खुद को समेटकर रखती है अपने अन्दर ही बाहर नहीं मिलता कोई कोना या ठिकाना सुस्ताने को बिछे नहीं मिलते हरसिंगार खोखले सन्दर्भों से परिभाषित नहीं किए जा सकते सम्बन्ध
आग्नेय नेत्रों और बोलियों से
हिल जाती हैं पुख्ता नींवें भी एक दिन
रबड़ को एक हद तक खींचना ही शोभा देता है
तात्पर्य यह
कि स्त्रियों ने सीख लिया है
तुम्हारी परिक्रमा से बाहर एक वृत्त बनाना
जो उनसे शुरू होकर उन पर ही ख़त्म होता है
यह स्त्रियों का नया स्वांग
तुम्हारे अहम पर आखिरी चोट है
गुठने चलने के नियमों को ताक पर रख
कर ली है उसने अपनी रीढ़ सीधी
आओ, कर सको तो करो
स्त्रियों की नयी दुनिया को सलाम
'आमीन' कहने भर से हो जायेगी हर मुश्किल आसान
1 टिप्पणी:
बहुत सुन्दर रचना।
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