मुकाम पर
चले जाते हैं
और हम वहीं
उसी मोड़ पर
खाली हाथ
खड़े रह जाते हैं

कभी कभी लगता है
टिशु  पेपर हूँ  मैं

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

शायद जीना इसी का नाम है

साइकिल पर 
रखकर सामान
सुबह सुबह
निकल पड़ते हैं 
किस्मत से लड़ने 
गली गली 
आवाज़ लगाते 
"फोल्डिंग बनवा लो "
और फिर 
कभी कभार ही 
कोई मेहरबान होता है
बुलाता है 
मोल भाव करता है
और बड़ा 
अहसान- सा करके
काम देता है  
उस पर यदि कोई 
बुजुर्ग हो बनाने वाला 
तो वो उसे अपनी 
किस्मत मान लेता है
और सौदा कर लेता है

जिस उम्र में हड्डियाँ 
ठहराव चाहती हैं
उस उम्र में परिवार का 
बोझ कंधे पर उठाये
जब वो निकलता होगा 
ना जाने कितनी आशाओं 
की लड़ियाँ सहेजता होगा
फोल्डिंग बनाते बनाते 
हर पट्टी में जैसे 
सारे दिन की दिनचर्या 
बुन लेता होगा

सड़क पर बैठकर 
कड़ी धूप में 
पसीना बहाते हुए
उसे सिर्फ मिलने वाले 
पैसों से सपने खरीदने 
की चाह होती है
एक वक्त की
रोटी के जुगाड़ 
की आस होती है
कांपते हाथों से 
दिन भर में
बा-मुश्किल 
दो ही फोल्डिंग 
बना पाता है
उन्ही में 
जीने के सपने
सजा लेता है 
और ज़िन्दगी के
संघर्ष पर
विजय पा लेता है
और शाम ढलते ही
एक नयी सुबह की
आस में सपनो का 
तकिया लगाकर 
सो जाता है
शायद 
जीना इसी का नाम है