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रविवार, 14 दिसंबर 2008

शून्य से शून्य की ओर

शून्य से शून्य की ओर जाता ये जीवन
कभी न भर पाता ये शुन्य
पैसा, प्यार, दौलत ,शोहरत
कितना भी पा लो फिर भी
शून्यता जीवन की
कभी न भर पाती
हर पल एक भटकाव
कुछ पाने की लालसा
क्या इसी का नाम जीवन है
हर कदम पर एक शून्य
राह ताकता हुआ
शून्य स शुरू हुआ ये सफर
शून्य में सिमट जाता है
जीवन की रिक्तता
जीवन भर नही भरती
और हम
शून्य से चलते हुए
शून्य में सिमट जाते हैं

4 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर जीवन को परिभाषित किया है।
बहुत बढिया रचना है।

vijay kumar sappatti ने कहा…

jeevan ki sahi abhivyakti

har pankti apne aap mein ek sach hai

badhai

vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/

sandhyagupta ने कहा…

Kaphi arthpurna.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

शून्य में दुनिया समाई, शून्य से संसार है।
शून्य ही तो गणित का आधार है।