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बुधवार, 21 अक्टूबर 2015

जश्न अभी बाकी है

न मेरा दर हवाएं खटखटाती
न मैं हवाओं के घर जाती
अपनी अपनी मसरूफियतें हैं
अपने अपने शिकवे शिकायतें
फिर भी अक्सर
राह चलते होती मुलाकातों में
एक अदद मुस्कराहट का पुल
संभावनाओं का साक्षी है
कि है उधर भी ऊष्मा बची हुई
कि है उधर भी अहसासों संवेदनाओं की धरती बची हुई

अब फर्क नहीं पड़ता
कि गले लगाकर ही ईद सा उत्सव मनाएं और खुद को बहलायें
हकीकत की मिटटी अभी नम है

तो फिर मुस्कुराओ न ... जश्न अभी बाकी है


3 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बृहस्पतिवार (22-10-2015) को "हे कलम ,पराजित मत होना" (चर्चा अंक-2137)   पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
विजयादशमी (दशहरा) की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

Pallavi saxena ने कहा…

बहुत बढ़िया।

Pallavi saxena ने कहा…

बहुत बढ़िया।