मुझे दस्तकों से ऐतराज नहीं
यहाँ अपनी कोई आवाज़ नहीं
ये किस दौर में जीते हैं
जहाँ आज़ादी का कोई हिसाब नहीं
चलो ओढ़ लें नकाब
चलो बाँध लें जुबान
कि
ये दौर-ए बेहिसाब है
यहाँ किसी का कोई खैरख्वाह नहीं
दाँत अमृतांजन से मांजो या कॉलगेट से
साँसों पे लगे पहरों पर
तुम्हारा कोई अख्तियार नहीं
आज के दौर का यही है बस एकमात्र गणित
मूक होना ही है निर्विकल्प समाधि का प्रतीक
तो
शोर देशद्रोह है , राष्ट्रद्रोह है
हाथ ताली के लिए
मुँह खाने के लिए
सिर झुकाने के लिए
इससे आगे कोई रेखा लांघना नहीं
कि
सीमा रेखा के पार सीता का निष्कासन ही है अंतिम विकल्प...
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आज के दौर का यही है बस एकमात्र गणित
मूक होना ही है निर्विकल्प समाधि का प्रतीक
गहरी बात...
उम्दा कविता
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