मेरे चेहरे पर एक जंगल उगा है
मतलबपरस्ती का
मेरी दाढ़ों में माँस अटका है
खुदगर्जी का
आँखों पर लगा है चश्मा
बेहयाई का
मारकाट के आईने में
लहू के कतरे
सहमा रहे हैं पूरी सभ्यता को
भूख के ताबीज चबा रही हैं
आने वाली पीढ़ियाँ
कोहराम और ख़ामोशी के मध्य
साँसों की आवाजाही
ज़िन्दगी की बानगी नहीं
क्या दिखाई देते हैं तुम्हें इसमें
जीवन के चिन्ह
आज पूछ रहा है देश मेरा
और मैं .... शर्मिंदा हूँ
©वन्दना गुप्ता vandana gupta
2 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (27-07-2018) को "कौन सुखी परिवार" (चर्चा अंक-3045) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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Hey !
very nice article, keep up the good work.
AyurvedicNuskhe.ooo
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