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रविवार, 12 अप्रैल 2020

फिर जीने का क्या सबब?


सच ही तो है
मर चुके हैं मेरे सपने
और नए देखने की हिम्मत नहीं
अब बताये कोई वो क्या करे ?
हाँ , गुजर रही हूँ उसी मुकाम से
जहाँ कोई तड़प बची ही नहीं
एक मरघटी सन्नाटा बांह पसारे
लील रहा है मेरी रूह
कैसे पहुँचे कोई मेरे अंतस्थल तक
जबकि वक्त के अंतराल में तो बदल जाती हैं सभ्यताएं

मोहब्बत की भाप से अब
नहीं होती नम
मेरे दिल की जमीं
शून्य से नीचे जमी बर्फ
गवाह है
मेरी आँख के अंधेपन की
जो ठहर गयी है मेरी आँख में
जहाँ तस्वीर हो या घटना
घटती रहे मगर
हर असर से अछूती रहे
जिसमे भावनाओं के उद्वेलन
महज कोरे भ्रम भर हों
एक कटी पतंग सरीखा
हो गया हो अस्तित्व
खुद से खुद का विचलन संयोग नहीं
वर्तमान है ...

ये मेरी शून्यता का आईना ही तो है
जिसमे भरी गयी भावांजलि
एक सुलगती कटार के साथ
ये शब्दों की सुलगती देह
झुलसा तो रही है
मगर राह नहीं दिखा रही मुझे
जो लिपट जाऊं खुद से ही
और चूम लूँ अपनी ही रूह
क्योंकि
रस्मोरिवाज की कठपुतलियाँ इशारों की मोहताज हुआ करती हैं
और मेरी डोर
किसी अदृश्यता में ढूँढ रही है एक तिरछी नज़र

हुक्मरान
आज्ञा दो हुजूर
फतवों की साँसों पर लगे पहरे
घोंट रहे हैं मेरा गला
कि
सपनों की कूच नहीं छोडती निशान भी
फिर जीने का क्या सबब?




9 टिप्‍पणियां:

sunita shanoo ने कहा…

ओह क्या लिख डाला है। *फतवों की सांसों पर लगे पहले*

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

किस दर्शन में जा पहुँची हो ? बहुत अच्छा लिखा है ।

vandana gupta ने कहा…

@ sunita shanoo बस कुछ हकीकत कहने की कोशिश है

vandana gupta ने कहा…

@ रेखा श्रीवास्तव जी शायद ये समझ आ जाए :)

Akiv Javed ने कहा…

वाह जी वाह

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत खूब।

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) ने कहा…

उहापोह घुटन,कभी खुलकर साँस लेती है
इन्ही के बीच से होकर गुजरती है ज़िन्दगी ।

गहरी बात ।

अजय कुमार झा ने कहा…

आपका तो अंदाज़ ही निराला है हमेशा से दोस्त जी। बहुत कम में,बहुत ज्यादा और बहुत गहरा। शुभकामनाएं

Daisy ने कहा…

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