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शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

और नींद है कि टूटती ही नहीं

गाँव खो रहे हैं 
शहर सो रहे हैं 
और नींद है कि टूटती ही नहीं 

विकास के पहिये ने 
रेत दी हैं गर्दनें 
मगर लहू है कि कहीं दिखता ही नहीं 

उम्मीदों के आकाश 
चकनाचूर हो रहे हैं 
और अच्छे दिन की आस है कि टूटती ही नहीं 

शस्त्रागार में शस्त्र हैं बहुत 
मगर चलाने के हुनर से नावाकिफ हैं जो 
नहीं जानते चक्रव्यूह भेदने की विधा 

अब और नहीं 
अब और नहीं 
अब और नहीं 
कहते कहते गुजर गयीं सदियाँ 
मगर तख्तापलट है कि होता ही नहीं 

शायद यही है  वजह 
कि अब गुंजाईश को जगह बची ही नहीं 
अभिमन्यु भेदना है इस बार चक्रव्यूह तुम्हें ही .........मरना हासिल नहीं ज़िन्दगी का 

4 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

पच्चीसवीं वैवाहिक वर्षगाँठ पर आप दोनों को हार्दिक बधायी हो।
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सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (31-01-2015) को "नये बहाने लिखने के..." (चर्चा-1875) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Neeraj Neer ने कहा…

बहुत सुंदर

Anita ने कहा…

आस टूटनी भी नहीं चाहिए

शारदा अरोरा ने कहा…

bahut achchha likha hai Vandna ji..