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गुरुवार, 11 मार्च 2021

जरूरी तो नहीं मुकम्मल होना हर ज़िन्दगी का…………

पास रहने पर
साथ रहने पर
फिर भी इक
उम्र बीतने पर
एक दूजे के
मन को ना जान पाना
आह ! कितना सालता होगा ना वो दर्द
जो ना कह पाये ना सह पाये


ज़िन्दगी के तमाशे में तमाशबीन बनकर रह जाना
जैसे नींद से उम्र भर ना जागना और ज़िन्दगी का मुकम्मल हो जाना
जैसे जागने वाली रातों के ख्वाब संजोना मगर दिन का ना ढलना
जैसे चाशनी को जुबां पर रखना मगर स्वाद का ना पता चलना


अधूरी हसरतें अधूरे ख्वाब अधूरी ज़िन्दगी और स्वप्न टूट जाये
खुली किताब हो और अक्षर धुंधला जायें ज़िन्दगी के मोतियाबिंद से
जीने के बहानों में इज़ाफ़ा हो और ज़िन्दगी ही हाथ से छूट जाये
बस कुछ यूँ तय कर लिया एक अनचाहा, अनमाँगा सफ़र हमने
जरूरी तो नहीं मुकम्मल होना हर ज़िन्दगी का…………

2 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बस कुछ यूँ तय कर लिया एक अनचाहा, अनमाँगा सफ़र हमने
जरूरी तो नहीं मुकम्मल होना हर ज़िन्दगी का………

आज तो कुछ अलग सा रंग लिए है तुम्हारी ये रचना .
यूँ भावों को बखूबी लिखा है .

Anita ने कहा…

उम्र बीत जाने पर भी हम खुद से ही अपरिचित रह जाते हैं फिर औरों की तो बात ही क्या है, कोई खुद से मिलना ही नहीं चाहता, समय नहीं है इसके लिए लोगों के पास फिर दूसरे अजनबी रह जाएं तो बड़ी बात नहीं