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शुक्रवार, 5 मार्च 2021

यत्र तत्र सर्वत्र ...

हम सभी शेर हैं बधाई देने में फिर वो जन्मदिन हो शादी की सालगिरह या कोई उपलब्धि ...

इसी तरह निभाते हैं हम
श्रद्धांजलियों का सिलसिला
करके नमन या कहकर बेहद दुखद
कर ही देते हैं प्रगट अपनी संवेदनाएं ....
बस नहीं हो पाते इतने उदारवादी
किसी भी अच्छी
कविता, कहानी या पोस्ट पर ...
हाँ होते हैं उदारवादी
किसी भी कंट्रोवर्शल पोस्ट
या महिला के फोटो पर
शायद यही है वास्तविक चरित्र
जहाँ हम उगल देते हैं
अपनी कुंठित सोच
और हो जाते हैं निश्चिन्त
करके दुसरे की नींद हराम
बस इतना सा है हमारे होने का अभिप्राय
कि पहचान के लिजलिजे कीड़े कुलबुलायें उससे पहले जरूरी हैं ऐसे घात प्रतिघात ...
ये शोर का समय है
और प्रतिरोध जरूरी है
चुप्पी साध के
जबकि जरूरी चीजों को
एक तरफ करने का इससे बेहतर विकल्प
भला और क्या होगा
जरूरी है हमारी तुच्छ मानसिकता का प्रसार
छोटी सोच सहायक है
हमारे मानसिक सुकून के लिए
बस इसलिए ही फैले हैं हम
यत्र तत्र सर्वत्र ...

5 टिप्‍पणियां:

कविता रावत ने कहा…

औपचारिकता सर्वत्र व्याप्त है,
वास्तविक चरित्र एक न एक दिन उजागर हो ही जाना है

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

कितना ही छुपाओ जो वास्तविकता है कभी न कभी सामने आ ही जाती है ।।कुंठित मन सब जगह व्याप्त हैं ।

How do we know ने कहा…

बहुत, बहुत सुंदर रचना!

अनीता सैनी ने कहा…

जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (०९-०३-२०२१) को 'मील का पत्थर ' (चर्चा अंक- ४,००० ) पर भी होगी।

आप भी सादर आमंत्रित है।
--
अनीता सैनी

मन की वीणा ने कहा…

बहुत सही कहा आपने सच ये ही है यत्र तत्र सर्वत्र।
यथार्थ पर प्रहार करती सच्ची रचना।