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सोमवार, 1 मार्च 2021

दस्तकों से ऐतराज नहीं

 मुझे दस्तकों से ऐतराज नहीं

यहाँ अपनी कोई आवाज़ नहीं
ये किस दौर में जीते हैं
जहाँ आज़ादी का कोई हिसाब नहीं
चलो ओढ़ लें नकाब
चलो बाँध लें जुबान
कि
ये दौर-ए बेहिसाब है
यहाँ किसी का कोई खैरख्वाह नहीं
दाँत अमृतांजन से मांजो या कॉलगेट से
साँसों पे लगे पहरों पर
तुम्हारा कोई अख्तियार नहीं
आज के दौर का यही है बस एकमात्र गणित
मूक होना ही है निर्विकल्प समाधि का प्रतीक
तो
शोर देशद्रोह है , राष्ट्रद्रोह है
हाथ ताली के लिए
मुँह खाने के लिए
सिर झुकाने के लिए
इससे आगे कोई रेखा लांघना नहीं
कि
सीमा रेखा के पार सीता का निष्कासन ही है अंतिम विकल्प...

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (03-03-2021) को     "चाँदनी भी है सिसकती"  (चर्चा अंक-3994)    पर भी होगी। 
--   
मित्रों! कुछ वर्षों से ब्लॉगों का संक्रमणकाल चल रहा है। आप अन्य सामाजिक साइटों के अतिरिक्त दिल खोलकर दूसरों के ब्लॉगों पर भी अपनी टिप्पणी दीजिए। जिससे कि ब्लॉगों को जीवित रखा जा सके। चर्चा मंच का उद्देश्य उन ब्लॉगों को भी महत्व देना है जो टिप्पणियों के लिए तरसते रहते हैं क्योंकि उनका प्रसारण कहीं हो भी नहीं रहा है। ऐसे में चर्चा मंच विगत बारह वर्षों से अपने धर्म को निभा रहा है। 
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
--  

Dr Varsha Singh ने कहा…

आज के दौर का यही है बस एकमात्र गणित
मूक होना ही है निर्विकल्प समाधि का प्रतीक

गहरी बात...
उम्दा कविता