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बुधवार, 30 अप्रैल 2014

स्याह रुख




जीवन जीने की जिजीविषा 
व्यक्त हैं तुम्हारे चेहरे की लकीरों में 
हाथों पर पढ़ी झुर्रियाँ , झुलसी त्वचा 
स्वयं एक दस्तावेज़ है 
तुम्हारी ज़िन्दगी की जद्दोजहद की 

आशा निराशा और हताशा के झुरमुटों में भी 
सहेजी हैं तुमने उम्मीद की किरणें 
यूं ही नहीं त्वचा सँवलाई है 
आँखें प्रतीक हैं तुम्हारे पौरुष की 
जहाँ ठहरी चिंता की लकीरें 
दे देती हैं पता तुम्हारे मन की तहरीरों का 


दया करुणा की मोहताज नहीं तुम 
तुम तो हो वो स्वयंसिद्धा 
जिसके आगे नतमस्तक है 
सृष्टि का हर बंदा 
ऐसा कह उपहास नहीं कर सकती 
क्योंकि 
जानती हूँ न 
रोज कितनी आँखों में सिर्फ अपना बदन देखती हो 
तो कितने ही चेहरों में अपने लिए वितृष्णा
फिर कैसे हो सकता है हर बंदा नतमस्तक 
किन हालात से गुजरती हो 
किस नारकीय यातना को झेलती हो 
तब जाकर एक वक्त की रोटी का जुगाड़ करती हो 
सब जानती हूँ .......... क्योंकि 
आखिर हूँ तो एक औरत ही न 
और सुनो 
तुम्हारे रहन सहन के स्तर को जानने को 
नहीं है जरूरत मुझे तुम तक पहुँचने की 
तुम्हारी जीवन शैली का दर्शन करने की 
क्योंकि 
तुम अव्यक्त में भी व्यक्त हो 
यदि हो किसी के पास वो नज़र 
जो तुम्हें देह से परे  देख सके 
जो तुम्हारी उघड़ी देह का सही आकलन कर सके 
तो स्वयं जान जाएगा 
कैसे एक कपडे मे समेटा है तुमने पूरा ब्रह्माण्ड 

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

ज़िन्दगी के पन्ने एक अकथ कहानी से

बुझते चिराग की लौ सुना है ज्यादा टिमटिमाती है …………मगर यहाँ तो बिना टिमटिमाये ही लौ बुझ गयी……अब मैं हूँ और मेरी तन्हाइयाँ ………सोचती हूँ क्या बात करें हम ? ना ना ………किसी बिखरी याद को नहीं समेटना अब ………ना ही आगत का सोचना अब …………और वर्तमान में कहने को कुछ बचा नहीं …………ऐसे में अब मै हूँ और मेरी तन्हाइयाँ मुझसी ही तन्हा ……एक बिना सोच का , बिना बात का , बिना लक्ष्य का सफ़र तय करते हुये्………यूँ भी गुजरा करते हैं ज़िन्दगी के पन्ने एक अकथ कहानी से 

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

नहीं है कहीं प्रेम का अस्तित्व

नहीं , नहीं है कहीं प्रेम का अस्तित्व , जो है बस है सह -अस्तित्व . आप सोचेंगे रोज प्रेम का लाप अलापने वाली आज अचानक कैसे कह रही है प्रेम का अस्तित्व ही नहीं है  :) .............

सच्चाई तो यही है मगर हम जान ही नहीं पाते उम्र भर और एक अनजानी प्यास के पीछे उम्र तमाम करते फिरते हैं . साथ रहते हैं हम समाज में , परिवार में तो एक दूसरे  की आदत हो जाती है , एक  दूसरे  की जरूरत बन जाते हैं हम और उसे दे बैठते हैं प्यार का नाम , प्रेम का नाम जबकि वो होता है अपनापन जो एक दूसरे की जरूरतों से उपजा होता है . आप जब तक किसी के काम के हैं तभी तक याद रखती है दुनिया , तभी तक आपको पूजती है दुनिया जिस दिन आप असहाय हो गए , जिस दिन आप उनके काम के नहीं रहे तब कहाँ चला जाता है वो प्रेम ? अगर कहा जाता है कि दुनिया में प्यार ही प्यार है और उसी पर ये धरती टिकी है तो आज इतने असहाय , बेबस न होते लोग , रिश्तों के नाम पर एक  दूसरे  को विवशता मे ना ढोते लोग . क्या प्रेम सिर्फ क्षणिक होता है जबकि सुना है प्रेम तो सारी  कायनात में विद्यमान है और वो सब पर बराबर लुटाती है और ये सच भी है क्योंकि प्रकृति किसी से भेदभाव नहीं करती क्या छोटा क्या बड़ा , क्या अपना क्या पराया ,क्या बच्चा क्या बड़ा सब पर अपना बराबर का स्नेह लुटाती है तो उसे तो फिर भी प्रेम कह सकते हैं क्योंकि किसी से कोई भेदभाव नहीं और साथ में निस्वार्थता का भाव मगर हम मनुष्य नाम के प्राणी कहाँ ऐसा कर पाते हैं . 

कोई भी रिश्ता प्रकृति सा अटूट नहीं है हमारे पास , हम अपनों को ही नहीं सह पाते एक उम्र तक आते आते तो कैसे कहते हैं कि प्रेम की तपिश है हमारे अन्दर , जब अपनों की दयनीय दशा देखकर भी हम नहीं पिघलते , उन्हें बुरा भला कहने से नहीं चूकते यहाँ तक कि अपने मुनाफे के लिए उन्हें धोखा तक दे देते हैं तो कैसे कहते हैं प्रेम का अस्तित्व है इस जहाँ में ? आज जब बच्चे हों या बडे सभी एक दूसरे को भला बुरा यहाँ तक कि अपमान भी छोटी चीज़ है कत्ल तक कर देते हैं तो कैसे कहें प्रेम का अस्तित्व है , प्रेम तो एक विलक्षण स्थिति का नाम है जहाँ तक कोई नहीं पहुँचता सिर्फ़ साथ रहना और एक दूसरे की जरूरत में काम आना प्रेम नहीं सह अस्तित्व है वरना तो आज बीमार यदि कोई ऐसा पड जाए जिसकी उम्र भर सेवा करनी पडे तो उसे भी घर निकाला दे दिया जाता है तो कहाँ जाता है वो प्रेम यदि था तो ? कैसे भूल जाता है मानव रिश्ते की ऊष्मा को ? 

मुझे तो कहीं नहीं दिखता प्रेम का अस्तित्व. हर रिश्ता झूठा दिखता है या वक्त की नोक पर मजबूरी के अहाते में खड़ा बरसात रुकने की इंतज़ार में दिखता है . जो है बस सह अस्तित्व ही है जहाँ एक  दूसरे की जरूरत भर हम एक दूजे का साथ निभा कर अपने कर्त्तव्य को प्रेम का नाम देकर भावनाओं से खेलते भर हैं मगर वास्तव में प्रेम के वृहद् अर्थ को तो कभी समझ ही नहीं पाए गर समझा होता तो आज अपनों की , बुजुर्गों की इतनी दयनीय दशा न होती .........वो अकेलेपन का शिकार न होते , वो ज़माने पर बोझ न होते . 

वैसे भी देखा जाए कोई आज मरे तो कल नया सवेरा दिखता है , दो दिन याद किया और फिर भूल गए यही है हमारी फितरत ............क्या वास्तव में प्रेम हो तो क्या कभी हम भूल सकते हैं या उसके बिना जी सकते हैं ..........प्रेम , प्रेम कहना आसान होता है मगर निभाना बहुत मुश्किल ............वास्तव में तो हमने सिर्फ सह अस्तित्व के साथ जीना सीखा है और कुछ पल के साथियों को प्रेम नाम की माला दी है जपने को ताकि जीवन भ्रम में ही सही , चलता रहे .............


वैसे प्रेम की धारणा बहुत पुरानी है । युग ढोते रहे हैं और ढोते रहेंगे मगर जान कहाँ पाते हैं प्रेम के सूक्ष्म अणुओं और परमाणुओं को जहाँ अपेक्षा का सिद्धांत लागू ही नहीं होता और देयता और त्याग के सिद्धांत पर ही ज़िन्दगी बसर होती है और वो प्रेम आज के दौर में कहाँ संभव है ? 

मानविक प्रेम ही संभव नहीं हो पाता तो आत्मिक या दैविक प्रेम तो सिर्फ़ सोच और ख्यालों की बस ताबीर भर हैं और इसी छदम खेल में घिरे हम गुजार जाते हैं ज़िन्दगी , जी जाते हैं ज़िन्दगी और खो जाते हैं समय के गर्त में किसी सागर की बूँद सम मगर कभी नहीं जान पाते फ़र्क निस्वार्थ प्रेम और सह - अस्तित्व में । 

देखा जाये तो मूल धारणा तो यही है जीवन की इस पृथ्वी पर "नहीं है कहीं प्रेम का अस्तित्व , जो है बस है सह -अस्तित्व" बस हमने उसे तरह तरह के नाम और उपनाम देकर जीने का माध्यम भर बनाया है वरना क्षणभंगुरता ही शाश्वत है जब तब प्रेम अक्षुण्ण कैसे ? 

कपोल कल्पित कहानी के पात्रों को माध्यम बनाकर जीवन गुजारने का साधन मात्र है प्रेम की अवधारणा वरना तो जीवन चलता ही है सिर्फ़ सह - अस्तित्व की अवधारणा पर क्योंकि हम समाजिक प्राणी हैं और हमें जीने को एक साथ की जरूरत होती है, अपनेपन के अहसास की जरूरत होती है और उस जरूरत को हम प्रेम या प्यार का नाम दे देते हैं और एक जीवन जी लेते हैं मगर अंतिम पडाव पर जब ठगे से खडे होते हैं तब करते हैं विश्लेषण तब पाते हैं निष्कर्ष में यही कि जो था सिर्फ़ सह - अस्तित्व भर था , प्रेम तो किसी विषपात्र की तरह दुबका सहमा सिमटा सा वक्त के गर्त में कब का ज़मींदोज़ हो चुका था , गर वो प्रेम था तो !!!

शनिवार, 19 अप्रैल 2014

प्रेम एक अराधना

रात की लहरों पर चढती उतरती कोई अरदास 
प्रेम तो मानो तेरे मेरे होठों की कोई अबूझी प्यास 

दिन की नर्तन करती परछाइयों का कोई शहर 
प्रेम तो मानो तेरे मेरे प्रेम की कोई भटकी लहर 

भीगी रुत का कोई अनकहा गुनगुना अहसास 
प्रेम तो मानो आषाढ़ में बसंत का आभास 

रूप रंग से परे किसी खुदा का दीदार करता कोई दरवेश 
प्रेम तो मानो किसी मस्जिद से आती सुबह की पहली अजान 

जैसे खुश्बू को मुट्ठी में बाँधने की कोई जिद 
प्रेम तो मानो बच्चे की चाँद को पकड़ने की कोशिश 

रेशम के तागों से बुना इक ख्याल का कोई भरोसा 
प्रेम तो मानो तेरे मेरे अरमानों का कोई बोसा 

जलती आग की परछाइयों में हंसने का सुरूर 
प्रेम तो मानो तेरी मेरी मोहब्बत का कोई गुरूर 

इक साँस से निकलती आस की कोई आवाज़ 
प्रेम तो मानो सप्त सुरों पर बजता कोई साज 

बुधवार, 16 अप्रैल 2014

देह के परे भी

स्त्रियाँ जीती हैं सम्पूर्ण सत्य 
अपनी उपस्थिति के साथ 
सिर्फ़ चौके चूल्हे तक ही 
नही है उनका आवास 
सुलझा लिए हैं उसने जीवन के गणित 
नहीं छोड़ती अब पदचिन्ह परछाइयों के 
जो सपनो की किवड़ियां खटखटाएं 
करती हैं विमर्श खुद से 
अपनी उपस्थिति से 
और भर लेती हैं 
रीतेपन के हर घड़े को 
अपनी सम्पूर्णता से 
अपनी उपस्थिति के अहसास से 
इसलिए नहीं रीतती अब एक स्त्री उनमे से 
भ्रम पैदा करने वाली स्थितियों से 
बचना जानती हैं 
देह के गणित पहचानती हैं 
छटपटाहट के नीले सिक्कों पर तोलती हैं 
वो अपने विश्वास और जब पा लेती हैं खुद का भास 
तब करती हैं सम्पूर्ण समर्पण 
तब लिखती हैं इक नया इतिहास 
आज स्त्रियाँ नहीं रह गयी हैं 
बस एक परिहास , उपहास, जीवन का त्रास 

क्योंकि जानती हैं 
इस बार उड़ान महज पिंजरे की वापसी तक नहीं है 

सभी वर्जनाओं को नकारते हुए 
देह के परे भी है अब  उनका एक आकाश 

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

प्रश्न आदिकाल से दौड़ रहा है ……मुक्ति की खोज में

धन्य हो गया देश मेरा 
धन्य हो गयी जनता 
जो ऐसे नेताओं के 
पाँव पलोटा करती है 
जो स्त्री पुरुष के अस्तित्व में 
भेद किया करते हैं 

कैसे इन हुक्मरानों को 
तख़्त मिला करते हैं 
क्यों नहीं बाकी दलों को 
ये सच दिखा करते हैं 
जो गठजोड़ के लिए 
बलात्कारी मानसिकता को 
पोषण दिया करते हैं 
जिनके लिए स्त्री का अस्तित्व 
महज खिलौना भर हुआ करता है 
जो उस कोख को गाली देते हैं 
जिससे जन्म लिया करते हैं 
क्या महज कुर्सी के लिए 
सभी आँख बंद किया करते हैं 
क्या इसी बूते पर ये 
शासन करने का दम्भ भरा करते हैं 
क्या इसी बूते ये 
एक सुशासन देने का वादा किया करते हैं 
जाने किस मिटटी के बने होते हैं 
जो अपनी बहन बेटियों सा न 
हर स्त्री को समझा करते हैं 

सुना है यादवों के कुल के कहलाते हो 
सुना है इसी में कृष्ण ने जन्म लिया था 
सुना है उसी कृष्ण ने भरी सभा में 
द्रौपदी की लाज बचाने को वस्त्रवतार लिया था 
फिर कहाँ वो बीज लुप्त हुए 
जो तुम इतने संवेदनहीन हुए 
जिसके लिए स्त्री का न कोई महत्त्व हुआ 
बस बलात्कार तो महज एक खेल हुआ 
किस मानसिकता को पोषित कर रहे हो 
क्यों यादव कुल को भी कलंकित कर रहे हो 

कैसे कहें बदल गया ज़माना 
कैसे कहें मुक्त हो गया समाज परंपरागत रूढ़ियों से 
क्या यही नारी मुक्ति है 
क्या यही स्त्री विमर्श का नतीजा है 
जो आज भी स्त्री को महज 
प्राप्तव्य भोग्या ही समझा गया 
जहाँ बलात्कारियों को पोषण मिलता हो 
वो कैसे सभ्य समाज गिना जाएगा 
कैसे कह सकते हैं आज 
जो इतिहास पर काला धब्बा है 
उससे मुक्त हो गए हम 
कैसे कह सकते हैं हम 
आज नहीं दुर्योधन जन्म लिया करते हैं 
जब शासक ही गलत परम्पराओं को 
पोषण दिया करते हैं 
युग बदलने से नहीं बदला करतीं पैठी हुयी मान्यताएं 
वो चली आती हैं पीढ़ी दर पीढ़ी 
एक नपुंसक पीढ़ी को जन्म देती 
जिसके पास होता है तो सिर्फ दम्भ और व्यभिचार 
भला ऐसे समाज में कहो तो 
कहाँ है स्त्री सुरक्षित ?

हर स्त्री के गुनहगार हो तुम …… ओ पुरुष समाज 
जिस कोख से जन्मते हो 
जब उसी को लांछित करते हो 
तब कैसे आँख मिला लेते हो 
कैसे साँस भर लेते हो 
कैसे सुकून से जी लेते हो 
समझ नहीं आता है 
जाने कैसा भयावह समय फिर आया है 
क्या किस कलुषता का साया है 
आज फिर सारा समाज मौन है 
क्या फिर किसी धर्मयुद्ध का आह्वान है 
या एक बार फिर इसी सड़ी गली राजनीति की 
भेंट चढ़ना होगा 
स्त्री को न उसका स्वर्णिम किसी युग में मिलेगा 

प्रश्न आदिकाल से दौड़ रहा है ……मुक्ति की खोज में 

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

' अब इधर जाऊँ या उधर जाऊँ '

मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ किसके चरणों की धूल बन जाऊँ जो माथे पर तिलक सा सज जाऊँ या कहूँ मैं देखूँ जिस ओर सखि री सामने मेरे सांवरिया कुछ ऐसा ही तो हाल हो रहा है अब मेरा । एक तरफ़ कुंआ एक तरफ़ खाई और बीच में पुल भी डांवाडोल अब गिरा कि तब गिरा बताओ तो भला अब जायें तो जायें कहाँ समझेगा कौन यहाँ दर्द भरे दिल की दास्ताँ । सोच रहे होंगे पगला गया है तो भाई पगलाने का मौसम आ गया आखिर जब वो हमें पागल समझते हैं तो हम पागल ही अच्छे हैं कहलवा क्यों ने उन्हें खुश होने दें । वैसे ये पगलाने के भी मौसम अजीब हुआ करते हैं तुम आगे आगे वो तुम्हारे पीछे पीछे , तुम्हारी खुशामद करते , तुम्हारे आगे झुकते , तुम्हारी सेवा में अपना सर्वस्व अर्पण करने को आतुर तो कैसे न पगलाया जाये आखिर कभी कभी तो मौका मिलता है और फिर जब कोई आपको आपकी कीमत बता दे तो थोडा तो पगलाना जायज है, थोडा तो अपनी अहमियत दिखाना जायज है , थोडा भाव खाना जायज है । जब उन्हें सब जायज होता है तो एक बार हमें भी तो मौका मिलता है तो भइये चूकें कैसे ? चूके तो गये बारह के भाव फिर क्या मोल रहेगा अब धूप का मज़ा या कहो सेंक तो सर्दी में ही सुहाती है न तो कैसे चूक सकते हैं । अब मौसम है कब बदल जाये क्या पता वैसे भी इतनी मुश्किल से तो मौका मिलता है इस मौसम में अपनी वेणियों में फ़ूल गुंथवाने का , अपने आँगन में झाडू लगवाने का , अपनी मिजाजपुर्सी करवाने का तो हम भी चढ ही गए इस बार रामगढ मे बनी पानी की टंकी पर धरमिंदर की तरह  अब चढ तो गए मगर इस बार फ़ँस गए क्योंकि सारी जमातें हमारे पीछे और हम आगे आगे थे सो भांप न सके किस किस शहर के कौन से खिलाडी मैदान मे उतरे हैं फिर भी अब जब फ़ँस ही गये तो सोचा जो होगा देखा जायेगा इस बार पागलपना ही काम आयेगा सो सभी की हाँ में इस बार हमने भी हाँ मिलायी और बाजी जीत ली अपने सारे मंसूबे पूरे कर लिये सिर्फ़ एक हाँ  के माध्यम से क्योंकि पता है इसके बाद तो कटना सिर्फ़ हमें ही है तो कम से कम एक दिन के बादशाह तो बन कर देख ही लें सो देख लिया , अपनी हर इच्छा अभिलाषा को पूर्ण कर इतराता हूँ बेशक थोडे वक्त के लिये ही सही मैं खुश हो जाता हूँ कि हाँ , इस बार मेरा पागलपन काम आया मगर अब सोचता हूँ किधर जाऊँ इधर या उधर क्योंकि यहाँ तो हमाम में सभी नंगे हैं मैं किसके जिस्म पर टावेल लपेटूँ या किसे अंगवस्त्र दे ढकूँ इसी पशोपेश में फ़ँस गया । जब कुछ न सूझा तो सिक्का उछाला कि हेड आया तो संतरा टेल आया तो नारंगी  मगर सिक्के ने भी इस बार रंग दिखा दिया साला खडा ही हो गया तो हम क्या किसी से कम थे समझ गये इस बार बाजी उलटनी ही पडेगी सो चल दिये अपने भाग्य को आजमाने अपने हाथ का दम दिखाने अपनी किस्मत आजमाने और दबा दिया मशीन का वो  बटन जिसे न कोई अनुभव था मगर बंदा सिद्धांतवादी , राष्ट्रभक्त था तो बोलो क्या गलत किया आजमाने का दौर है एक बार नए को भी आजमा लिया जाए सोच खुद को ' अब इधर जाऊँ या उधर जाऊँ ' की उहापोह से मुक्त कर लिया ………मिलते हैं अगले पाँंच साल के बाद इस उम्मीद में कि मेरे दबाये बटन की खुदा लाज रखे बिना किसी जोड तोड के नयी सरकार चले वरना यदि बीच में ही लुटिया डूबी तो मैं तो हूँ ना एक बार फिर पगलाने को तैयार ……

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

क्योंकि भीड़ में भी अकेली हूँ मैं

सोचती हूँ 
गुम हो जाऊँ भीड़ में 
समेट लूँ वैसे ही 
जैसे कछुआ समेटता है 
अपने अंगों को अपने अन्दर 
और ऊपर रह जाती है 
एक सपाट खुरदुरी शिला सी 
क्योंकि 
फर्क सिर्फ खुद को पड़ता है 
खुद के होने या न होने का 
दूसरों के लिए तो हम सदा ही 
एक जरूरत भर की वक्ती पहचान रहे 
ऐसे में सिर्फ खुद के लिए जब 
एक आकाश बनाओ या नहीं 
किसी पर फर्क नहीं पड़ना 
सिर्फ स्वयं की संतुष्टि का आकाश 
और उसमे विचरण करता खुद का वजूद 
कौन सा आकाश पर अपने नक्स छोड़ पाता है 
जो प्रयत्न के रेशों पर लिखी जाए इबारत ज़िन्दगी की 
पहले भी तो गुमनाम था मज़ार मेरा 
कौन था जो जलाता था दीया यहाँ आशिकी का 
फिर अब कौन सा फर्क पड़  जाना है 
कम से कम खुद की खुद से होती जद्दोजहद से तो निजात पा लूँगी 
और कर दूँगी प्रमाणित ...........
जो दूर तक रौशनी दे वो दीप नहीं हूँ मैं 
आँधियों में भी न बुझे वो दीप नहीं हूँ मैं 
क्योंकि 
भीड़ में भी अकेली हूँ मैं 
फिर अकेलेपन में ही जब जीना है तो 
क्यों दुर्गम किलों को भेदूँ 
क्यों न अपने अस्तित्व की देगची में स्वयं को खोजूँ मैं ...

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

इश्क कटोरा पीत्ता भर भर

दोस्तों अभी अभी जाने क्या हुआ जो भाषा सिर्फ़ सुनी भर है उसे जानती भी नहीं उसमें भाव उमड आये , अब इसे क्या कहूँ समझ नही आता कोई कुदरत का ही चमत्कार है शायद क्योंकि पंजाबी सिर्फ़ सुनी है बाकि मेरा तो सारा माहौल ही हिन्दी का है पढ्ना तो बहुत दूर की बात है फिर भी ये भाव उभरे तो लगा किसी जानकार को दिखा देनी चाहिये कहीं कुछ गलत न लिख दिया हो तो पंजाबी के जानकार अमरजीत कौंके जी को दिखायी तो उन्होने बताया सिर्फ़ पिया शब्द को पीत्ता कर दें बाकि सब सही है तो खुद को भी आश्चर्य हुआ कि ये हुआ कैसे …………फिर उन्होने इसे गुरुमुखी में लिख कर भेजा जिसे ऐसा का ऐसा लगा रही हूँ 


मैं 

इश्क कटोरा पीत्ता भर भर 
फिर भी रह गयी प्यासी वे 

ओ मेरे राँझेया मैं तेरी हीर वे 
जिन जपया साँस विच तेरा नाम वे 
फेर क्यूँ जल विच मीन प्यासी वे 

मैं 
इश्क कटोरा पीत्ता  भर भर 
फिर भी रह गयी प्यासी वे 

रूहां ते मैं टुकड़े कर दित्ते 
टुकड़ों विच मैं राँझा लिख दित्ता 
ते फेर कौन फकीरा जुदा कर दित्ता 
जे मैं हो गयी खुद से बेगानी वे 

मैं 
इश्क कटोरा पीत्ता  भर भर 
फिर भी रह गयी प्यासी वे 

दिल दा तुझे खुदा बनाया 
तेरे नाम दा  सज़दा कित्ता 
और न द्वारे सर ये झुकता 
फेर क्यूँ न मिलया तेरा नज़ारा वे 

मैं 
इश्क कटोरा पीत्ता भर भर 
फिर भी रह गयी प्यासी वे 

तू मेरा माही तू ही पैगम्बर 
तू ही मेरा इक्को रब्बा वे 
तेरे लए  मैं दुनिया छड दी 
फेर क्यूँ न इश्क परवान चढ्या वे 

मैं 
इश्क कटोरा पीत्ता  भर भर 
फिर भी रह गयी प्यासी वे 

अंक्खां  विच चनाब  है वसदा 
तेरे नाम दियां डुबकियां लगांदा 
तेरे नाम दे ख़त है लिख्दां 
फेर क्यूँ न तेरा जवाब आंदा वे 

मैं 
इश्क कटोरा पीत्ता भर भर 
फिर भी रह गयी प्यासी वे 



अब इसे पढ़िए गुरुमुखी में अमरजीत कौंके द्वारा अनुवाद करके भेजी गयी है हार्दिक आभारी हूँ उनकी 

ਮੈਂ ਇਸ਼ਕ ਕਟੋਰਾ ਪੀਤਾ ਭਰ ਭਰ ਫਿਰ ਵੀ ਰਹਿ ਗਈ ਪਿਆਸੀ ਵੇ ਓ ਮੇਰੇ ਰਾਂਝਿਆ ਮੈਂ ਤੇਰੀ ਹੀਰ ਵੇ ਜਿਹਨੇ ਜਪਿਆ ਹੈ ਸਾਹਾਂ ਨਾਲ ਤੇਰਾ ਨਾਮ ਵੇ ਫਿਰ ਕਿਓਂ ਜਲ ਵਿਚ ਮੀਨ ਪਿਆਸੀ ਵੇ ਮੈਂ ਇਸ਼ਕ ਕਟੋਰਾ ਪੀਤਾ ਭਰ ਭਰ ਫਿਰ ਵੀ ਰਹਿ ਗਈ ਪਿਆਸੀ ਵੇ ਰੂਹਾਂ ਦੇ ਮੈਂ ਟੁਕੜੇ ਕਰ ਕੇ ਉੱਤੇ ਰਾਂਝਾ ਲਿਖ ਦਿਤਾ ਫਿਰ ਕਿਸ ਫ਼ਕੀਰ ਨੇ ਪਾਈ ਜੁਦਾਈ ਤੇ ਮੈਂ ਹੋ ਗਈ ਖੁਦ ਤੋਂ ਬੇਆਸੀ ਵੇ ਦਿਲ ਦਾ ਖੁਦਾ ਬਣਾਇਆ ਤੈਨੂੰ ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਦਾ ਸਜਦਾ ਕੀਤਾ ਹੋਰ ਦਵਾਰੇ ਸਿਰ ਨਾ ਝੁਕਦਾ ਫਿਰ ਕਿਓਂ ਨਾ ਮਿਲਿਆ ਤੇਰਾ ਨਜ਼ਾਰਾ ਵੇ ਮੈਂ ਇਸ਼ਕ ਕਟੋਰਾ ਪੀਤਾ ਭਰ ਭਰ ਫਿਰ ਵੀ ਰਹਿ ਗਈ ਪਿਆਸੀ ਵੇ ਤੂੰ ਮੇਰਾ ਮਾਹੀ ਤੂੰ ਹੀ ਪੈਗੰਬਰ ਤੂੰ ਹੀ ਮੇਰਾ ਇੱਕੋ ਰੱਬਾ ਵੇ ਤੇਰੇ ਲਈ ਮੈਂ ਦੁਨੀਆਂ ਛਡ ਦਿਤੀ ਫੇਰ ਕਿਓਂ ਨਾ ਇਸ਼ਕ ਪਰਵਾਨ ਚੜਿਆ ਵੇ ਅੱਖਾਂ ਵਿਚ ਝਨਾਂ ਹੈ ਵੱਸਦਾ ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਦੀਆਂ ਚੁਭੀਆਂ ਲਾਉਂਦਾ ਤੇਰੇ ਨਾਮ ਦੇ ਖ਼ਤ ਹੈ ਲਿਖਦਾ ਫੇਰ ਕਿਓਂ ਨਹੀਂ ਤੇਰਾ ਜਵਾਬ ਆਉਂਦਾ.. ਮੈਂ ਇਸ਼ਕ ਕਟੋਰਾ ਪੀਤਾ ਭਰ ਭਰ ਫਿਰ ਵੀ ਰਹਿ ਗਈ ਪਿਆਸੀ ਵੇ
फिर भी कोई कमी रह गयी हो तो बताइयेगा

बुधवार, 26 मार्च 2014

कवि ,सिर्फ कुछ के कह देने भर से नहीं हो जाते हो ख़ारिज

तुम्हें अपमानित प्रताड़ित करना ही 
जिनका ध्येय है कवि  
वो ही आधार बनते हैं 
तुम्हारे नव सृजन के 
तुम्हारे अंतस में बोते हैं जो 
तुम्हारी अवहेलना के बीज 
देते हैं समय से खाद पानी 
अपने व्यंग्य बाणों आलोचनाओं द्वारा 
वो पथ बाधक नहीं 
कवि,  करो उन्हें नमन 
क्योंकि 
आधारशिला हैं वो 
तुममे नव सृजन के 
और संजीदगी से 
रचनाकर्म करने को 
प्रेरित करने वाले 
तुम्हारे अपने आलोचक ही होते हैं 
जो जानते हैं 
तुम्हारी क्षमताओं को 
पहचानते हैं तुममे छुपी प्रतिभाओं को 
और सिर्फ एक शब्द बाण से 
कर धराशायी तुम्हारी 
प्रसिद्धि की मीनारों को 
जगा देते हैं तुममें 
सुप्त पड़ी उस उत्कंठा को 
हाँ , पहुंचना है मुझे भी शिखर तक 
हाँ , करना है मुझे भी अपने 
लेखन द्वारा प्रतिकार 
हाँ , मनवाना है लोहा 
अपने कवित्व का 
अपने कौशल का 
स्वयं में दबी छुपी 
उस सोयी खोयी 
दबी ढकी 
कविता का जो 
बना दे तुम्हें और तुम्हारे लेखन को 
मील का पत्थर 
वो नही जानते 
चिंगारियाँ ही शोले बना करती हैं 
इसलिये करके तुम्हें आहत 
लिखवा देते हैं 
तुम्हारे ही माध्यम से 
कालजयी कविता 
इसलिए साबित करने को खुद को 
कवि  चलने दो साथ साथ अपने 
उन अदृश्य ताकतों को 
जो स्वयमेव सहायक सिद्ध हो रही हैं 
तुम्हारे नव सृजन में बन रही हैं 
वाहक भावों के आगमन की 

बेशक कभी छदम वेश धारण कर 
तो कभी प्रत्यक्षत: तोडेंगे वो तुम्हारा मनोबल 
बनायेंगे साजिशों के पुल करने को तुम्हें धराशायी 
बेशक समझते रहे वो तुम्हें कमजोर 
बेशक बिछाते रहे राह में नागफनियाँ 
कवि बस तुम्हें है चलते जाना 
लक्ष्य संधान हेतु रखना है 
सिर्फ़ मछली की आँख पर ही निशाना 
क्योंकि 
भावनाओं के वटवृक्ष से लबरेज हो तुम कवि 
और वो करना चाहते हैं तुम्हें 
भावनाओं द्वारा ही आहत 
कुचलना चाहते हैं तुम्हारी प्रतिभा 
तिरस्कार , अपमान द्वारा 
तुम्हें और तुम्हारे लेखन को दोयम बताकर 
मगर वो ये नही जानते 
जिस तरह सौ झूठ मिलकर भी 
एक सत्य को मिटा नहीं सकते 
उसी तरह 
चाहे जितने पैदा हो जाएँ 
तुम्हारे लेखन विरोधी 
भावों की बहती सरिता के 
प्रवाह को रोक नहीं सकते 
रुख मोड़ नहीं सकते 
बल्कि वो तो मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं तुम्हारा 
बिन कुछ किये ही हो रहे हो प्रसिद्ध 
क्योंकि 
कवि  सिर्फ कुछ के कह देने भर से 
तुम नहीं हो जाते हो ख़ारिज 
तुम या तुम्हारी कविता 
वो जो तुम्हारे प्रशंसक हैं 
क्या उनके कहे का कोई मोल नहीं 
क्या उनका कथन महज तुम्हारी 
प्रशंसा भर है 
नहीं , कवि 
तुम , तुम्हारा लेखन 
कभी नहीं होगा ख़ारिज 
जब तक तुम स्वयं पर 
विश्वास रख भावों के सागर में डूब 
शब्दों के मोती खोज लाते रहोगे 
जनमानस के मन की बात 
अपनी कविताओं में कहते रहोगे 
एक चिन्तन व्यक्त करते रहोगे 
कुछ समय से परे हकीकत के धरातल पर 
सत्य को उकेरते रहोगे 
भावों के मदिरालाय में डूबते रहोगे 
नहीं हो सकते ख़ारिज 
क्योंकि 
सत्य की कसौटियों पर 
सिर्फ कुंदन ही खरे उतरा करते हैं 
इसलिए 
करो नमन उन्हें 
जो तुम्हारे लिखे में 
दोष ढूँढा करते हैं 
और तुम्हें और अच्छा लिखने को 
वजहें दिया करते हैं 
कामयाबी की पहली सीढ़ी  तो 
सिर्फ वो ही हुआ करते हैं 
जो कराते हैं मुहैया तुम्हें 
आलोचना की पहली सीढ़ी 
रखो पाँव उसी आलोचना की कील पर 
हो जाओ लहुलुहान और आगे बढ़ो 
कवि  , कल तुम्हारा है 
कल के आसमान पर रखने को पाँव 
उन्हें नमन तो तुम्हें करना ही होगा 
क्योंकि 
यूँ  ही नहीं कहा गया 
निंदक नियरे राखिये 
आँगन कुटी छवाय 
बिन पानी साबुन बिना 
प्रसिद्धि रहे दिलवाय 

रविवार, 23 मार्च 2014

काश तुम विचारों में ही ज़िंदा होते


भगतसिंह 
काश तुम विचारों में ही ज़िंदा होते 
तो एक और इंकलाब कर गए होते 
मगर आज के परिदृश्य में 
न तुम रहनुमा हो 
न पथिक 
न साथी 
सिर्फ सन्दर्भ भर हो 
जिसे २३ मार्च आने पर ही 
चिताओं की राख से 
उठना है 
उड़ना है 
और फिर 
हवाओं में खो जाना है 
क्योंकि 
आज प्रासंगिक नहीं हो तुम 
न तुम्हारे विचार 
न तुम्हारा आंदोलन 
किसे परवाह है तुम्हारी शहादत की 
 कुर्सी पर बैठे 
इन कठमुल्लाओं से तुम 
क्या उम्मीद करते हो 
कि होते होंगे सच में कभी नतमस्तक 
तुम्हारी शहादत के प्रति 
दो फूल चढ़ाकर तुम्हारी फ़ोटो पर 
हो जाती है जिनकी इतिश्री 
और फिर उतर  जाते हैं 
अपनी हवस की नदियों में 
हाँ , कुर्सी की हवस की नदियों में 
तब याद नहीं आती तुम्हारी कुर्बानी 
बंध जाती है विवेक पर 
तुच्छ स्वार्थों की पट्टी 
और फिर की जाती हैं 
तुम्हारे नाम पर गोष्ठियाँ 
तुम्हारी शहादत को मिसाल बना 
सेंकी जाती हैं अपनी ही रोटियाँ 
बताओ भगतसिंह 
क्या इसी दिन के लिए हुए थे तुम कुर्बान 
क्या इसी दिन के लिए करवाया था देश आज़ाद 
इसीलिए कह रही हूँ 
अब सिर्फ सन्दर्भ भर रह गए हो तुम 
और जानते हो 
आज के इस स्वार्थपरक माहौल को देख कर कह सकती हूँ 
आने वाले काल में 
शायद न रहो प्रासंगिक सन्दर्भों में भी 
क्योंकि 
आज कोई माँ अपने बच्चे को नहीं सुनाती 
गुलामी की दहशत की कहानियां 
नहीं बंधाती ढांढस 
इकलौते सपूत की कुर्बानी पर 
जनता को ये कहकर 
एक भगत कुर्बान हुआ तो क्या है 
ये करोड़ों भगत तो ज़िंदा है तुम्हारे रूप में 
क्योंकि 
गुलामी किस चिड़िया का नाम है  …… यहाँ कोई नहीं जानता 
ये आज की पीढ़ी है 
२१ वीं सदी की पीढ़ी 
और तुम हो 
२० वीं सदी का सिर्फ एक  शिलालेख भर 
 फिर कैसे हो सकता है तारतम्य सदियों के फासलों में 
बताओ तो ज़रा 
और जानते हो 
'सन्दर्भ' जरूरत पड़ने पर सिर्फ प्रयोगों के लिए होते हैं 
जीवन में उतारने के लिए नहीं 
ये है आज के युग की वास्तविकता 
फिर कैसे कहूँ 
स्मृतियों में ज़िंदा हो तुम विचार रूप में 
सिर्फ इतना ही कह सकती हूँ 
शर्मिंदा हूँ अपनी बेचारगी पर 
फिर कैसे सिर्फ नतमस्तक हो 
कर दूं इतिश्री तुम्हारी शहादत पर 


गुरुवार, 20 मार्च 2014

चुभते दिन चुभती रातें

जहाँ न धूप निकलती है उन गलियों में भी ज़िन्दगी पलती है ………#geetashree  बिंदिया के मार्च अंक में ( उस गली में सूरज नहीं निकलता ) ने झकझोर कर रख दिया , मन कल से बहुत व्यथित हो गया तो बस ये ही उदगार निकले :

चुभते दिन चुभती रातें
कोई न बिरहन का दुख बाँचे

कैसे भोर ने ताप बढाया
कैसे साँझ ने जी तडपाया
युग के युग बीत गये
किससे कहे बिरहा की बातें

चुभते दिन चुभती रातें
कोई न बिरहन का दुख बाँचे

प्रेम कली मुस्कायी जब भी
आस की बाती गहरायी तब ही
इक रात की दुल्हन बनकर
उम्र भर की चोट पायी तब ही

चुभते दिन चुभती रातें
कोई न बिरहन का दुख बाँचे

यूँ न प्रीत ठगनी ठगे किसी को
यूँ न प्रेम अगन लगे किसी को
जहाँ भोर भी आने से डरती हो
उन गलियों न ले जाये किसी को

चुभते दिन चुभती रातें
कोई न बिरहन का दुख बाँचे

रविवार, 16 मार्च 2014

कहो तो ……ओ फ़ागुन




रंगों के इंद्रधनुष बनते ही नहीं 
फिर होली का सुरूर कैसे चढ़े 

पिया सांवरे मदमाते ही नहीं 
फिर गोरिया की होली कैसे मने 

पिचकारी प्रेम की चलाते ही नहीं 
फिर लाज का घूंघट कैसे हटे 

कहो तो ……ओ फ़ागुन 

हो हो हो होली कैसे मने 
अबकी प्रीत परवान कैसे चढ़े 

सजनिया कृष्ण बिन राधा कैसे बने 
हो हो हो होली कैसे मने 

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

क्या मेरा डरना जायज नहीं ?

शादी का माहौल हो 
तो मस्ती छा ही जाती है 
कितना छुपाओ चेहरे से 
ख़ुशी झलक ही जाती है 

इक दिन ऐसे ही शादी में जाना हुआ 
मानो कोई गीत गुनगुनाना हुआ 
रोजमर्रा के अख़बार सा चलन लगता है 
जब शादी का सीजन चलता है 
पडोसी के लड़के की शादी थी 
हमें तो सिर्फ इतना भर करना था 
बस जाकर शगन पकड़ना था 
और दावत  पर हाथ साफ़ करना था 

अब जायेंगे तो निगाहें 
घर पर तो नहीं छोड़ जायेंगे 
कुछ न कुछ तो देखेंगे 
कुछ किस्से नागवार भी गुजरेंगे 
तो कुछ दिल को सुकून भी देंगे 
सो हम भी अवलोकन करते घूम रहे थे 
कौन क्या कर रहा है देख रहे थे 

शादी का आकर्षण 
या तो दूल्हा दुल्हन होते हैं 
या फिर शादी में घूमती 
इठलाती , मचलती कन्याएं होती हैं 
जिन की सज धज पर सबकी निगाह होती है 
आकर्षण का मुख्य केंद्र होती हैं 
तो निगाहें भी बार बार 
वहीँ का रुख करती हैं 

अब ऐसे में यदि फैशन परेड सी हो जाए 
कुछ कैट वॉक करती हसीनाएं दिख जाएँ 
तो शादी में पहुँचे कुछ शोहदों की तो निकल पड़ती है 
निगाहों में तोला जाता है 
जाने क्या क्या टटोला जाता है 
जब हसीनाएं बेख़ौफ़ बैक लैस चोली पहनती हैं 
जो सिर्फ एक डोरी से  बंधी होती है 
बेहद खूबसूरत 'हाथ लगाओ तो मैली हो जाए '
ऐसी कोई बाला हो 
और ऐसे में यदि 
उसके पिता का हाथ ही कुछ कहते हुए 
बैक पर पड़ता है 
जाने कैसे न पिता को न पुत्री को असर होता है 
ये कैसी खोखली आधुनिकता है 
ये कैसी अंधानुकरण की प्रवृत्ति है 
जहाँ 
मर्यादाओं की पगड़ी  यूं उछलती हैं 
मानो कोई सीता चिता में जलती है 
ये देख देश की संस्कृति रोती है 
मगर आज आधुनिकीकरण के युग में 
न इस तरफ ध्यान कोई देता है 
फिर यदि कहीं कोई अनहोनी होती है 
तो दोष समाज को मिलता है 

बेशक मनचाहा पहनने पर 
सबका अपना हक़ होता है 
मगर जिस्म की नुमाइश कर 
कौन सी आधुनकिता होती है 
ये तो समझ से परे होती है 
क्या रिश्तों की मर्यादा भी मायने न रखती है 
जब  पिता का हाथ यदि पुत्री के 
अर्धनग्न हिस्से पर पड़ता है 
देखने वालों पर क्या असर होता है 
न इस तरफ कोई ध्यान देता है 

क्योंकि 
हर हाल में 
स्त्री तो स्त्री ही होती है 
अपने स्त्रीत्व के गुणों से भरपूर होती है 
ज़रा इस तरफ ध्यान दे 
आधुनिकता को अपनाएंगे 
तो क्या पिछड़ों की जमात में गिने जायेंगे 
ऐसा न कभी होता है 
बस एक मर्यादा ही पोषित होती है 
और आधुनिकता नग्नता से न उपजती है 
जिस दिन ये समझ जायेंगे 
शायद कुछ समाज को दे जायेंगे 

मगर हमें क्या फर्क पड़ता है 
किसी से कह नहीं सकते 
कुछ कहने पर 
हम पर ही कुछ नागवार कैक्टस 
पलटवार करते नज़र आयेंगे 
सो हम ने भी आँखों देखा हाल जज़्ब किया 
और चुप का ताला मुँह पर जड़ लिया 
बस स्वादिष्ट भोजन का आनंद लिया 
और घर को प्रस्थान किया 

मगर 
जाने क्यों 
उस लड़की की पीठ पीछा करती रही 
रोज सोच पर दस्तक देती रही 

न आधुनिकता के खिलाफ हूँ 
न स्त्री की स्वतंत्रता के खिलाफ हूँ 
स्त्री  अधिकारों के लिए लड़ सकती हूँ 
मगर स्त्री होकर यही सोच रही हूँ 
आखिर जब उसकी वस्त्रहीन पीठ ने 
मुझे व्यथित किया 
तो यदि ऐसे में किसी पुरुष की कुत्सित निगाह पड़ जाये 
तो  ……… ?

मेरे अंदर की स्त्री उस लड़की के लिए डरती रही 
क्या आज के इस अराजक माहौल में 
मेरा डरना जायज नहीं ?
 

शनिवार, 8 मार्च 2014

महिला दिवस के उपलक्ष्य में


सिर्फ एक दिन नही समस्त सृष्टि ही मेरी है 
या कहो मैं हूँ तभी सृष्टि का विस्तार है 
फिर कैसे ना कहूँ 
एक दिन में नही बँधने वाली 
मै हूँ हर दिन जीवन में मनने वाली दीवाली  
अब ये तुम्हें समझना जरूरी है 
जब हर दिन मेरा है 



सुबह से आज जैसे आम महिलायें करती हैं वैसे ही शापिंग के लिये गयी और साडियाँ खरीदीं भी और खरीदवायी भी ………लीजिये मन गया महिला दिवस आज कुछ इस तरह :) और फ़ुर्सत ही नही मिली कि यहाँ आयें मगर अब आये हैं तो आपको बता दें कि महिला दिवस के उपलक्ष्य में कल यानि 9 -3-2014 को रात 8 बजकर 5 मिनट पर आप आकाशवाणी के 246.9 m / 1215 kilo hertz पर महिला काव्य गोष्ठी का आस्वादन कर सकते हैं और चर्चा का भी आनन्द ले सकते हैं और यदि कोई सुने और रिकार्ड कर सके तो कर ले क्योंकि हम तो सुन नही पायेंगे ……कुछ चित्र साझा कर रही हूँ जिसमें रेणु हुसैन, रेणु पंत , इंदु सिंह , पुष्पा राही और आपकी ये दोस्त शामिल है 




रविवार, 2 मार्च 2014

ये संयोग तो नहीं हो सकता ना

दीगर था 
वक्त का रुकना 
चलते वक्त के साथ तो 
सभी चला करते हैं 
मगर 
जो रुक जाती हैं सूइयां 
और बंद हो जाती है घडी 
तब ठहर जाता है 
चलता हुआ लम्हा 
उस रुके हुए पल की 
मृत्यु शैया के पायतानों पर 
क्योंकि 
कहीं दूर टंकारता 
समय चक्र 
बेशक अपने चलने को 
सिद्ध करता रहे 
मगर 
रुकी घडी साक्षी थी 
वक्त के रुकने की , थमने की , ठहरने की 
बेशक
विराम की अवस्थाएं वाहक हैं पुनर्जन्म की 
मगर 
दीगर था
वक्त का रुकना 
उस रुकी घडी के साथ 
शून्य को भरने को 
चाहे कितने सूर्य उगा लो 
खालीपन नहीं भरा करते ठूंठ हुए वृक्षों के ............. 

(उधर एक ज़िन्दगी थम रही थी और इधर ये कविता उतर रही थी और दोनों में से किसी को नहीं पता था कि अगले पल क्या होने वाला है मगर कोई अवचेतन में बैठा यूं कविता में माध्यम से थमती ज़िन्दगी को बयां कर रहा था मगर उस वक्त ऐसा कुछ होने का अहसास भर भी न था और सच में एक घडी बंद हो गयी उसी क्षण ............. ये संयोग तो नहीं हो सकता ना ……… कल रात ऐसा ही हुआ जब ये कविता लिखी जा रही थी और उधर किसी अपने की ( पति के चाचा जी की )साँसें थम रही थीं …… अजब कैफियत है आज दिल की ये सोच सोच जब दोबारा इस कविता से गुजरी )

बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

"बदलती सोच के नए अर्थ " का सफ़र


दोस्तों 
मेरे आने वाले पहले संग्रह "बदलती सोच के नए अर्थ " का सफ़र भी बहुत अजीबोगरीब रहा । पहले तो मैंने सोचा ही नही था संग्रह निकलवाने का । काफ़ी वक्त से कुछ दोस्त कहते रहते थे और मैं चुप हो जाती थी तब मेरी एक खास छोटी बहन सरीखी मित्र ने बहुत जोर दिया और इस संग्रह को निकलवाने को प्रेरित किया और हिन्दी अकादमी में भेजने के लिये जोर दिया और मैं हिम्मत ही नही कर पा रही थी क्योंकि वहाँ की राह नही जानती थी फिर भी उनके जोर देने पर हिम्मत करके पाण्डुलिपि तैयार कर ली और इसी बीच मेरा एक्सीडेंट हो गया और मैं बिस्तर पर हो गयी और सारा काम वहीं रुक गया और मैने तो उम्मीद का दामन भी छोड दिया क्योंकि जो पाण्डुलिपि जमा कराने की आखिरी तिथि थी वो पास आती जा रही थी और मै कुछ काम कर नही सकती थी मगर जैसे तैसै मेरी बेटी , बेटे और पति ने मिलकर सारे काम समय से पूरे करके जमा करवा दी तो एक निश्चिंतता आ गयी मगर अब थी इंतज़ार की घडियाँ जो लम्बी और लम्बी होती जा रही थीं और जब पुस्तक मेला नज़दीक आने लगा और प्रकाशक भी इतनी जल्दी छापने से हिचकिचाने लगे तब पता चला कि पुस्तक को अकादमी से स्वीकृति मिल गयी है तो समस्या यहाँ खडी हुयी कि पुस्तक मेले तक तो अब संभव ही नही किताब का आना और बहुत से मेरे मित्र चाह रहे थे कि पुस्तक मेले तक बुक आ जाये और ऐसे में एक बार फिर मेरी वो ही मित्र कृष्ण सा सारथी बन फिर सामने आ गयी और सारा जिम्मा अपने ऊपर ले लिया कि मै आपको छपवा कर दे दूंगी आप चिन्ता मत करें जिसे उन्हें इस खूबी से निभाया कि परिलेख प्रकाशन के अमन कुमार जी को मेरी पाण्डुलिपि सौंप दी और कह दिया इतने दिन में चाहिये किताब , ना पैसे की बात ना प्रतियों की बस सीधा कह दिया और मुझे निश्चिंत कर दिया और उन्होने भी अपने वचन को निभाया । मेरी तो प्रकाशक से तब जाकर बात हुई जब प्रूफ़ रीडिंग के लिये आया …………और आज उन्हीं के अपरिमित सहयोग और मार्गदर्शन की वजह से ये संग्रह आपके सम्मुख आ रहा है जिनके लिये , आभार , धन्यवाद और शुक्रिया जैसे शब्द मुझे बहुत तुच्छ लग रहे हैं क्योंकि आज के इस युग में कौन किसी के लिये इतना करता है निस्वार्थ होकर ……………यहाँ तक कि अब भी सब वो ही देख रही हैं जिन्हें हम और आप#डाक्टरसुनीता#के नाम से जानते हैं जो नही चाहती थीं कि उनका नाम सामने आये लेकिन मुझसे रहा ही नहीं गया इसलिये आज सब बता दिया .............जिन्हें अब भी जब चाहे जहाँ चाहे मैं फोन बजा कर तंग कर देती हूँ और वो मुस्कुराकर मेरा काम पूरा कर देती हैं बताइये ऐसे शख्स के लिये शुक्रिया शब्द कितना छोटा होगा इसलिये बस इतना ही कहूँगी उनके लिये जो मेरे दिल में मान सम्मान है वो शब्दों में बयाँ नहीं हो सकता , जाने किस जन्म का नाता है उनसे क्योंकि इस जन्म मे तो मैने ऐसा कुछ किया नही , ना उनसे इतना मिलना जुलना हुआ बस शायद दिल से ही दिल मिल गया ………मेरी पुस्तक के इस सफ़र की एक ऐसी साथी रहीं जिसके सहयोग के बिना इस पुस्तक का आना संभव ही नही दिख रहा था ………… #डाक्टरसुनीता#