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गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

गर बच सके तो "कुछ" बचा लो

मिट रही है इंसानियत
बढ़ रही है हैवानियत
इंसानियत के नीलाम
 होने से पहले
गर बच सके तो
"कुछ" बचा लो

बिक चुका  है जो जमीर

लालच हुआ अधीर
जमीर को बिकने से पहले
गर बच सके तो
"कुछ" बचा लो

ये रगों मे लहू बन

रेंगते बेशर्मी के कीड़े
दरिंदगी की लाज शर्म भी
न जिन्हें रास आती
उन हैवानों की हैवानियत के
चंगुल में फंसने से पहले
गर बच सके तो
"कुछ" बचा लो

चाहे मलाला हो

चाहे सोनाली हो
कट्टरपंथियों की नाक ना नीची हो
इस चरमपंथियों की गिरह से
बेबस मासूमों की
बलि चढ़ने से पहले
गर बच सके तो
"कुछ" बचा लो

जो आधुनिकता की

भेंट चढ़ गयी हैं
संस्कारों की दौलत
उसे वस्त्रहीन होने से पहले
गर बच सके तो
"कुछ" बचा लो

संस्कृति, संस्कार और सभ्यता 

एक सिक्के के दो पहलू
आज टके भाव भी न बिकते हैं
फिर भी आने वाली पीढ़ी के लिए
ईमान के इस खजाने को
नेस्तनाबूद होने से पहले
गर बच सके तो
"कुछ" बचा लो


बस अपने हाथों में

इक ईमान की
इक सच्चाई की
इक इंसानियत की
इक इबादत की
कोई लकीर बना सको तो बना लो
खाली  हाथ आए
खाली ही जाना है
इस उक्ति को सार्थक
करने से पहले
गर बच सके तो
"कुछ" बचा लो
यारा ............
गर बच सके तो
"कुछ" बचा लो ..............

20 टिप्‍पणियां:

सदा ने कहा…

सहज़ सरल शब्‍दों में हकीकत बयां करती पोस्‍ट ... अनुपम प्रस्‍तु‍ति

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

मिट रही है इंसानियत बढ़ रही है हैवानियत इंसानियत के नीलाम होने से पहले गर बच सके तो "कुछ" बचा लो .....

"कुछ" तो बचा लो ....

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत अच्छी रचना .... संकेत देती हुई कि चाहो तो कुछ बचा लो ।

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

हां सच ही तो ...थोड़ा सा जो कुछ बचा है वो ही बचा लों अब तो ...:)))

Kunwar Kusumesh ने कहा…

सुन्दर रचना है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। मगर होश तो आये पहले!

Mamta Bajpai ने कहा…

सच कहा आपने

बेनामी ने कहा…

बेहतर प्रस्तुति !!

बेनामी ने कहा…

बेहतर प्रस्तुति !!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

दमदार अभिव्यक्ति..

Rohitas Ghorela ने कहा…

सहज और सरल भाषा में बहुत कुछ बोल गयी ये कविता ...मैं तो इसे एक तंज़ के रूप में देख रहा हूँ जो की एक शूल की तरह चुभता हैं।

मेरी नयी पोस्ट पर आपका स्वागत है
http://rohitasghorela.blogspot.in/2012/12/blog-post.html

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) ने कहा…

संस्कृति, संस्कार और सभ्यता
एक सिक्के के दो पहलू
आज टके भाव भी न बिकते हैं
फिर भी आने वाली पीढ़ी के लिए
ईमान के इस खजाने को
नेस्तनाबूद होने से पहले
गर बच सके तो
"कुछ" बचा लो
**************************
"कुछ" को बचाने के संदेश का क्रियांवयन हो तो "बहुत कुछ" बच जाएगा. विचारों को झकझोरती हुई बेहतरीन रचना.

mridula pradhan ने कहा…

prabhavshali......

mridula pradhan ने कहा…

prabhavshali......

mridula pradhan ने कहा…

prabhavshali......

नादिर खान ने कहा…

सुंदर अभिव्यक्ति उम्दा ख़यालखूबसूरत अंदाज़ ...

Vandana Ramasingh ने कहा…

विचारणीय प्रस्तुति

Madan Mohan Saxena ने कहा…

बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही भावनामई रचना .बहुत बधाई आपको

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

सरल शब्दों में वास्तविकता पर लिखी सुन्दर रचना ,सुन्दर अभिव्यक्ति .
मेरी नई पोस्ट में आपका स्वगत है

Saras ने कहा…

वाकई ...कितना कुछ दांव पे लगा है ...अगर हम कुछ भी बचा लें ..तो जीने को अर्थ मिल जाये ..!