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गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010
पर्दा हटा दिया.........
इक पर्दा लगाया आज तेरी यादों को ओट में रखने को जब जी चाहे चली आती थीं और हर ज़ख्म को ताज़ा कर जाती थीं मगर बेरहम हवा ने यादो का ही साथ दिया जैसे ही आई यादें पर्दा हटा दिया और एक बार फिर हर ज़ख्म को झुलसा दिया
29 टिप्पणियां:
बेनामी
ने कहा…
अक्सर ही हवाओं के ये थपेड़े यादों का ताज़ा कर जाते हैं..
ये तो होना ही था! आपने परदा ही तो खींच दिया था, खिड़की के कपाट तो खुले थे। और याद को बसा कर रखा था मन-आंगन में .... एक पुराना मौसम लौटा, याद भरी पुरवाई भी, ऐसा तो कम ही होता है वो भी हों, तनहाई भी। यादों की बौछाड़ों से जब पलकें भीगने लगती हैं, कितनी सौंधी लगती है, तब माझी की रुसबाई भी।
वक्त की हवा ऐसी ही होती है, जब चाहे चलने लगती है,सहेजे हुए यादों के पत्तें फिर से बिखरने लगते है,और कुछ जानी-सी महक उन पत्तों से निकलकर मन के चौखट लांघ कर आँखों से रिसने लगती है.
हम सभी अपने स्मृतियों को खुद से भी छुपा कर पर्दे में रखना चाहते है पर अक्सर वक्त का झौंका जब उनको हल्के से भी स्पर्श कर जाता है और मन में फ़िर से उस अंधेरे में डूबे पीड़ा संसार को रोशनी के दहलीज पर ढकेल देता है. तब मन फ़िर से सब कुछ को भूल कर उस खट्टे मीठे संसार में डूबता उतराता रह जाता है. मन को गहराईयों तक जा कर छूने वाली एक खूबसूरत और भाव विभोर कर देने वाली प्रस्तुति. आभार. सादर, डोरोथी.
29 टिप्पणियां:
अक्सर ही हवाओं के ये थपेड़े यादों का ताज़ा कर जाते हैं..
बहुत ही ख़ूबसूरत रचना
उदास हैं हम ....
यादों का झोका प्रेम को नई दिशा में उदा ले जाता है और सब ज़ख्म हरे हो जाते हैं .. सुंदर रचना...
ओह ..यह हवा भी कितनी बेरहम है ...यादों पर कोई पर्दा कभी टिका है ? सुन्दर अभिव्यक्ति
पर्दा
हटा दिया
और
एक बार
फिर
हर ज़ख्म
को झुलसा दिया
..
--
बहुत सुन्दर भावभरी रचना लिखी है आपने!
बधाई!
पर्दा
हटा दिया
और
एक बार
फिर
हर ज़ख्म
को झुलसा दिया
..
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बहुत सुन्दर भावभरी रचना लिखी है आपने!
बधाई!
यादे ही इन जख्मो को हवा दे जाती हे, ताजा कर जाती हे, धन्यवाद
yaadon ka jhonka parde ki ot se bhi bahar aata hai aur ... jane kitni manahsthitiyaan de jata hai
मन को छू गये आपके भाव।
pardanasheen!!
कुछ यादें मन झुलसाती है, कुछ मन हुलसाती हैं।
वाह ! बहुत ही खूबसूरत रचना ! पुरवईया बयार सा प्रतीत हुआ !
bahut khoosurti se vandana ji aapne yaado ko beraham keh diya... bahut pyari kavita...
vandana ji aapki yah kavita aapke hi chachamanch par hai kal kee subeh... dhanyvaad
ये तो होना ही था! आपने परदा ही तो खींच दिया था, खिड़की के कपाट तो खुले थे। और याद को बसा कर रखा था मन-आंगन में ....
एक पुराना मौसम लौटा, याद भरी पुरवाई भी,
ऐसा तो कम ही होता है वो भी हों, तनहाई भी।
यादों की बौछाड़ों से जब पलकें भीगने लगती हैं,
कितनी सौंधी लगती है, तब माझी की रुसबाई भी।
बहुत सुन्दर भाव है आपकी रचना में !
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क्यूँ झगडा होता है ?
वक्त की हवा ऐसी ही होती है, जब चाहे चलने लगती है,सहेजे हुए यादों के पत्तें फिर से बिखरने लगते है,और कुछ जानी-सी महक उन पत्तों से निकलकर मन के चौखट लांघ कर आँखों से रिसने लगती है.
अच्छी रचना के लिए बधाई!
bohot hi sundar... man ko chu gayi aapki rachna...
behad khoobsurat rachna.
वाह...बहुत सुन्दर रचना है.
sundar rachna!
yaadein parde se kahaan rukti hain....
sundar rachna!
yaadein parde se kahaan rukti hain....
हम सभी अपने स्मृतियों को खुद से भी छुपा कर पर्दे में रखना चाहते है पर अक्सर वक्त का झौंका जब उनको हल्के से भी स्पर्श कर जाता है और मन में फ़िर से उस अंधेरे में डूबे पीड़ा संसार को रोशनी के दहलीज पर ढकेल देता है. तब मन फ़िर से सब कुछ को भूल कर उस खट्टे मीठे संसार में डूबता उतराता रह जाता है. मन को गहराईयों तक जा कर छूने वाली एक खूबसूरत और भाव विभोर कर देने वाली प्रस्तुति. आभार.
सादर,
डोरोथी.
जख़्मों का क्या कब टीस उठा दे
यादें समेटे एक सुंदर रचना |बधाई
आशा
वंदना जी .
आह! यादों ने हटाया ज़ख्मों का पर्दा। कम शब्दों में दिल को छूती अभिव्यक्ति।
बेहतरीन।
सादर
बेदर्द सबा की साजिश है....
heart touching poem....
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