किसी के जाने के बाद
झरती हैं यादें रह रह
ये जाना वास्तव में जाना नहीं होता
जाने वाला भी तो समेटे होता है रिश्तों की धार
कराता है अहसास पल पल
मैं हूँ तुम्हारी ज़िन्दगी में उपस्थित
कभी बूँद की तरह
तो कभी नदी की तरह
कभी पतझड़ की तरह
तो कभी बसंत की तरह
कभी सावन की रिमझिम फुहारों की तरह
तो कभी जेठ की तपिश की तरह
मैं जा ही नहीं सकता कभी कहीं
मैं हूँ अब यादों के नीड़ में
कैसे मुझे भुला आगे बढ़ सकते हो
छोड़ी हैं मैंने अपनी निशानियाँ
रेशम की डोरियों में
माँ की गोदियों में
बच्चों की लोरियों में
पिया की शोखियों में
कोई कर ही नहीं सकता मुझे निष्कासित
फिर वो राखी हो या करवाचौथ
होली हो या दिवाली
या फिर हों जन्मदिन
आस पास ही रहता हूँ सबके
इक कसकती हूक बनकर
यूँ तो हो जाते हैं
जीते जीते ही रिश्ते मृत
तो वही होता है असलियत में जाना
हो जाना ख़ारिज रिश्तों से
मृत्यु , वास्तव में जाना नहीं होती....
पिछले साल 20 दिसंबर को छोटी उम्र में ही मेरी ननद इस संसार से विदा हो गयी थीं. अब राखी आने वाली थी तो दिल बहुत उदास था. रह रह उनकी कमी का अहसास होता रहा तकरीबन आठ दस दिन से बहुत शिद्दत से याद आ रही थी. तब जाकर अहसास हुआ जाने वाले कहाँ जाते हैं. वो खुद अपनी उपस्थिति का अहसास हमें कराते रहते हैं और होते हैं हमारे साथ ही जिन्हें वो छोड़कर गए हैं उनके रूप में.......कल उनके बच्चों और पति को भी बुलाया हमेशा की तरह ताकि लगे वो हैं हमारे आस पास ही ... क्या हुआ जो राखी का धागा नहीं क्योंकि स्नेह का धागा तो वो हमारे बीच छोड़ कर गयी हैं जो हमेशा बना रहेगा...बस जो इतने दिनों से महसूस रही थी आज इस रूप में बाहर आया ...
2 टिप्पणियां:
सही कहा है आपने, आपकी कविता पढ़कर मुझे मेरी भाभी का स्मरण हो आया वह भी असमय में तीन वर्ष पूर्व हमें छोड़कर चली गयीं, पर आज भी वह अपनी अनगिनत यादों में आसपास ही प्रतीत होती हैं.
दिल को छूती रचना!!!
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