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शुक्रवार, 8 मई 2015

न तुम गया वक्त हो और न मैं .........

जाने वो कौन सा गाँव कौन सा शहर कौन सी डगर है
जहाँ कोयल के कुहुकने से होती हैं सुबहें

अब चौपाये इश्क के हों या अंधेरों के
एक बिखरी रौशनी कात रही है सूत
उम्र का रेशा रेशा कम होता रहे बेशक
ओढने को चादर बना ही दी जाएगी

फिर क्या फर्क पड़ता है
दिन हो या रात
शहर हो या गाँव
गली हो या डगर
नीम बेहोशी के गुम्बदों पर ही तो
गुटर गूं किया करते हैं इश्क के कबूतर

ये दैनन्दिनी नहीं
जिसमे दर्ज की जा सकें हिमाकतें
इश्क के खूबसूरत छलावों ने ही तो बांधे हैं पीपल पर लाल धागे

फिर कौन सुप्त तारों को झिंझोड़े
और बनाए एक नयी सरगम
जब इश्क की कोयलों के पाँव में छनकती हों पायलें
और नर्तन से करती हो धरा अपना श्रृंगार

आओ कि उस सुबह का आगाज़ करें हम .......लेकर एक दूजे का हाथ हाथों में
न तुम गया वक्त हो और न मैं .........

3 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

ऐसा वक़्त ही तो रुक जाता है जंहा से आगे हमारी याद आगे नहीं बढ़ती

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-05-2015) को "चहकी कोयल बाग में" {चर्चा अंक - 1970} पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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विभूति" ने कहा…

खुबसूरत अभिवयक्ति.....