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बुधवार, 1 अक्टूबर 2014

यादों की गुरमुखी

तेरी याद की सडक 
कभी खुरदुरी तो कभी सपाट 
और मैं 
कभी चलती हूँ 
कभी दौडती हूँ 
तो कभी ठहर जाती हूँ 
किसी सडक किनारे बने बैंच की तरह 
जो सदियों से वहीं है 
कितने ही मुसाफ़िर आयें जायें 
कितने ही मौसम बदलें 
मगर उसका ठहराव अटल है 

ये सदियों से सदियों के सफ़र पर 
चलने वाले मुसाफ़िरों की 
न दिशा होती है न दशा और न मंज़िल 
सिर्फ़ भटकाव के घने काले सायों में 
जीना ही उनका उत्तरार्ध होता है 
जाने क्यों फिर भी चलते चले जाने को अभिशप्त होते हैं 
और सडक है कि जिसका न ओर मिलता है और न छोर 

अब तुम नही हो 
लेकिन तुम्हारे नहीं होने से मेरे होने तक 
बस है तो बीच में ........ एक यादों की सडक 
क्या कभी मिलेगा इसे कोई अनुवादक जो बाँच सके यादों की गुरमुखी ?

4 टिप्‍पणियां:

सुरेन्द्र "मुल्हिद" ने कहा…

bahut sundar

देवदत्त प्रसून ने कहा…

सब को नवदुर्गा-पर्व की शुभकामना ! आज के वृद्ध-दिवस की वधाई सभी वरिष्ठ नागरिकों को !अच्छी प्रस्तुति !

संजय भास्‍कर ने कहा…

छोटे भाव की बड़ी कविता।

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

वाह बहुत खूब