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सोमवार, 22 नवंबर 2010

खाली पहर

आज एक
खाली पहर
बीत रहा है
कोई सांस नहीं
कोई आस नहीं
कोई चाह नहीं
अब इसमें
हर स्पंदन मौन
वक्त की मूक
अभिव्यक्ति का
गवाह बनता
ये पहर
कुछ छीने
भी जा रहा है
जैसे लूट कर
ले गया हो कोई
किसी की अस्मत
और जुबाँ भी
मौन हो गयी हो
बचा हो तो
सिर्फ उस पहर का
रीतापन
अपने बेसबब
हाल पर
कुंठाओं के
बीज बोता हुआ
 अब कुछ नही बचा……………
शायद खालीपन का अहसास भी नही
जैसे बुहारा गया हो आंगन
 और निशाँ सब मिट चुके हों

26 टिप्‍पणियां:

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

प्रेम के एक और सुन्दर अप्रतिम अभिव्यक्ति .. बहुत सुन्दर !

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

जैसे बुहारा गया हो आंगन
और निशाँ सब मिट चुके हों

चलिए फिर नयी इबारत लिखिए ...काश ऐसा हो सके की निशाँ भी मिट जाएँ ....पर ऐसा होता नहीं ...

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

बहुत गहरे भाव लिए हुए कविता!

बेनामी ने कहा…

अरे वंदना जी लीजिये आपके खली पहर को अपनी टिप्पणी से भर देता हूँ.. :)
बहुत ही ख़ूबसूरत भाव हैं कविता के....


यह हैं देश के सच्चे सपूत और आप इन्हें ही नहीं पहचान पाए .... . ...

Kusum Thakur ने कहा…

गहरे भाव..... अच्छी रचना !

Kusum Thakur ने कहा…

गहरे भाव..... अच्छी रचना !

Dorothy ने कहा…

खालीपन के अंतिम बिंदु तक के सफ़र के परे जाकर खालीपन के रीतते जाने के अहसास की, दिल को कचोटती मर्मस्पर्शी और खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
सादर,
डोरोथी.

बेनामी ने कहा…

वन्दना जी,

वाह....बहुत सुन्दर.....ये पंक्तियाँ बहुत शानदार बन पड़ी हैं क्या जबरदस्त उपमा दी है आपने इनमे ....बहुत सुन्दर .....

"अभिव्यक्ति का
गवाह बनता
ये पहर
कुछ छीने
भी जा रहा है
जैसे लूट कर
ले गया हो कोई
किसी की अस्मत
और जुबाँ भी
मौन हो गयी हो "

मोहसिन ने कहा…

बहुत ही सुन्दर कविता लिखी है आपने.

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

वंदना जी आपकी हर कविता लाजवाब होती है।

---------
ग्राम, पौंड, औंस का झमेला। <
विश्‍व की दो तिहाई जनता मांसाहार को अभिशप्‍त है।

रश्मि प्रभा... ने कहा…

her din behtareen khwaabon khyaalon hakikat ke bunti hain aap aur mujhe amrit ki kuch bunden mayassar ho jati hain

JAGDISH BALI ने कहा…

lovely !

M VERMA ने कहा…

जैसे बुहारा गया हो आंगन
और निशाँ सब मिट चुके हों
निशाँ जब मिट जाते हैं तो अप्रतिम सम्भावनाएँ नए निशाँ की हो जाती है
बेहतरीन रचना

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जीवन के आँगन के निशां इतनी आसानी से कहाँ मिट पाते हैं।

अनुपमा पाठक ने कहा…

खाली पहर फिर भी रीता कहाँ !
बीतता जीवन अभी है बीता कहाँ !!
सुन्दर रचना!

मनोज कुमार ने कहा…

अकसरहां खालीपन के निशान मिटते नहीं ...
रह जाते हैं अमिट
छोड़ जाते हैं छाप।

बेनामी ने कहा…

जैसे बुहारा गया हो आंगन
और निशाँ सब मिट चुके हों

uff...itna sundar likha hai ke shabd maun hain, toooo good !

दिगम्बर नासवा ने कहा…

ख़ालीपन का एहसास सब कुछ लूट के ले जात है ... एकाकी हो जाता है मन .... बहुत अच्छा लिखा है ...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

कोई सांस नहीं
कोई आस नहीं
कोई चाह नहीं
--
रचना सोचने को बाध्य करती है!
--
सुन्दर गवेषणा!

मंजुला ने कहा…

bahut sundar varnan man ki bhavnao ka....

तदात्मानं सृजाम्यहम् ने कहा…

ये पहर
कुछ छीने
भी जा रहा है
जैसे लूट कर
ले गया हो कोई
किसी की अस्मत
और जुबाँ भी
मौन हो गयी हो ...
बहुत ही ख़ूबसूरत...दिल को अभिव्यक्ति करती रचना

निर्मला कपिला ने कहा…

कहाँ मिट पाते हैं वक्त के निशाँ जितना भी बुहरा गया हो लकीरें तो रह ही जाती हैं। सुन्दर अभिव्यक्ति। बधाई।

मेरे भाव ने कहा…

ये पहर
कुछ छीने
भी जा रहा है
जैसे लूट कर
ले गया हो कोई
किसी की अस्मत
और जुबाँ भी
मौन हो गयी हो ...
बहुत ही ख़ूबसूरत रचना

Amit K Sagar ने कहा…

--
इतनी उम्दा कि कहीं जगह नहीं कि रख सकूं इधर से उधर कुछ भी.
शुभकामनाएं. जारी रहें.
---
कुछ ग़मों के दीये

ankit the fame ने कहा…

akelepan me bhi to anand hota hai. dhondhne wala chahiye

Rohit Singh ने कहा…

खालीपन का अहसास भी अगर नहीं रहा तो फिर तो बचा ही क्या। सही में अहसास काफी मूल्यवान होते हैं। पर कभी कभी वो भी नहीं बचते। सही कहा है आपने।